“नादब्रह्म” मात्र एक दर्शन नहीं, एक जीवन पद्धति है। भारतीय परंपरा में ध्वनि को ही ब्रह्म माना गया-वह मूल कंपन, जिससे सृष्टि का प्रारंभ हुआ। जब यह स्वर आत्मा से निकलकर समाज से जुड़ता है, तो वह संगीत बन जाता है। स्वर में जीवन, जीवन में रस और रस में परम अर्थ निहित है। आज, जब हम आधुनिकता की अंधी दौड़ में मशीनों के कोलाहल और तकनीकी मनोरंजन के शोर में डूबे हैं, यह सवाल प्रासंगिक हो गया है: क्या हम संगीत के वास्तविक स्वरूप को आज भी पहचानते हैं?
संगीत: संस्कृति का प्राण
भारतीय संगीत की जड़ें वेदों में हैं। सामवेद की ऋचाएँ रागात्मक उच्चारण में प्रस्तुत की जाती थीं। ऋषियों ने ‘श्रुति’ के माध्यम से ब्रह्मांडीय कंपन को आत्मा की अभिव्यक्ति बनाया। यही कारण है कि यहाँ संगीत साधना है, केवल प्रदर्शन नहीं। संगीताचार्य पंडित विष्णु नारायण भातखंडे और उस्ताद अलाउद्दीन खाँ जैसे महानुभावों का मानना था कि “संगीत को सीखना, आत्मा को मांजना है।” यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने भी कहा, “संगीत ब्रह्मांड को आत्मा, मस्तिष्क को पंख, कल्पना को उड़ान और जीवन को जीवन देता है।”
जनजातीय समाज में संगीत: जीवंत परंपरा
बस्तर, झारखंड, मणिपुर, नागालैंड, अरुणाचल जैसे क्षेत्रों में संगीत कोई ‘कला’ नहीं, जीवन का अंग है। बीज बोने से लेकर फसल काटने, जन्म से मृत्यु संस्कार तक, हर क्षण के साथ गीत जुड़ा है। कोई लिखित रागदारी नहीं, कोई मंचीय गुरु नहीं, फिर भी वह संगीत आत्मा को छू लेता है क्योंकि वह प्रकृति से उपजा है।
बस्तर के अबूझमाड़ में जब सात फुटिया ढोलक, दमदमी नगाड़े, मोहरी, मांदरी और बाँसुरी की आवाज़ें गूंजती हैं, तो न भाषा की जरूरत होती है, न अनुवाद की। वहाँ संगीत का अर्थ है: “एक साथ जीना, एक साथ गाना, एक साथ नृत्य करना।”
आधुनिकता का शोर: संगीत का विकृतिकरण
आज का मुख्यधारा संगीत बाज़ारू उत्पाद बन गया है। ऑटो-ट्यून, बीट्स, रीमिक्स और व्यावसायिकता ने संगीत को वस्तु में बदल दिया। यूट्यूब पर जो ‘हिट’ होता है, वही ‘संगीत’ बन जाता है, भले ही उसमें आत्मा न हो। “जो बिकेगा, वही बजेगा” की सोच ने हजारों वर्षों की साधना को संकट में डाल दिया है।एक कहावत सटीक है: जब कला उत्पाद बन जाती है, तब कलाकार कठपुतली बन जाता है।
संगीत: मन और समाज की औषधि
आज के तनावग्रस्त समाज में संगीत केवल मनोरंजन नहीं, चिकित्सा है। ‘म्यूज़िक थेरेपी’ वैज्ञानिक रूप से सिद्ध उपचार है। भारतीय रागों में समय, भाव और प्रकृति के अनुरूप रचना का सिद्धांत न्यूरो-साइंस से कम नहीं। उदाहरणतः:
- राग भैरव: प्रातः का राग, मन को स्थिर करता है।
- राग मेघ-मल्हार: शांति और ताजगी देता है।
- राग दीपमालिका: ऊर्जा का संचार करता है।
संस्कृत में कहा गया: “संगीतमाधुर्यं हृदि प्रीणयति जनस्य” – संगीत की मधुरता हृदय को तृप्त करती है।
संगीत और राष्ट्रीय चेतना
स्वतंत्रता संग्राम में संगीत क्रांति का माध्यम बना। “वन्दे मातरम्” और “कदम-कदम बढ़ाए जा” जैसे गीतों ने जनमानस को प्रेरित किया। आज भी सांस्कृतिक चेतना के लिए संगीत एक अमोघ अस्त्र है, जो जोड़ता है, बाँटता नहीं।
लोकसंगीत: मिट्टी की आवाज़
राजस्थान का मांड, पंजाब का टप्पा, बंगाल का बाउल, छत्तीसगढ़ का सुआ-लोकसंगीत में ‘संग’, ‘नीति’ और ‘गीत’ का समन्वय है। यह हमें सिखाता है कि दुख को भी मुस्कान में बदला जा सकता है। तुलसीदास ने कहा:
“बिन राग के मन, तन जैसे, सूनी बंजर धरती भाई।”
शास्त्रीय संगीत: साधना की पराकाष्ठा
हिंदुस्तानी और कर्नाटक संगीत योग हैं। तानसेन, किशोरी अमोनकर, उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ जैसे संगीतज्ञों ने इसे ब्रह्मांडीय ऊँचाइयों तक पहुँचाया। “संगीत केवल गला नहीं, आत्मा का गान है।”
संगीत और पर्यावरण
जनजातीय संस्कृति में संगीत और प्रकृति अभिन्न हैं। बाँसुरी में वनों की हवा बहती है। बस्तर के ककसाड़ नृत्य में साल वनों की गमक और धान की गंध थिरकती है। पर्यावरण की रक्षा संस्कृति से होगी, और संस्कृति का मूल संगीत है।
निष्कर्ष: नाद से निर्वाण तक
विश्व संगीत दिवस हमें स्मरण कराता है कि मनुष्यता को पुनर्जनन के लिए संगीत की ओर लौटना होगा। वह संगीत जो आत्मा से उपजे, जो ध्यान, साधना और आनंद का माध्यम बने। “नादं शरणं गच्छामि” हमारा संकल्प हो, क्योंकि जहाँ संगीत मरता है, वहाँ संवेदना मरती है, और जहाँ संवेदना नहीं, वहाँ केवल शोर बचता है।
(डॉ. राजाराम त्रिपाठी, राष्ट्रीय संयोजक, अखिल भारतीय किसान महासंघ, संपादक: ककसाड़ (जनजातीय विमर्श पर केंद्रित मासिक पत्रिका)