पिछले एक वर्ष से सोशल मीडिया पर सिन्धु घाटी सभ्यता की एक तथाकथित सील (मिट्टी की मोहर), जिस पर गाय का चित्र और स्वस्तिक का निशान बना हुआ है, के साथ एक पोस्ट प्रसारित हो रही है। इसे सैकड़ों लोग शेयर भी कर रहे हैं। पोस्ट में लिखे शब्दों का सार यह है कि सिन्धु घाटी सभ्यता मूलतः हिन्दू सभ्यता थी और उसकी लिपि, जिसे अब तक अपठनीय माना जाता है, ब्राह्मी लिपि का ही एक रूप है।
इसमें यह भी दावा किया गया है कि ‘वामपंथी इतिहासकार’ जानबूझकर इस तथ्य को छिपा रहे हैं कि यह हिन्दू धर्म की महान विरासत है। पोस्ट के अंत में ‘जय श्रीराम, जय सनातन धर्म’ लिखा हुआ है। कोई इन तथाकथित इतिहासकारों से पूछे कि भारत सहित दुनिया के उन प्राचीन इतिहासकारों ने, जिन्होंने इस सभ्यता का अध्ययन और विश्लेषण किया, क्या वे सभी हिन्दुओं के खिलाफ किसी षड्यंत्र में शामिल हैं?
वास्तव में, गाय और स्वस्तिक के निशान वाली यह सील, जो फोटो में दिखाई जा रही है, किसी हड़प्पा उत्खनन स्थल से प्राप्त नहीं हुई है। यह पूर्णतः फोटोशॉप का कमाल है। सिन्धु घाटी सभ्यता की खोज सबसे पहले सन् 1921-22 में भारत के सिन्ध प्रांत (वर्तमान में पाकिस्तान) में की गई थी। सिन्धु घाटी सभ्यता, 3300 ईसा पूर्व से 1700 ईसा पूर्व तक, विश्व की प्राचीन नदी घाटी सभ्यताओं में से एक प्रमुख सभ्यता थी।
प्रतिष्ठित शोध पत्रिका नेचर में प्रकाशित एक शोध के अनुसार, यह सभ्यता कम से कम 8000 वर्ष पुरानी है। बाद में इस सभ्यता का विस्तार अफगानिस्तान से लेकर गुजरात, उत्तर प्रदेश के मेरठ, हरियाणा और राजस्थान तक पाया गया। गुजरात में लोथल और धौलावीरा, हरियाणा में राखीगढ़ी और राजस्थान में कालीबंगा जैसे स्थानों से इस सभ्यता के बड़े नगरों के सबूत मिले हैं। अभी भी कई क्षेत्रों में उत्खनन कार्य जारी हैं।
हड़प्पा सभ्यता एक विकसित नगरीय सभ्यता थी। यहाँ के नगरों की संरचना आधुनिक नगरीय संरचना से काफी हद तक मिलती-जुलती थी। विदेशों से व्यापार के प्रमाण भी मिले हैं। हालांकि, हड़प्पा में प्राप्त मिट्टी की सीलों पर लिखी लिपि को अब तक पढ़ा नहीं जा सका है, जिसके कारण इस सभ्यता के सामान्य जनजीवन और धर्म के बारे में अभी बहुत जानकारी उपलब्ध नहीं है। विश्व की अन्य प्राचीन सभ्यताओं, जैसे मेसोपोटामिया, मिस्र या यूनान की सभ्यताओं में, एक प्राचीन कबायली धर्म के प्रमाण मिलते हैं, जिनका हिन्दू धर्म से कोई सीधा संबंध नहीं है।
सिन्धु घाटी सभ्यता को हिन्दू सभ्यता सिद्ध करने के इन तथाकथित ‘संघी राष्ट्रवादी इतिहासकारों’ के कुछ दूरगामी लक्ष्य प्रतीत होते हैं। पहला लक्ष्य यह सिद्ध करना है कि हिन्दू धर्म विश्व का सबसे प्राचीन धर्म है और हिन्दुओं की सभ्यता विश्व की सबसे विकसित सभ्यता थी।
इसी के अंतर्गत गुप्तकाल को भारतीय इतिहास के स्वर्णयुग के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जिसमें बौद्ध धर्म का कथित तौर पर क्रूरता से विनाश किया गया, लाखों बौद्धों की हत्या की गई, उनके विहारों और मठों को नष्ट कर दिया गया। साथ ही, हिन्दुओं की जातिप्रथा, जिसमें बहुसंख्यक शूद्र जातियों का भयानक शोषण हुआ, उस पर मुट्ठी भर उच्च जातियों के अभिजात्य साहित्य, कला और संस्कृति को गौरवशाली बताया जाता है।
इसी संदर्भ में, कारवाँ पत्रिका के अप्रैल 2025 के अंक में इरम आगा अपने एक लेख में लिखती हैं कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बागपत जिले में स्थित सिनौली में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के उत्खनन में सौ से अधिक स्थानों पर तलवारें, धनुष, मिट्टी के बर्तन और, सबसे महत्वपूर्ण, एक पहिए वाला वाहन मिला, जिसे घोड़े से चलने वाला रथ बताया गया। यह खोज चौंकाने वाली थी और इसे ‘भारत में इस तरह की पहली खोज’ कहा गया।
एएसआई ने इन कलाकृतियों को लगभग 2000 ईसा पूर्व का बताया और इन्हें हड़प्पा सभ्यता के अंत से जोड़ा। परियोजना के प्रमुख पुरातत्वविद् संजय कुमार मंजुल ने दावा किया कि यह रथ सिद्ध करता है कि भारत में विश्व का सबसे पुराना योद्धा वर्ग था। उन्होंने इन निष्कर्षों को महाभारत और ऋग्वेद के युद्ध के प्रसंगों से जोड़ा।
सिनौली तब से संघ परिवार के इतिहास दृष्टिकोण को मानने वालों और न मानने वालों के बीच एक जटिल वैचारिक लड़ाई का केंद्र बन गया है। इसमें एएसआई ने संघ के पक्ष में दृढ़ता से अपनी स्थिति बना ली है। इसके अधिकारियों ने सिनौली के निष्कर्षों को तोड़-मरोड़कर एक प्राचीन हिन्दू अतीत का निर्माण किया, भले ही वैज्ञानिक सबूत इन दावों का खंडन करते हों। एएसआई के ये जटिल साक्ष्य प्रधानमंत्री तक पहुँचे और उन्होंने इसे तथ्य के रूप में प्रचारित किया।
इसी बीच, एएसआई ने उन पुरातात्विक शोधों में बहुत कम रुचि दिखाई, जो संघ के प्राचीन भारत के विचार को चुनौती देते हैं। सन् 2015 में तमिलनाडु के कीझड़ी में एएसआई के उत्खननकर्ताओं ने संगम युग की शहरी सभ्यता के पहले साक्ष्य खोजे, जिसे तमिल कला और साहित्य के शिखर के रूप में जाना जाता है। हालांकि, यह गैर-वैदिक सभ्यता भारत की कथित वैदिक मूल सभ्यता के साथ सहज नहीं बैठती। यह परियोजना जल्द ही विवादों में फँस गई।
प्रमुख उत्खननकर्ता का स्थानांतरण कर दिया गया और केंद्र सरकार ने आगे के उत्खनन के लिए धन रोक दिया। तमिलनाडु सरकार ने बाद में इस स्थल को अपने नियंत्रण में ले लिया। राज्य सरकार ने तब से छह चरणों में उत्खनन करवाया, जिनके निष्कर्ष चौंकाने वाले रहे हैं। एक चरण की जाँच में राज्य पुरातत्व विभाग को सबूत मिले कि इस सभ्यता के लोग 580 ईसा पूर्व से ही तमिल-ब्राह्मी लिपि से परिचित थे, जो पहले के अनुमानों से कहीं पहले की बात है। यहाँ पत्थरों पर मिले चित्रकारी के निशान सिन्धु घाटी सभ्यता से इस सभ्यता के संबंधों को दर्शाते हैं।
इसी तरह के निष्कर्ष दिल्ली के पुराना किला उत्खनन से भी सामने आए। यहाँ पाँच बार उत्खनन हुआ और प्राप्त पुरातात्विक अवशेष अधिकतर बौद्धकालीन सभ्यता के थे। फिर भी, यह दावा किया गया कि यहाँ प्राचीन इन्द्रप्रस्थ नगरी और महाभारत युद्ध के प्रमाण मिले हैं।
हालांकि, डॉ. बसंत कुमार स्वर्णकार, जिनके निर्देशन में 2023 में उत्खनन हुआ था, ने स्वयं बताया था कि “अभी तक कोई ऐसा प्रमाण नहीं मिला है कि यह स्थान प्राचीन इन्द्रप्रस्थ नगरी था या इसका संबंध महाभारत काल अथवा उस समय के युद्ध से था।” बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद भी वहाँ कुछ मूर्तियाँ रखवाई गई थीं और प्रचारित किया गया कि वे बाबरी मस्जिद के अवशेषों से मिली थीं। इस संबंध में फ्रंटलाइन पत्रिका में ‘द कारसेवक आर्कियोलॉजी’ शीर्षक से एक लेख भी प्रकाशित हुआ था।
सबसे हालिया उदाहरण राजस्थान के डीग जिले के बहज गाँव का है,जहां 10 जनवरी 2024 को एएसआई ने खुदाई शुरू की थी। अब तक की खुदाई में 800 से अधिक अवशेष प्राप्त हुए हैं, जिनमें शिव-पार्वती की मूर्तियाँ, ताँबे के सिक्के, ब्राह्मी लिपि की प्राचीन मोहरें, यज्ञकुंड, हड्डियों के औज़ार और मौर्यकालीन मूर्तियाँ शामिल हैं।
यहाँ चार ऐतिहासिक कालों के सबूत मिले हैं-हड़प्पा के बाद का काल, मौर्यकाल, कुषाणकाल और गुप्तकाल। निश्चित रूप से यह एक प्राचीन सभ्यता है, लेकिन अब इसे भी कथित रूप से महाभारत काल से जोड़ा जा रहा है। रिपोर्ट के अनुसार, खुदाई में 30 मीटर की गहराई पर एक प्राचीन नदी का चैनल मिला है, जिसे सरस्वती नदी से जोड़ा जा रहा है, जिसका उल्लेख ऋग्वेद में है।
वास्तव में, पुरातत्व एक विज्ञान है, जिसमें वैज्ञानिक परीक्षण, विशेष रूप से कार्बन डेटिंग विधि, के द्वारा वस्तुओं का काल निर्धारित किया जाता है। जैव विज्ञान में प्रगति के बाद अब डीएनए जाँच से प्राचीन मानव के रहन-सहन, संस्कृति और वंश-स्थान के बारे में जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
लेकिन यदि इन वैज्ञानिक निष्कर्षों में ही हेरफेर किया जाए, तो अपनी सुविधानुसार अनेक निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। दुर्भाग्यवश, आज एएसआई संघ परिवार के हिन्दू राष्ट्र के एजेंडे पर काम कर रही है, जिसके परिणाम भविष्य में देश और समाज के लिए विनाशकारी सिद्ध हो सकते हैं।
(स्वदेश कुमार सिन्हा लेखक और टिप्पणीकार हैं)