सभ्यता के इतिहास के पैमानों पर भारत का किसान संघर्ष

भारत का किसान लगता है जैसे अपनी कुंभकर्णी नींद से जाग गया है। अपने इतने विशाल संख्या-बल के बावजूद संसदीय जनतंत्र में जिसकी आवाज का कोई अलग मायने नहीं रह गया था, फिर भी वह गांव के शांत जीवन में अपनी आत्मलीन चौधराहट की ठाठ और उष्मा में निष्क्रिय पड़ा हुआ था, अपने अंदर की सारी जड़ताओं की स्वतंत्रता में ही मगन था; पंचायती राज की राजनीति भी जिसके लिए महज राजसत्ता से मिला एक अतिरिक्त बोनस थी, सस्ती बिजली, सस्ता कर्ज और कर्ज माफी के अलावा न्यूनतम समर्थन मूल्य का सहयोग। वही सोया हुआ विशालकाय तबका आज जैसे अचानक धूल झाड़ कर दहाड़ता हुआ जीवन-मृत्यु की, अपने अस्तित्व की आर-पार की दुर्धर्ष लड़ाई में उतर पड़ा है। यह किसी भी मानदंड पर कोई साधारण घटना नहीं है।

खेती-किसानी उत्पादन के एक खास स्वरूप से जुड़ी खुद में एक पूरी सभ्यता है। पूंजीवाद से पूरी तरह से भिन्न सभ्यता। इतिहास में पूंजीवाद का स्थान इसके बाद के क्रम में आता है, इसका अर्थ यह नहीं है कि पूंजीवाद कृषि समाज का कोई अपरिहार्य स्वाभाविक उत्तरण है। इसे डार्विन के विकासवाद की तरह जीव के स्वाभाविक विकासक्रम में होने वाले कायंतरण की तरह देखना कृषि समाज और पूंजीवाद, दोनों की ही अपनी-अपनी वास्तविकताओं से आंख मूंदने की तरह है।

पूंजीवाद के उदय के पीछे कृषि समाज नहीं, उत्पादन के नई पद्धतियां और स्वचालित प्रणालियां रही हैं। कृषि समाज के हजारों सालों के मान-मूल्य पूंजीवादी समाज के मूल्यों से बिल्कुल भिन्न अर्थ रखते हैं और अपनी अपेक्षाकृत प्राचीनता के कारण ही प्रतिक्रियावादी, बेकार और पूरी तरह से त्याज्य नहीं हो जाते हैं। आज जब सारी दुनिया में पूंजीवादी सभ्यता में आदमी के विच्छिन्नता-बोध से जुड़े मानवीयता के संकट के बहु-स्तरीय रूप खुल कर सामने आ चुके हैं, तब पूंजीवादी श्रेष्ठता की पताका लहराने में कोई प्रगतिशीलता नहीं है, बल्कि प्रगतिशीलता का स्रोत इसके वास्तविक विकल्पों की लड़ाइयों में निहित है।

वे लड़ाइयां भले शहरी मजदूर वर्ग के नेतृत्व में लड़ी जा रही हों या किसानों के नेतृत्व में। इसीलिए, राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई में वामपंथ पूंजीवाद के खिलाफ विशाल कृषि समाज के किसी भी संघर्ष के प्रति उदासीन और आंख मूंद कर नहीं रह सकता है। देहातों की जो विशाल आबादी अभी तक अपनी आत्मलीनता में डूबी हुई पूंजीपतियों की दलाल दक्षिणपंथी राजनीतिक ताकतों को एक प्रकार की निष्क्रिय मदद देती रही है, इसके पहले कि वह पूरी तरह से बर्बर फासिस्टों के सक्रिय तूफानी दस्तों की भूमिका में आ जाए, यह जरूरी है कि वामपंथ के तार इस पूरे समाज के साथ हर स्तर पर सक्रिय रूप में जुड़ जाए।

कहना न होगा, आज किसानों के इस संघर्ष के बीच से भारत के प्रगतिशील रूपांतरण की लड़ाई का वही ऐतिहासिक काम संपन्न हो रहा है। किसानों की इस लड़ाई के जरिए किन्हीं सामंती अन्यायों या विश्वासों की स्थापना का काम नहीं हो रहा है, बल्कि जो किसान जनता जमीन पर अपनी निजी मिल्कियत के चलते व्यक्ति स्वातंत्र्य के मूल्यों की कहीं ज्यादा ठोस सामाजिक जमीन पर खड़ी है, उसके जरिये नागरिकों की आजादी और स्वतंत्रता की लड़ाई के एक नए वैकल्पिक इतिहास की रचना की जा रही है।

पूंजीवादी जनतंत्र की कमियों का विकल्प राजशाही के निर्दयी मूल्यों पर टिका बर्बर फासीवाद नहीं, किसान जनता के अपने स्वच्छंद जीवन और स्वातंत्र्य बोध पर टिका जनता का जनवाद है, किसानों की यह ऐतिहासिक लड़ाई इसी संदेश को प्रेषित कर रही है।

किसानों की मंडी में लाखों दोष हो सकते हैं, पर वह उनके समाज की अपनी खुद की मंडी है, किसी बाहरी अमूर्त शक्ति का औपनिवेशिक बाजार नहीं, इस सच्चाई के गभितार्थ को अच्छी तरह से समझने की जरूरत है। सरकार यदि देहात की जनता के हितों का प्रतिनिधित्व करती है तो उसका दायित्व सिर्फ इस मंडी व्यवस्था को और सबल बनाने, उन्हें किसानों की फसल की लूट के प्रतिरोध केंद्रों के रूप में विकसित करने भर की हो सकती है। इसी के लिए एमएसपी को वैधानिक दर्जा देने की मांग की जाती रही है, लेकिन मोदी सरकार मंडी मात्र को ही खत्म करके पूरी देहाती आबादी को उसके मूलभूत स्वातंत्र्य से ही वंचित करने को, उन्हें पूंजीपतियों का गुलाम बनाने को उनकी भलाई बता रही है। मोदी का पूरा तर्क उपनिवेशवाद को उपनिवेशों की जनता को सभ्य बनाने के घृणित तर्क से रत्ती भर भी भिन्न नहीं है।

पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र के किसानों ने पूंजीपतियों के दलाल के रूप में मोदी की करतूतों के मर्म को जान लिया है। तीनों काले कानूनों के पीछे इजारेदारों की उपस्थिति का नजारा उनके सामने दिन के उजाले की तरह साफ है। भारत के बृहत्तर किसान समाज के बीच इन्हीं क्षेत्रों के किसान हैं जो अपने ग्रामीण जीवन के समूचे ताने-बाने में सबसे अधिक सबल हुए हैं।

इस तबके को अपनी स्वतंत्रता के मूल्य का पूरा अहसास है और इसीलिए भारत के किसानों की इस ऐतिहासिक लड़ाई के वे स्वाभाविक नेता हैं। लेनिन से जब किसी भावी विश्व समाजवादी क्रांति के नेतृत्व के बारे में पूछा गया था तो उन्होंने अमेरिका में मजदूर वर्ग के विकसित स्वरूप को देखते हुए निःसंकोच कहा था कि वह अमेरिकी मजदूरों के हाथ में होगा। अमेरिका के मजदूरों ने अपने संघर्षों से सबसे पहले और सबसे अधिक जनतांत्रिक स्वतंत्रता के अधिकार अर्जित किए थे।

कहना न होगा, आज की दुनिया में मानव स्वातंत्र्य की लड़ाई में मजदूर वर्ग के साथ ही किसानों की कहीं ज्यादा संभावनामय भूमिका को गहराई से समझने की जरूरत है। यह लड़ाई सारी दुनिया के लिए पूंजीवादी व्यवस्था और सभ्यता के संकट के एक सटीक समाधान की तलाश की लड़ाई को नई दिशा दिखाएगी। भारत के इस ऐतिहासिक किसान संघर्ष में इसके सारे संकेत देखे जा सकते हैं।

इस लड़ाई का इन तीनों काले कृषि कानूनों के अंत और एमएसपी को वैधानिक मान्यता दिलाने की मंजिल तक पहुंचना पूंजीपतियों और व्यापक जनता के बीच सत्ता के एक नए संतुलन का सबब बनेगा। यह इतिहास में वेतन की गुलामी का प्रसार करने वाले पूंजी के विजय-रथ को रोकने के एक नए अध्याय का सूत्रपात करेगा। यह लड़ाई भारत की पूरी किसान जनता के लिए अपने वैभवशाली स्व-स्वरूप को पहचानने की लड़ाई साबित होगी।

(अरुण माहेश्वरी वरिष्ठ लेखक और चिंतक हैं। आप आजकल कोलकाता में रहते हैं।)

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