नीतीश की भाजपा से नजदीकी के तीन कारण

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प्रदीप सिंह

नीतीश कुमार इस समय कहां हैं ? वर्तमान में उनकी राजनीतिक दिशा क्या है और भविष्य में उसका स्वरूप क्या होगा? इस सवाल का जवाब उनकी ताजा राजनीतिक सक्रियता है। अभी हाल ही में नीतीश कुमार ने गुजरात का दौरा किया। दौरे का मकसद जदयू के लिए गुजरात में राजनीतिक जमीन तलाशना था। जदयू गुजरात विधानसभा चुनाव लड़ने की योजना बना रही है। राजनीतिक हलकों में यह चर्चा गरम है कि नीतीश कुमार अपना आधार बढ़ाने की बजाय भाजपा विरोधी मतों में सेंध लगाने के लिए ऐसा कर रहे हैं।

 

मौजूदा दौर में नीतीश कुमार की राजनीतिक भूमिका

तो क्या नीतीश कुमार की राजनीति अंदरखाने भाजपा को मदद पहुंचा रही है? मौजूदा दौर में नीतीश कुमार की राजनीतिक भूमिका बदल गयी है। ताजा घटनाक्रम तो इसी तरफ इशारा करते हैं। बिहार में शराबबंदी करके प्रशंसा बटोरने वाले नीतीश कुमार नोटबंटी को सही कदम बता कर सवालों में घिर गए। अब उनकी राजनीति शंका की दृष्टि से देखी जा रही है।

एमसीडी चुनाव में नीतीश कुमार

जनता दल यू दिल्ली नगर निगम का चुनाव लड़ रही है। नीतीश कुमार अभी दिल्ली में चुनाव प्रचार करके गए हैं। 272 सीटों वाली एमसीडी में जेडीयू ने 113 प्रत्याशी उतारे हैं। ऐसे में यह सवाल उठता है कि जेडीयू ने केवल 113 प्रत्याशी ही क्यों उतारे ? ठोस जनाधार के अभाव में यदि जेडीयू सभी सीटों पर अपना प्रत्याशी उतारती तो कोई अनर्थ नहीं हो जाता। ऐसे में पार्टी का यह जवाब स्वभाविक है कि जहां-जहां हमारी स्थिति मजबूत है,वहां पर हमने अपने प्रत्याशी खड़े किए हैं। जमीनी सच्चाई यह है कि जेडीयू दिल्ली में अभी कुछ करने की स्थिति में नहीं है। बिहार और पूर्वांचल के कुछ युवा जो पार्टी के सिंबल पर चुनाव लड़ रहे हैं उनके अलावा जेडीयू के खाते में खास नहीं है। ऐसे प्रत्याशी भाजपा और आम आदमी पार्टी के टिकट न पाने की स्थिति में जेडीयू के पाले में आए हैं।

भाजपा के निशाने पर विपक्षी दल

ऐसे समय में जब केंद्र सरकार विपक्षी नेताओं और पार्टियों को वैधानिक और अवैधानिक तरीके से उनकी औकात बताने में लगी है। अरविंद केजरीवाल सरकार को परेशान और बदनाम करने का कोई अवसर जाने नहीं दे रही है। निगम चुनाव में आम आदमी पार्टी और भाजपा में ही मुख्य लड़ाई दिख रही हो, जेडीयू का बीच में आना असहज करता है। जेडीयू का नगर निगम चुनाव में शामिल होना किसी बड़े राजनीतिक खेल का संकेत देता है। जो पर्दे के पीछे राष्ट्रीय स्तर पर चल रहा है। इसमें भाजपा कुछ क्षेत्रीय पार्टियों को मोहरे की तरह इस्तेमाल करती दिख रही है।

सवालों के घेरे में नीतीश

नीतीश कुमार यहीं से सवालों के घेरे में आते हैं। अभी हाल ही में पांच राज्यों में हुए चुनाव के समय यह खबर आ रही थी कि जेडीयू उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ेगी। पड़ोसी राज्य होने की वजह से नीतीश कुमार का उत्तर प्रदेश में संपर्क संबंध भी है। नीतीश कुमार ने इसका संकेत देते हुए अपने स्वजातीय कुर्मी बाहुल्य जिलों में कई रैलियां भी की। इस सिलसिले में नीतीश की गुजरात के चर्चित पटेल नेता हार्दिक से भी बातचीत हुई। जातीय समीकरण और अपनी साफ सुथरी छवि के दम पर वे उत्तर प्रदेश में राजनीतिक जमीन तलाश रहे थे। लेकिन एन वक्त पर वे नदारद हो गए। इसका कारण लोगों की समझ में नहीं आया। जबकि सच्चाई यह है कि भाजपा उत्तर प्रदेश में गैर यादव जातियों और नेताओं को अपने पक्ष में करने का अभियान चला रही थी और उसमें कामयाब भी रही।

नीतीश की छवि और जातीय समीकऱण

बिहार में तो लगभग चार फीसदी ही कुर्मी वोट हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश में कुर्मी मतदाता लगभग आठ फीसदी हैं। नीतीश कुमार के लिए यह एक अवसर था। लेकिन ऐसा माना जा रहा है कि भाजपा के दबाव में वे चुनावी मैदान में नहीं उतरे। उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ने से मना कर देना और दिल्ली-गुजरात में चुनाव लड़ना दोनों नीतीश कुमार के विपक्ष के वोट में बंटवारे के हिस्से के तौर पर देखा जा रहा है। जिससे भाजपा विरोधी पार्टियों का नुकसान हो। तो क्या नीतीश कुमार भाजपा के इशारे पर काम कर रहे हैं? राजनीतिक हल्कों में इस तरह की चर्चा आम है। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि सिर्फ नीतीश कुमार ही नहीं कई क्षेत्रीय क्षत्रप भी इस समय भाजपा की बड़ी राजनीति के हिस्से हैं। जिसमें शरद पवार, चंद्रबाबू नायडू, नवीन पटनायक, रामगोपाल यादव और कुछ ऐसे नेताओं का नाम है जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं। ऐसे नेताओं के माध्यम से भाजपा 2019 में संभावित विपक्षी एकता और महागठबंधन को पलीता लगाने की योजना पर काम कर रही है।

नीतीश कुमार की योजना दूसरे राज्यों में अपनी पार्टी का विस्तार करना है। एक लोकतांत्रिक देश में किसी भी पार्टी को यह करने का हक है। लगातार तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद नीतीश कुमार प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे थे। इसमें कोई बुराई भी नहीं है कि एक पूर्व केंद्रीय मंत्री और तीन बार मुख्यमंत्री बनने वाला व्यक्ति ऐसी महत्वाकांक्षा रखे। अगर तीन बार गुजरात का मुख्यमंत्री बनने वाला व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री बन सकता है तो बिहार का मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन सकता है।

महागठबंधन की संभावना पर सवालिया निशान

लेकिन बिहार विधानसभा चुनाव और 2014 लोकसभा चुनाव परिणामों ने नीतीश कुमार के इस सपने पर ब्रेक लगा दिया। 2019 लोकसभा चुनाव के पहले भाजपा विरोधी पार्टियों को लेकर एक महागठबंधन बनाने की संभावना पर विचार चलता रहा। लेकिन उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों के चुनाव परिणामों ने 2019 की इन संभावनाओं पर सवालिया निशान खड़ा कर दिया है। ऐसे में नीतीश कुमार जैसे नेता महागठबंधन में अपनी कोई भूमिका देखने की बजाय भाजपा से मित्रता और विपक्ष से दूरी बना कर चलने में अपनी भलाई समझ रहे हैं।

भाजपा के प्रति साफ्ट कार्नर के तीन ठोस कारण

पहला,नीतीश कुमार के दिल में भाजपा के प्रति साफ्ट कार्नर के तीन ठोस कारण हैं।  बिहार का राजनीतिक यथार्थ दूसरा महागठबंधन की राजनीति और तीसरा प्रधानमंत्री बनने की राजनीति का खेल। बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार लंबे समय तक एक दूसरे पर भरोसा नहीं कर सकते। दोनों नेताओं के व्यक्तित्व और तेवर अलग-अलग हैं। बिहार में भाजपा और जेडीयू ने मिलकर लंबे समय तक सरकार चलाई है। बदली हुई परिस्थितियों में नीतीश कुमार भाजपा से बैर लेना मुनासिब नहीं समझते है। अब सार्वजनिक रूप से मोदी विरोध करने की बजाय वे नोटबंदी जैसे मुद्दों का समर्थन कर रहे हैं। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि अंदरखाने वे भाजपा से मिलकर चलने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। जिससे भविष्य में लालू प्रसाद जैसे सहयोगियों के छिटकने पर नए राजनीतिक साथी को ढूंढ़ने में परेशानी न हो।

दूसरा, महागठबंधन बनने की स्ंभावना भले ही न हो लेकिन उसमें एक दर्जन प्रधानमंत्री के दावेदार हैं। 2014 लोकसभा चुनाव के समय नरेन्द्र मोदी के सामने राजनीतिक प्रतिद्वंदी के रूप में खड़े होने का न तो उनको कोई फायदा मिला और न ही वे विपक्ष के सर्वमान्य नेता की हैसियत प्राप्त कर सके।

तीसरा, नीतीश कुमार नरेन्द्र मोदी और भाजपा को रोक कर और राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी दलों का गठबंधन बनाकर अपने को प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के बतौर पेश करने में विफल रहे। हर क्षेत्रीय पार्टी का प्रमुख अपने को प्रधानमंत्री पद का दावेदार मानता है। ऐसे में नीतीश या किसी अन्य के नाम पर सहमत होना टेड़ी खीर ही है। प्रधानमंत्री बनने का सपना तो चकनाचूर हो चुका है। अब रही-सही जमीन खिसकने का डर सताने लगा है। ऐसे में नीतीश कुमार बदले-बदले से हैं। नीतीश कुमार के राजनीतिक कदम इसके संकेत दे रहे हैं।

शरद पवार नीतीश कुमार से भी दो कदम आगे

राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता शरद पवार नीतीश कुमार से भी दो कदम आगे हैं। प्रधानमंत्री न बन पाने की टीस उनको भी सताती रहती है। ऐसे में वे कांग्रेस को चिढ़ाने का कोई अवसर नहीं छोड़ते। इस समय वे भाजपा के सहयोगी की भूमिका में खड़े हैं। महाराष्ट्र में शिवसेना और भाजपा विवाद के समय भाजपा ने उद्धव ठाकरे को यह संकेत दे दिया था कि यदि आप अपना समर्थन वापस लेते हैं तो एनसीपी समर्थन देने को तैयार बैठी है।

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