दुनियाभर में धर्म, लोक-परलोक, स्वर्ग-नरक आदि काल्पनिक बातें आम आदमी के अनन्त शोषण के लिए ही बनाई गईं हैं!

भारत में लगभग 80 प्रतिशत धर्मभीरु जनता इसी बात में बुरी तरह उलझी हुई है कि, ‘ऊपरवाला किस्मत लिखता है, वो सब देखता है, वो हमारे पाप-पुण्य का हिसाब रखता है, जीवन-मरण भी उसी के हाथ में है, उसकी मर्ज़ी के बगैर एक पत्ता तक भी नहीं हिलता, ऊपरवाला खाने को देता है, मंत्रों द्वारा संकट निवारण, हज़ारों किस्म के शुभ-अशुभ, हज़ारों किस्म के शगुन-अपशगुन, धागे-ताबीज़, भूत-प्रेत, पुनर्जन्म, टोने-टोटके, राहु-केतु, शनि ग्रह, ज्योतिष, वास्तु-शास्त्र, पंचक, मोक्ष, हस्तरेखा, मस्तक रेखा, वशीकरण, जन्मकुंडली, कालाजादू, तंत्र-मन्त्र-यंत्र, झाड़-फूंक, वगैरह-वगैरह इस किस्म के इनके हज़ारों अविष्कार हैं। अब यूरोप को देखिए वहां धर्म की, परमात्मा की और अध्यात्म की बकवास को नकारते हुए लगभग चार सौ साल पहले वहाँ व्यवस्थित ढंग से विज्ञान और तर्क पैदा हुआ।

आज वहाँ जो तकनीक और सुविधाएँ है, वो उसी परिवर्तन की उपज है, वे देश आज इतने सुखी, व्यवस्थित व उन्नतशील इसलिए हैं, क्योंकि वे दक्षिण एशियाई देशों विशेषकर भारत, पाकिस्तान आदि की तरह के पाखंड और अंधविश्वास से भरे धर्म का लबादा अपने देश से उखाड़कर फेंक दिए हैं और मजे की बात ये भी है कि यूरोप, अमेरिका, रूस, चीन, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और जापान आदि जैसे उन्नतिशील देशों में ये धर्म, अध्यात्म, मोक्ष आदि भ्रामक व काल्पनिक बकवास की बातों को किये बिना औसत आबादी में आपस में कहीं ज्यादे मित्रता, समानता, भाईचारा और खुलापन आया है। वहाँ की ट्रेनों, होटलों, थियेटरों आदि में वहाँ के सभी लोग बराबर होते हैं, सभी लोग साथ में खाना खाते -पीते हैं। वहाँ कोई छूआछूत नहीं, कोई भेदभाव नहीं, कोई अश्यपृश्यतावाली बात नहीं है, वहाँ पहली बार सबको शिक्षा, स्वास्थ्य और मनचाहा रोजगार नसीब हुआ है। दूसरी तरफ भारत में भारतीय मॉडल पर न तो कोई स्कूल खड़ा है, न कालेज, न कोई फैक्ट्री, न कोई विकसित और आधुनिक तकनीक, न कोई राजनीतिक व्यवस्था है।

सबसे बड़ी चीज यह है कि विज्ञान, समाजशास्त्र, तकनीक, दवाएं, लोकतांत्रिक, समाजवादी, साम्यवादी शासन व्यवस्था इत्यादि सब कुछ विश्व के उन नास्तिकों ने ही विकसित किया है, जिन्हें हमारे देश के पाखंडी व शातिर बाबा लोग रात दिन गाली देते रहते हैं। हमने विज्ञान को इतना महत्व क्यों नहीं दिया? इसका जवाब ये है कि बचपन से ही असर डालनेवाले हमारे मन पर आस्तिक संस्कार हैं। स्कूल हो या घर हो, हर तरफ दैवीय शक्ति को बचपन से ही हमारे कच्चे मन में बिठा दी जाती है। ऐसे संस्कारों में हम पलते हैं और बड़े होते हैं तथा हमारे अंतर्मन में यह बैठा दिया जाता है कि इस दुनिया में हर जगह भगवान का अस्तित्व है। हमारे मन में काल्पनिक भगवान को इतने गहरे में बिठा दिया जाता है कि उसे नकारने के लिए हमारा मन कभी भी तैयार ही नहीं हो पाता। इसलिए अपने उन लोगों के सामने कितना भी माथा पीटें, तो भी वे यही कहेंगे कि ‘कुछ तो है, जो इस सृष्टि और दुनिया को चला रही है।’

 सन् 1917 से जब से अत्याचारी रूस के राजा, जिसे जार कहते थे, के हाथ से उसकी सत्ता और शासन छीनकर आम जनता, मजदूरों, किसानों के मसीहा ब्लादीमिर ईल्यीच उल्यानोव लेनिन के नेतृत्व में विश्वप्रसिद्ध अक्टूबर की सोवियत क्रांति के सफल होने के बाद यूनियन ऑफ सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक मतलब यूएसएसआर या संयुक्त रूस बना, उसके बाद से ही उस जनसरोकारी राज्य ने अपने बच्चों को ये ही सिखाया की ना ही आत्मा होती है और ना ही परमात्मा होता है, पूरे 25 वर्ष लगे ये बात समझाने में तब जाकर उनकी नई पीढ़ी इस बात को समझ पाई और आज रूस नास्तिक देश है और साथ में अत्यंत विकसित देश भी है।

आज यदि भारत के लोगों को कोई आत्मा, परमात्मा, चमत्कार, भूत, प्रेत आदि के अस्तित्व के बारे में कोई कह रहा हो, तो जल्दी से उनके दिमाग में उतरने लगता है, लेकिन इसके विपरीत कोई सत्य बात कुछ कह रहा है, तो उल्टा उसे पागल करार कर दिया जाता है। इस देश मतलब भारत ने ध्यान, समाधि, आत्मा और मोक्ष पर सबसे ज्यादा साहित्य रचा है और अपना चिंतन-मनन किया है। दुनिया में सबसे ज्यादा गुरु शिष्य, बाबा, योगी, सन्यासी, भक्त और भगवान इसी देश ने पैदा किये हैं। अगर ये सारे लोग पांच प्रतिशत भी सफल रहते तो आज भारत सबसे अमीर, वैज्ञानिक, लोकतांत्रिक और समतामूलक समाज का धनी देश होता, क्योंकि ध्यान के जो फायदे गिनाये जाते हैं उसके अनुसार आदमी सृजनात्मक करुणावान तटस्थ और सदाचारी बन जाता है। अब भारतीय समाज और इसके निराशाजनक इतिहास व वर्तमान को गौर से देखिये। इसकी गरीबी, आपसी भेदभाव, छुआछूत, अन्धविश्वास, पाखण्ड, भाग्यवाद और गन्दगी देखकर आपको लगता है पिछले तीन हज़ार सालों में इसके अध्यात्म ने इसे कुछ भी क्रियेटिव करने दिया है? पिछले बाइस सौ साल से ये देश किसी न किसी अर्थ में किसी न किसी बाहरी कौम का गुलाम रहा है।

मुट्ठी भर आक्रमणकारियों ने करोड़ों की आबादी वाले इस देश को कैसे गुलाम बनाया, ये भी एक चमत्कार ही है। ऐसे नपुंसकता और कायरता के हज़ारों अध्याय इस देश में हैं। इसीलिये इस देश ने अपना वास्तविक इतिहास को कभी लिखा ही नहीं, बल्कि वह लिखा जिससे इससे मूर्खतापूर्ण और कायरतापूर्ण करतूतों के सबूत मिटते रहें। गौरवशाली इतिहास की कल्पनाओं को गढ़कर गर्व करते हैं, परन्तु यह कहने को एक पूरा उपमहाद्वीप को घेरे यह बड़ा सा देश हमेशा ही अपने से बहुत ही छोटे-छोटे कबीलों के सरदारों, आक्रमणकारियों, लुटेरों यथा तुर्की के एक गुमनाम छोटे से कबीले गजनी के मुहम्मद गजनवी, उज्बेकिस्तान के एक छोटे से कबीले तिमूरिड का तैमूरलंग, उज्बेकिस्तान के ही आँदिजान कबीले का बाबर, ईरान के एक नन्हें से कबीले का नादिरशाह, अफगानिस्तान के हेरात कबीले का अहमदशाह अब्दाली और अफगानिस्तान के ही खिलजी कबीले के अल्लाउद्दीन खिलजी जैसे लुटेरों द्वारा भी हमेशा  इसीलिए लुटता-पिटता रहा।

ये सब देखकर अब दोबारा सोचिये कि भारत के परलोकवादी अध्यात्म, आत्मा, परमात्मा और ध्यान ने इस देश के लोगों को क्या दिया है? इन्होंने दुनिया से बिल्कुल अलग किस्म के आविष्कार किये जैसे ऊपरवाला ख़ुश कैसे होता है? ऊपरवाला नाराज़ क्यों होता है? स्वर्ग में कैसे जायें? नरक में जाने से कैसे बचें? स्वर्ग में क्या-क्या मिलेगा? नरक में क्या-क्या सज़ा है? हलाल क्या है, हराम क्या है? बुरे ग्रहों को कैसे टालें? मुरादें कैसे पूरी होती हैं? पाप कैसे धुलते हैं? पित्तरों को तृप्त कैसे करें? आदि-आदि बहुत से अंधविश्वास और पाखंड से भरे कथित धार्मिक सिद्धांत इस देश की तमाम धार्मिक पोथियों में भरे पड़े हैं।

आज भी भारत में 90 प्रतिशत टी.वी सीरियलों में अंधविश्वास, काल्पनिक बातों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं दिखाया जाता। हमें बचपन से कैसे तैयार किया जाता है, यह जानना बेहद जरूरी है। बचपन में माँ कहती है उधर मत जाना भूत आ जाएगा, बचपन में माँ बताती है भगवान के सामने हाथ जोड़कर बोल ‘भगवान मुझे परीक्षा में पास करवा दो’। टीवी पर कार्टून में चमत्कार, जादू जैसी अवैज्ञानिक बातें दिखा-दिखाकर भारतीय बच्चों का मनोरंजन किया जाता है, लेकिन चमत्कार और जादू की बच्चों के बालमन के अंतर्मन में गहराई तक असर होता है और बड़े होने के बाद भी इंसान के मन में चमत्कार और जादू के लिए आकर्षण कायम रहता है, स्कूल में जो विज्ञान सिखाया जाता है उसका संबंध रोजमर्रा की जिंदगी से न जोड़ना।

इसलिए बच्चों के बालमन पर यह जबर्दस्त अचेतन प्रभाव पड़ता है कि समाज के सभी 99% लोग इसी राह पर चल रहे है तो जरूर वे सही ही होंगे, वह सोचता है हमें भी उनका अनुकरण करना ही चाहिये उसका चमत्कारों पर यकीन पक्का हो जाता है। हमने ये किया इसीलिये ऐसा हुआ और हमने ऐसा नहीं किया इसलिए हमारे साथ वैसा कुछ हुआ है। ऐसी कुछ योगायोग की घटनाओं को इंसान नियम समझकर जीवन भर उसका बोझ उठाता रहता है। इस तत्व के अनुसार समाज में मीडिया, माउथ पब्लिसिटी, सामाजिक उत्सव इत्यादि के माध्यम से जो इंसान को बार-बार दिखाया जाता है, सुनाया जाता है उस पर इंसान आसानी से यकीन कर लेता है। डर और लोभ ये दो नैसर्गिक भावनाए हर इंसान के भीतर बहुत बड़ी प्रभावशाली कारक होतीं हैं, लेकिन जिस दिन ये भावनाएं इंसान के जीवन पर प्रभुत्व प्रस्थापित करतीं हैं तब वह व्यक्ति मानसिक गुलामीगिरी मे फँसता चला जाता है और अंत में सबसे महत्वपूर्ण बात चमत्कार होता है ऐसा सौ बार आग्रह से बताने वाले सभी धर्मों के ग्रंथ इस बात की वजह हैं। इसलिए धर्मग्रंथों में बतायी गयी अतिरंजित बातें कैसे गलत हैं, ये वक्त रहते ही अपने बच्चों को समझाने की कोशिश करें।

जो इंसान भूत प्रेत के कारण रात के अंधेरे में अकेले सोने, चलने से डरता है, समझ लीजिए वह सबसे ज्यादा अंधविश्वासी है। उसका मन मानता है कि भूत है और यह धारणा यह साबित करती है कि भूत पहले है। भूत है तो ईश्वर भी है। उसका अंधविश्वासी होना एक प्रकार के डर से है। इसमें ऐसे धार्मिकों की कमी नहीं है, जो विज्ञान की हर चीज़ को इस्तेमाल करते हुए भी उसी विज्ञान के विरुद्ध भी बोलते रहे हैं। विज्ञान की भावनाएं आहत नहीं होतीं, क्योंकि उसका प्रचार -प्रसार नहीं करना पड़ता। सत्य का कैसा प्रचार वह तो स्वतः ही स्वीकार हो जायेगा, लेकिन झूठ को अपने प्रचार की दिन-रात और लगातार आवश्यकता होती है। जिन अविष्कारों ने हमारे जीवन और दुनिया को बेहतर बनाया है, वे सब अविष्कार उन्होंने किये, जिन्होंने धार्मिक कर्मकांडों में अपना समय बिल्कुल बर्बाद नहीं किया।

आज कोई भी धार्मिक व्यक्ति विज्ञान द्वारा अविष्कृत चीज़ों के बिना जीने की कल्पना भी नहीं कर सकता, लेकिन वही कथित धार्मिक व्यक्ति वैज्ञानिकों का एहसान नहीं मानते, ये उस काल्पनिक शक्ति का एहसान मानते हैं, जो मानव के स्वाभाविक विकास में ही बाधा डाली है, जिसने मानवता को टुकड़ों-टुकडों में बांटा है। वैज्ञानिक अक्सर नास्तिक होते हैं। लेकिन कथित धार्मिकों का प्रायः यह कहना होता है कि, ‘वैज्ञानिकों को अक्ल तो हमारे ईश्वर या खुदाताला या गॉड ने ही दिया है।’, लेकिन ऐसे मूर्ख इतना नहीं सोचते कि उनके ईश्वर या खुदाताला या गॉड ने सारी अक्ल नास्तिकों को क्यों दे दी? धार्मिकों को इतना मन्दबुद्धि क्यों बनाया? पिछले 150 सालों में, जिन अविष्कारों ने पूरी दुनिया को ही आमूलचूल बदल के रख दी है, वे ज़्यादेतर नास्तिक वैज्ञानिकों ने किये या उन आस्तिकों ने किये जो पूजा-पाठ, इबादत ही नहीं करते थे। अंधविश्वास और कट्टरता से भरे किसी भी धर्म वालों ने ऐसा कोई अविष्कार नहीं किया, जिससे दुनिया का कुछ भला होता है। हाँ, यह जरूर है कि ये अपनी किताबों में विज्ञान जरूर खोजते रहते हैं, लेकिन अगली खोज क्या होगी? यह कभी नहीं बताएंगे जब तक अगली खोज सफल न हो जाये उसके बाद कहेंगे यह तो हमारी किताब में पहले से ही मौजूद थी।

मानव को उसके विकसित दिमाग़ ने ही उसे मनुष्य बनाया है, नहीं तो वह चिंपैंजी की नस्ल का एक जीव ही है, जो इन्सान अपना दिमाग़ प्रयोग नहीं करते, वे इन्सान जैसे दिखने वाले जीव होते हैं, वे पूर्ण मनुष्य होते ही नहीं हैं। अपने दिमाग़ का बेहतर इस्तेमाल कीजिये, आपके अंदर जो अंधविश्वासों का कचरा भरा पड़ा है, उन अंधविश्वासी मान्यताओं, पाखंडों, कूपमंडूकता, जाहिलताभरी बातों को अपने दिल और दिमाग से कूड़े की तरह कूड़ेदान में फेंक दीजिए, आपके मस्तिष्क में बचपन से मंदिरों, मस्जिदों और चर्चों के धार्मिक ठेकेदारों द्वारा अंधविश्वास रूपी भरे गए पूर्वाग्रहों को पूर्णतः जला दीजिये, अंधेरा मिट जायेगा। आपके अंदर एक ज्ञान की एक दिव्य रौशनी जगमगा जायेगी।

आस्था से नहीं विज्ञान से देश आगे बढ़ेगा अध्यात्म, आस्था को अलग करके यदि किसी भी देश में केवल शिक्षक वर्ग जागरूक और वैज्ञानिक हो जायें, खासकर विज्ञान के शिक्षक तो यकीन मानिए उस देश का मुकाबला पूरी दुनिया में कोई भी देश नहीं कर पाएगा, क्योंकि देश की उर्जावान नई पीढ़ियां शिक्षकों, प्रोफेसरों से ही सीखती हैं और एक शिक्षक का तथ्यात्मक होने की बजाय भावनात्मक होना या विचारधाओं के एवज में झूठ परोसना कई पीढ़ियों को अज्ञानी ही नहीं मानसिक अपंग भी बना सकती है, इसलिए इस देश के प्राइमरी स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय स्तर के शिक्षक वर्ग को चैतन्य,जागरूक, अंधविश्वास व पाखंड भंजक बनना ही होगा, तभी यह देश दुनिया के अतिविकसित देश की कतार में सम्मिलित हो सकने योग्य देशों की श्रेणी में सम्मिलित हो सकने के काबिल होगा, किसी भी राष्ट्र के लिए सबसे जरूरी तत्व शिक्षा, बेरोजगारी, भूखमरी, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, कुपोषण, स्वास्थ्य आदि मूलभूत समस्याओं को सुलझाए बगैर केवल कथित विश्वगुरु और अध्यात्मिकगुरू जैसे थोथे, भ्रामक, झूठे और काल्पनिक नारे लगाने से इस देश का कुछ भी भला नहीं होनेवाला, ये भ्रामक और छद्म नारे भारत की अधिकांशतः अशिक्षित व धर्मभीरु, आम गरीब जनता को बेवकूफ बनाने के लिए वर्तमान समय के सत्ता के भेड़ की खाल में छिपे हुए भेड़ियों रूपी, फॉसिस्टों, तानाशाहों और अमानवीय व असहिष्णु शासकों की केवल एक ‘जुमलेबाजी मात्र’ है।

(निर्मल कुमार शर्मा, पर्यावरण संरक्षक व स्वत्रंत लेखक हैं)

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