दूरदर्शन पत्रकार सुधांशु ने तीस साल बाद जीती कानूनी लड़ाई, सुप्रीम कोर्ट ने मंत्रालय पर लगाया एक लाख जुर्माना

(पत्रकारिता पेशे  के बारे में कई बार  कहा जाता है “यहां तो चराग तले अंधेरा है”। यानि जो  पत्रकार दिन रात दूसरों के हक के लिए लड़ते हैं वे खुद ही अन्याय के शिकार होते हैं, उन्हें उनका हक नहीं मिलता। कई बार उन्हें अपने हक के लिए अदालत का दरवाजा भी  खटखटाना पड़ता है। बिहार निवासी   दूरदर्शन पत्रकार  सुधांशु रंजन समेत 51 पत्रकारों ने वर्षों अपने हक के लिए  यह लड़ाई लड़ी लेकिन रंजन अंतिम समय तक लड़ते रहे और तीस साल के बाद उनकी  अंतत: जीत हुई। उन्होंने सरकार को लोहे के चने चबवा दिए। अदालत ने सरकार को अवमानना के मामले में एक लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया।

इस घटना से पता चलता है कि भारतीय नौकरशाही किस तरह  नशे में चूर रहती है और उसे उच्चत्तम न्यायालय के फैसले  की भी परवाह नहीं होती। सरकार अपने ही कर्मचारियों का हक छीनने पर आमादा रहती है और कानूनी लड़ाई में लाखों करोड़ों रुपये खर्च होते हैं। यह जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा है जो मुकदमे बाजी में बर्बाद होता है। लेकिन  सरकार को फर्क नहीं पड़ता। उधर पत्रकार लम्बी कानूनी लड़ाई में अपना जेब काटकर पैसा खर्च करता है। कई पत्रकार तो अपनी कानूनी लड़ाई भी नहीं लड़ पाते लेकिन सुधांशु  ने एक मिशाल कायम की है। वरिष्ठ पत्रकार एवं कवि विमल कुमार से जानिए यह पूरा मामला क्या है—संपादक)

सुप्रीम कोर्ट ने दूरदर्शन के जाने माने पत्रकार सुधांशु रंजन के पदोन्नति सम्बन्धी  मुकदमे में अदालत की अवमानना के कारण   सूचना प्रसारण मंत्रालय के दोषी अधिकारी के खिलाफ एक लाख रुपये का जुर्माना  लगाया है क्योंकि उसके फैसले को सरकार लागू नहीं कर रही थी।

न्यायमूर्ति न्यायधीश धनंजय चंद्रचूड़  और न्यायमूर्ति एम आर शाह  की पीठ ने 16 अगस्त को सुधांशु रंजन बनाम सूचना प्रसारण मंत्रालय के सचिव अमित खरे के मामले में यह जुर्माना लगाया है और रंजन को  प्रोमोशन  के बाद बकाया राशि देने का निर्देश दिया है।  इस समय रंजन कोलकाता में पोस्टेड  हैं और तीन राज्यों के प्रभारी हैं।

करीब तीन दशक तक चली  क़ानूनी लड़ाई के बाद जब मामला देश की शीर्ष अदालत के पास गया तब  उच्चत्तम न्यायालय ने  2018 में सुधांशु रंजन  और अन्य पत्रकारों के मामले में उनके पक्ष में फैसला दिया था लेकिन जब अदालत के फैसले के बाद भी  सरकार ने उसे लागू नहीं किया तब रंजन ने अदलत की अवमानना होने पर  याचिका दायर की।

गौरतलब है कि 1988 में 51 टीवी पत्रकार दूरदर्शन में सीनियर क्लास और क्लास एक स्केल श्रेणी में नियुक्त हुए। उनकी नियुक्ति लिखित परीक्षा और मौखिक परीक्षा के आधार पर हुई लेकिन जब 1990 में भारतीय सूचना सेवा शुरू हुई  तो उन्हें उसमें शामिल नहीं किया गया जबकि उनकी नियुक्ति पीसी जोशी समिति की सिफारिशों पर हुई थी ताकि दूदर्शन को विश्व स्तरीय बनाया जाए।

इनमें कुछ पत्रकारों  ने अदालत का दरवाजा खटखटाया और सरकार ने उनके प्रमोशन के लिए एक अलग चैनल बनाने का वादा  किया। लेकिन सरकार ने उसे नहीं निभाया तो कुछ पत्रकार  कैट में (हैदराबाद) चले गए।

कैट ने 2000 में इन पत्रकारों को भारतीय सूचना सेवा में शामिल करने का  सरकार को निर्देश दिया लेकिन सरकार  ने माना नहीं बल्कि वह इसके खिलाफ  आंध्रप्रदेश उच्च न्यायालय में  चली गयी। लेकिन  अदालत ने एक बार फिर  पत्रकारों के पक्ष में फैसला सुनाया। केंद्र सरकार  ने फिर अड़ंगा लगाया और  उसने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट   में   विशेष अनुमति याचिका दायर की। 26 सितम्बर, 2018 को सुप्रीम  कोर्ट  ने आंध्र प्रदेश उच्च न्यायलय  और कैट के फैसले को बरकरार रखते हुए पत्रकारों के  हक  में निर्णय सुनाया । लेकिन सरकार ने फैसले को लागू नहीं किया और उसने मामले की समीक्षा के लिए विधि मंत्रालय को भेज दिया। विधि मंत्रालय ने सरकार के समीक्षा प्रस्ताव को दो बार ठुकरा दिया। असिस्टेन्ट सॉलिसिटर जनरल पिंकी आनंद ने सरकार को सलाह दी कि समीक्षा का यह मामला नहीं लेकिन नौकरशाही ने इसे प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया।  तब सुधांशु रंजन ने अदालत की अवमानना का मामला उच्चतम न्यायलय में दायर किया कि 2018 में उसने जो फैसला सुनाया वह तो लागू नहीं हुआ।

सरकार ने अदालत में कहा कि 3 माह में  वह फैसला करेगी। 29 नवम्बर, 2019 को अदालत ने सरकार को साफ साफ आदेश दिया कि 3 माह में  इसे लागू करें।  27 फरवरी,  2020 को यह अवधि बीत गयी लेकिन   प्रमोशन नहीं मिला। मार्च 2020  में सरकार ने जूनियर प्रशासनिक अधिकारी  को प्रमोशन दिया और इसे एक अप्रैल 2007 से लागू किया। लेकिन सीनियर प्रशासनिक अधिकारी के रूप में प्रमोशन के आदेश जारी नहीं हुए। 

रंजन ने 10 जुलाई 2021 को फिर सुप्रीम कोर्ट   का दरवाजा खटखटाया तो   मंत्रालय ने 26 जुलाई को सीनियर प्रशानिक अधिकारी स्तर के प्रमोशन के आदेश निकाले लेकिन 12 अप्रैल 2013 से। अंत में 16 अगस्त को शीर्ष अदालत ने रंजन के पक्ष में फैसला सुनाया और 30 साल के बाद न्याय मिला।

 रंजन जीवट के आदमी हैं। दिल्ली विश्विद्यालय से अंग्रेजी साहित्य के छात्र रहे अखबारों में नियमित लेख भी लिखते रहते हैं। उनकी इस लड़ाई ने पत्रकारों का हौसला बढ़ाया है।

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