उत्तराखंड: समान नागरिक संहिता से राजनीतिक संकट का सामना

विधानसभा समेत विभिन्न विभागों में अपने-अपनों को नौकरियों की रेवड़ियां बांटने के खिलाफ उत्तराखण्ड में मचे बवंडर को शांत करने के लिये प्रदेश सरकार ने पहले भूकानून समिति की रिपोर्ट खुलवा कर फायर फाइटिंग का प्रयास किया और जब वह हथियार बेअसर हो गया तो अब समान नागरिक संहिता का अपना बचा खुचा हथकण्डा चला दिया। समान नागरिक संहिता एक कानूनी विषय है जो कि सीधे संविधान से जुड़ा हुआ है और उस पर सही राय केवल संविधान विशेषज्ञ या फिर कानूनी जानकार ही दे सकते हैं। लेकिन धामी सरकार द्वारा गठित जस्टिस रंजना देसाई की अध्यक्षता वाली ड्राफ्टिंग कमेटी बाकायदा पोर्टल शुरू कर प्रदेश के एक करोड़ लोगों से सुझाव मांग रही है।

धामी सरकार भी जानती ही होगी कि समवर्ती सूची में राज्य विधानसभा भले ही कोई कानून बना डाले लेकिन वह कानून तब तक मान्य या लागू नहीं हो सकता जब तक कि संसद द्वारा बनाये गये वैसे ही कानून मौजूद हों। जाहिर है कि यह सारी कसरत प्रदेशवासियों को समान नागरिक संहिता देने के लिये नहीं बल्कि साम्प्रदायिक आधार पर प्रदेशवासियों का ध्रुवीकरण करने के लिये की जा रही है। घोटालों में डूबते जा रहे उत्तराखण्ड को लोकायुक्त की आवश्यकता है लेकिन उसे विधानसभा में छिपा कर नागरिक संहिता का राग अलापा जा रहा है। जबकि उत्तराखण्ड में लगभग 83 प्रतिशत हिन्दू हैं और उनके लिये 1955 और 56 में ही नागरिक संहिताएं बन गयी थीं।

जब युवाओं को नौकरियों का वायदा कर उनको सुनहरे सपने दिखाने वाले स्वयं नौकरियों के अवसरों को ऊपर ही ऊपर लपक कर अपने-अपनों में रेवड़ियों की तरह बांट लें। माफिया तंत्र राजनीतिक आकाओं के सहारे नौकरियों को ऊंचे दामों में बेचने लगें और सत्ता में बैठे लोग बिहार तक के अपने रिश्तेदारों को नौकरियां बांटने लगें तो हताश-निराश युवाओं की कुंठाओं का विस्फोट होना स्वाभाविक ही है। ऊपर से अग्निवीर की भर्ती में हुयी गड़बड़ी ने भी उत्तराखण्ड के लाखों युवाओं के सपनों को चूर-चूर किया है।

अग्निवीर योजना ने फौज की स्थाई नौकरी की संभावनाओं पर तो पानी फेरा ही साथ ही भर्ती होने के लिये कद की लम्बाई 163 से बढ़ा कर 170 इंच कर दिये जाने से फौज की अस्थाई नौकरी को भी पहाड़ी युवाओं की पहुंच से बहुत दूर कर दिया। इन हालातों के कारण उत्तराखण्ड के युवा सड़कों पर हैं। विपक्ष तो सदैव ही ऐसे मौकों की तलाश में रहता ही है। लेकिन सत्ताधारी भाजपा में भी सब कुछ ठीक ठाक नहीं है। नौकरियों में हुये भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद, नेता-नौकरशाह और माफिया में गठजोड़ का कच्चा चिट्ठा त्रिवेन्द्र रावत जैसे बड़े नेता दिल्ली दरबार के सामने खोल रहे हैं। इन परिस्थितियों में कॉमन सिविल कोड का राग अलापना जनता का ध्यान भटकाना ही माना जा रहा है।

संविधान का अनुच्छेद 254 कहता है कि, ’’यदि किसी राज्य के विधान-मंडल द्वारा बनाई गई विधि का कोई उपबंध संसद द्वारा बनाई गई विधि के, जिसे अधिनियमित करने के लिए संसद सक्षम है, किसी उपबंध के या समवर्ती सूची में प्रगणित किसी विषय के संबंध में विद्यमान विधि के किसी उपबंध के विरुद्ध है तो खंड (2) के उपबंधों के अधीन रहते हुए, यथास्थिति, संसद द्वारा बनाई गई विधि, चाहे वह ऐसे राज्य के विधान-मंडल द्वारा बनाई गई विधि से पहले या उसके बाद में पारित की गई हो, या विद्यमान विधि, अभिभावी होगी और उस राज्य के विधान-मंडल द्वारा बनाई गई विधि उस विरोध की मात्रा तक शून्य होगी।’’ इस अनुच्छेद की उपधारा 2 में समवर्ती सूची के विषय में राष्ट्रपति से अनुमति लेने का प्रावधान अवश्य है मगर उस स्थिति में भी राज्य का कानून केन्द्रीय कानून के असंगत नहीं होना चाहिये।

नागरिक संहिताओं में आनन्दा विवाह अधिनियम 1917, मुस्लिम पर्सनल लॉ 1937, विशेष विवाह अधिनियम 1954, हिन्दू विवाह अधिनियम 1955, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956, हिन्दू अल्पवयस्क तथा अभिभावक अधिनियम (1956) और पारसी विवाह एवं तलाक अधिनियम 1936 आदि हैं। हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम जैन और बौद्धों पर भी लागू होता है। ये सारे अधिनियम केन्द्रीय कानून हैं जिन्हें संसद ही बदल या समाप्त कर सकती है। इन सभी कानूनों के होते हुये राज्य विधानसभा द्वारा पारित कानून शून्य हो जाता है। इसलिये अगर समान नागरिक संहिता लागू करनी ही है तो इसकी शुरुआत संसद द्वारा मौजूदा कानूनों में संशोधन या उन्हें समाप्त करने से हो सकती है। इसका प्रयास मोदी सरकार जस्टिस चौहान की अध्यक्षता वाले 21वें विधि आयोग के माध्यम से कर चुकी है। अगस्त 2018 में, विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए कहा था कि देश में एक समान नागरिक संहिता आज की स्थिति में न तो आवश्यक है और न ही वांछनीय है। इसने यह भी कहा था कि ‘‘धर्मनिरपेक्षता बहुलता के विपरीत नहीं हो सकती।’’

देखा जाय तो समान नागरिक संहिता के मार्ग में दो मौलिक अधिकारों का टकराव आड़े आता रहा है। इनमें संविधान का अनुच्छेद 14 कहता है कि, ‘‘राज्य, भारत के राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।’’ इसी मौलिक अधिकार के अधार पर संविधान का अनुच्छेद 44 कहता है कि ‘‘राज्य अपने नागरिकों के लिए भारत के पूरे क्षेत्र में एक समान नागरिक संहिता (यूसीसी) प्रदान करने का प्रयास करेगा।’’ राज्य शब्द की व्याख्या अनुच्छेद 12 में की गयी है जिसका अभिप्राय भारत और राज्य क्षेत्र के शासन से है न कि केवल किसी राज्य सरकार से।

दूसरी तरफ अनुच्छेद 25 में कहा गया है कि ‘‘सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता का और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान हक होगा।’’ वैयक्तिक कानून इस मौलिक अधिकार से सीधे-सीधे जुड़ा हुआ है। अगर सभी धर्मों के लगभग एक दर्जन वैयक्तिक कानूनों को समाप्त कर एक समान कानून बनता है तो मामला सीधे अदालत में जायेगा और केशवानन्द भारती बनाम केरल सरकार मामले में सर्वोच्च न्यायालय की 13 सदस्यीय संविधान पीठ 1973 में कह चुकी है कि संसद के पास कानून बनाने के व्यापक अधिकार अवश्य हैं मगर असीमित अधिकार नहीं हैं। संविधान पीठ उस समय स्पष्ट कर चुकी थी कि संसद संविधान में अनुच्छेद 368 के तहत संशोधन अवश्य कर सकती है मगर संविधान की मूल भावना से छेड़छाड़ नहीं कर सकती। इसलिये उत्तराखण्ड में समान नागरिक संहिता बनाने का प्रयास चाहे किसी भी दिशा से आगे बढ़े मगर मंजिल तक पहुंचता नजर नहीं आता है।

अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण, धारा 370 को हटाना और देश में समान नागरिक संहिता लागू कराना न केवल भारतीय जनता पार्टी का अपितु इसके पैतृक संगठन जनसंघ के मुख्य राजनीतिक मुद्दे रहे हैं। अगर सारे देश के लिये एक समान नागरिक संहिता की व्यवस्था करना इतना आसान होता तो वर्ष 2014 से केन्द्र में सत्ताधारी मोदी सरकार कभी की यह व्यवस्था लागू कर देती। धारा 370 को हटाने और सीएए जैसे कानूनों पर तो भारी विवाद रहा है। जबकि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट भी कम से कम चार बार सरकार का ध्यान अनुच्छेद 44 की ओर आकर्षित कर चुका है। दरअसल हिन्दुओं के साथ ही जैन, बौद्ध और सिखों के लिये नागरिक संहिता 1955 और 1956 में बन चुकी हैं। उनमें संशोधन की कम ही गुंजाइश है। जबकि मुसलमानों, पारसियों और इसाइयों के लिये भी कानूनों को हिन्दुओं के कानूनों के समान बनाया जाना है। कानूनों में यही असमानता धार्मिक ईर्ष्या का कारण बनी हुई है और राजनीतिक उद्देश्य से बहुमत वाले समाज में उस समान नागरिक संहिता से राजनीतिक संकट का सामना

-जयसिंह रावत

विधानसभा समेत विभिन्न विभागों में अपने-अपनों को नौकरियों की रेवड़ियां बांटने के खिलाफ उत्तराखण्ड में मचे बंबडर को शांत करने के लिये प्रदेश सरकार ने पहले भूकानून समिति की रिपोर्ट खुलवा कर फायर फाइटिंग का प्रयास किया और जब वह हथियार बेअसर हो गया तो अब समान नागरिक संहिता का अपना बचा खुचा हथकण्डा चला दिया। समान नागरिक संहिता एक कानूनी विषय है जो कि सीधे संविधान से जुड़ा हुआ है और उस पर सही राय केवल संविधान विशेषज्ञ या फिर कानूनी जानकार ही दे सकते हैं। लेकिन धामी सरकार द्वारा गठित जस्टिस रंजना देसाई की अध्यक्षता वाली ड्राफ्टिंग कमेटी बाकायदा पोर्टल शुरू कर प्रदेश के एक करोड़ लोगों से सुझाव मांग रही है।

धामी सरकार भी जानती ही होगी कि समवर्ती सूची में राज्य विधानसभा भले ही कोई कानून बना डाले लेकिन वह कानून तब तक मान्य या लागू नहीं हो सकता जब तक कि संसद द्वारा बनाये गये वैसे ही कानून मौजूद हों। जाहिर है कि यह सारी कसरत प्रदेशवासियों को समान नागरिक संहिता देने के लिये नहीं बल्कि साम्प्रदायिक आधार पर प्रदेशवासियों का धु्रवीकरण के लिये की जा रही है। घोटालों में डूबते जा रहे उत्तराखण्ड को लोकायुक्त की आवश्यकता है लेकिन उसे विधानसभा में छिपा कर नागरिक संहिता का राग अलापा जा रहा है। जबकि उत्तराखण्ड में लगभग 83 प्रतिशत हिन्दू हैं और उनके लिये 1955 और 56 में ही नागरिक संहिताएं बन गयीं थी।

जब युवाओं को नौकरियों का वायदा कर उनको सुनहरे सपने दिखाने वाले स्वयं नौकरियों के अवसरों को ऊपर ही ऊपर लपक कर अपने-अपनों में रेवड़ियों की तरह बांट लें। माफिया तंत्र राजनीतिक आकाओं के सहारे नौकरियों को ऊंचे दामों में बिकाने लगें और सत्ता में बैठे लोग बिहार तक के अपने रिश्तेदारों को नौकरियां बांटने लगें तो हताश-निराश युवाओं की कुंठाओं का विस्फोट होना स्वाभाविक ही है। ऊपर से अग्निवीर की भर्ती में हुयी गड़बड़ी ने भी उत्तराखण्ड के लाखों युवाओं के सपनों को चूर-चूर किया है।

अग्निवीर योजना ने फौज की स्थाई नौकरी की संभावनाओं पर तो पानी फेरा ही साथ ही भर्ती होने के लिये कद की लम्बाई 163 से बड़ा कर 170 इंच कर दिये जाने से फौज की अस्थाई नौकरी को भी पहाड़ी युवाओं की पहुंच से बहुत दूर कर यिा। इन हालातों के कारण उत्तराखण्ड के युवा सड़कों पर हैं। विपक्ष तो सदैव ही ऐसे मौकों की तलाश में रहता ही है। लेकिन सत्ताधारी भाजपा में भी सब कुछ ठीकठाक नहीं है। नौकरियों में हुये भ्रटाचार, भाई भतीजाबाद, नेता-नौकरशाह और माफिया में गठजोड का कच्चा चिट्ठा त्रिवेन्द्र रावत जैसे बड़े नेता दिल्ली दरबार के सामने खोल रहे हैं। इन परिस्थितयों में कॉमन सिविल कोड का राग अलापना जनता का ध्यान भटकाना ही माना जा रहा है।

संविधान का अनुच्छेद 254 कहता है कि, ’’यदि किसी राज्य के विधान-मंडल द्वारा बनाई गई विधि का कोई उपबंध संसद द्वारा बनाई गई विधि के, जिसे अधिनियमित करने के लिए संसद सक्षम है, किसी उपबंध के या समवर्ती सूची में प्रगणित किसी विषय के संबंध में विद्यमान विधि के किसी उपबंध के विरुद्ध है तो खंड (2) के उपबंधों के अधीन रहते हुए, यथास्थिति, संसद द्वारा बनाई गई विधि, चाहे वह ऐसे राज्य के विधान-मंडल द्वारा बनाई गई विधि से पहले या उसके बाद में पारित की गई हो, या विद्यमान विधि, अभिभावी होगी और उस राज्य के विधान-मंडल द्वारा बनाई गई विधि उस विरोध की मात्रा तक शून्य होगी।’’ इस अनुच्छेद की उपधारा 2 में समवर्ती सूची के विषय में राष्ट्रपति से अनुमति लेने का प्रावधान अवश्य है मगर उस स्थिति में भी राज्य का कानून केन्द्रीय कानून के असंगत नहीं होना चाहिये।

नागरिक संहिताओं में आनन्दा विवाह अधिनियम 1917, मुस्लिम पर्सनल लॉ 1937, विशेष विवाह अधिनियम 1954, हिन्दू विवाह अधिनियम 1955, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956, हिन्दू अल्पवयस्क तथा अभिभावक अधिनियम (1956) और पारसी विवाह एवं तलाक अधिनियम 1936 आदि हैं। हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम जैन और बौद्धों पर भी लागू होता है। ये सारे अधिनियम केन्द्रीय कानून हैं जिन्हें संसद ही बदल या समाप्त कर सकती है। इन सभी कानूनों के होते हुये राज्य विधानसभा द्वारा पारित कानून शून्य हो जाता है।

इसलिये अगर समान नागरिक संहिता लागू करनी ही है तो इसकी शुरुआत संसद द्वारा मौजूदा कानूनों में संशोधन या उन्हें समाप्त करने से हो सकती है। इसका प्रयास मोदी सरकार जस्टिस चैहान की अध्यक्षता वाले 21वें विधि आयोग के माध्यम से कर चुकी है। अगस्त 2018 में, विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए कहा था कि देश में एक समान नागरिक संहिता आज की स्थिति में न तो आवश्यक है और न ही वांछनीय है। इसने यह भी कहा था कि ‘‘धर्मनिरपेक्षता बहुलता के विपरीत नहीं हो सकती।’’

देखा जाय तो समान नागरिक संहिता के मार्ग में दो मौलिक अधिकारों का टकराव आड़े आता रहा है। इनमें संविधान का अनुच्छेद 14 कहता है कि, ‘‘राज्य, भारत के राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के सामान संरक्षण से वंचित  नहीं करेगा।’’ इसी मौलिक अधिकार के अधार पर संविधान का अनुच्छेद 44 कहता है कि ‘‘ राज्य अपने नागरिकों के लिए भारत के पूरे क्षेत्र में एक समान नागरिक संहिता (यूसीसी) प्रदान करने का प्रयास करेगा।’’ राज्य शब्द की व्याख्या अनुच्छेद 12 में की गयी है जिसका अभिप्राय भारत और राज्य क्षेत्र के शासन से है न कि केवल किसी राज्य सरकार से।

दूसरी तरफ अनुच्छेद 25 में कहा गया है कि ‘‘सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता का और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान हक होगा।’’ वैयक्तिक कानून इस मौलिक अधिकार से सीधे-सीधे जुड़ा हुआ है। अगर सभी धर्मों के लगभग एक दर्जन वैयक्तिक कानूनों को समाप्त कर एक समान कानून बनता है तो मामला सीधे अदालत में जायेगा और केशवानन्द भारती बनाम केरल सरकार मामले में सर्वोंच्च न्यायालय की 13 सदस्यीय संविधान पीठ 1973 में कह चुकी है कि संसद के पास कानून बनाने के व्यापक अधिकार अवश्य हैं मगर असीमित अधिकार नहीं हैं। संविधान पीठ उस समय स्पष्ट कर चुकी थी कि संसद संविधान में अनुच्छेद 368 के तहत संशोधन अवश्य कर सकती है मगर संविधान की मूल भावना से छेड़छाड़ नहीं कर सकती। इसलिये उत्तराखण्ड में समान नागरिक संहिता बनाने का प्रयास चाहे किसी भी दिशा से आगे बढ़ मगर मंजिल तक पहुंचता नजर नहीं आता है।

अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण, धारा 370 को हटाना और देश में समान नागरिक संहिता लागू कराना न केवल भारतीय जनता पार्टी का अपितु इसके पैतृक संगठन जनसंघ के मुख्य राजनीतिक मुद्दे रहे हैं। अगर सारे देश के लिये एक समान नागरिक संहिता की व्यवस्था करना इतना आसान होता तो वर्ष 2014 से केन्द्र में सत्ताधारी मोदी सरकार कभी के यह व्यवस्था लागू कर देती। धारा 370 को हटाने और सीएए जैसे कानूनों पर तो भारी विवाद रहा है।

जबकि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट भी कम से कम चार बार सरकार का ध्यान अनुच्छेद 44 की ओर आकर्षित कर चुका है। दरअसल हिन्दुओं के साथ ही जैन, बौद्ध और सिखों के लिये नागरिक संहिता 1955 और 1956 में बन चुकी हैं। उनमें संशोधन की कम ही गुंजाइश है। जबकि मुसलमानों, पारसियों और इसाइयों के लिये भी कानूनों को हिन्दुओं के कानूनों के समान बनाया जाना है। कानूनों में यही असमानता धार्मिक ईर्ष्या का कारण बनी हुई है और राजनीतिक उद्देश्य से बहुमत वाले समाज में उस ईर्ष्या को जगाया जा रहा है ताकि लोग सभी समस्याओं को भूल कर अपने अंदर उस सौतेली डाह की आग को बुझने न दें।

(जयसिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल देहरादून में रहते हैं।)

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