इधर, राहुल गांधी की अगुवाई वाली भारत जोड़ो यात्रा का पंजाब सफर लगभग खत्म हुआ और दूसरी तरफ यात्रा की कामयाबी से उत्साहित राज्य कांग्रेस को एक बड़ा झटका लगा है। कैप्टन अमरिंदर सिंह और चरणजीत सिंह चन्नी की अगुवाई वाली कांग्रेस सरकारों में वित्त मंत्री रहे मनप्रीत सिंह बादल ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया है। वह दिग्गज अकाली नेता और पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के भतीजे हैं और उनकी सरकार में भी वित्त मंत्री रहे हैं। कमोबेश साफ छवि के मनप्रीत सिंह बादल का इस मानिंद पार्टी से किनारा करके भाजपा में जाना यकीनन राज्य कांग्रेस के लिए बेहद नागवार है। बेशक वह विधानसभा चुनाव में हारने के बाद लगभग निष्क्रिय हो गए थे और विदेश भ्रमण पर चले गए थे लेकिन मालवा में उन्हें कद्दावर कांग्रेसी नेता माना जाता था। मनप्रीत सिंह बादल विधायक तो बनते ही रहे हैं, उन्होंने रिश्ते में भाभी लगती हरसिमरत कौर बादल के खिलाफ बठिंडा से लोकसभा चुनाव भी लड़ा था और बेहद कम अंतर से हारे थे।
मनप्रीत सिंह बादल ने सियासत की शुरुआत प्रकाश सिंह बादल की सरपरस्ती में की थी और बड़े बादल की परंपरागत विधानसभा सीट गिद्दड़बाहा से पहला चुनाव लड़ा और रिकॉर्ड मतों से जीता था। वह उपचुनाव था। तब पंजाब में बेअंत सिंह की आंधी थी और पूरी सरकार के जोर लगाने के बावजूद मनप्रीत को बड़ी जीत हासिल हुई थी। उसके बाद में शिरोमणि अकाली दल के टिकट से तीन बार वहीं से चुनाव लड़े और जीते। जब विदेश से वापस आकर प्रकाश सिंह बादल के बेटे और मनप्रीत के कजिन सुखबीर सिंह बादल सियासत में सक्रिय हुए तो दोनों भाइयों में ठन गई। शिरोमणि अकाली दल-भाजपा गठबंधन सरकार में मनप्रीत सिंह बादल पहली बार वित्त मंत्री बने तो सुखबीर सिंह बादल उनके काम में खुली दखलअंदाजी करते थे और यह मनप्रीत को बर्दाश्त नहीं था।
प्रकाश सिंह बादल ने कभी मनप्रीत सिंह बादल को सार्वजनिक मंच से अपना सियासी वारिस घोषित किया था और बाकायदा कहा था कि उनका अपना बेटा सुखबीर तो कारोबार में दिलचस्पी रखता है। राजनीति में आने का उसका कोई इरादा नहीं। उनकी राजनीतिक विरासत को भतीजा मनप्रीत सिंह बादल संभालेगा। श्रीमती बादल (सुखबीर की मां) इस पक्ष में नहीं थीं। सुखबीर सिंह बादल जब विदेश गए थे, तब पंजाब में आतंकवाद शिखर पर था और वह भी आतंकियों के निशाने पर थे। कहा जाता है कि उन्हें ‘सुरक्षित’ रखने के लिए पंथक सियासत के सिरमौर प्रकाश सिंह बादल ने ‘कारोबार’ के बहाने विदेश भेज दिया था। पंजाब में हालात सामान्य हुए और मनप्रीत सिंह बादल की सियासी वारिस वाली घोषणा के बाद सुखबीर सिंह बादल अचानक नमूदार हो गए लेकिन पहले-पहल उन्होंने सूबे की राजनीति की बजाए दिल्ली की राजनीति में दिलचस्पी और सक्रियता दिखाई। मनप्रीत को बेटे समान ही प्यार देने वाले प्रकाश सिंह बादल भी ऐसा ही चाहते थे।
सुखबीर सिंह बादल सत्ता की पहली पारी में अटल बिहारी वाजपयी की अगुवाई वाली सरकार में सीधे केंद्रीय उद्योग राज्य मंत्री बने। वह सरकार जब चली गई तो सुखबीर सिंह बादल भी पंजाब आ गए और उन्होंने अपने तईं घोषणा कर दी कि प्रकाश सिंह बादल के सियासी वारिस वही हैं। इस पर मनप्रीत इसलिए भी खामोश रहे कि वह बड़े बादल की बहुत इज्जत करते हैं तथा उनके पिता का अपने भाई से बहुत ज्यादा प्यार था। धीरे-धीरे सारे समीकरण बदलते चले गए। अपरोक्ष रूप से जब शिरोमणि अकाली दल में सुखबीर सिंह बादल, उनकी माता दिवंगत सुरेंद्र कौर बादल और हरसिमरत कौर बादल तथा उनके भाई बिक्रमजीत सिंह मजीठिया हावी होने लगे तो उन्होंने रिवाइती अकाली दल का चेहरा-मोहरा ही सिरे से बदल दिया। शिरोमणि अकाली दल लगभग कारपोरेट अकाली दल बन गया। मनप्रीत बादल मंत्रिमंडल में थे और कई ऐसे कामों के लिए उन्हें कहा जाता तथा बाद में बाकायदा ‘दबाव’ बनाया जाता, जिनमें उनकी जरा भी रजामंदी नहीं थी।
आखिरकार बादल परिवार में ‘महाभारत’ दोहराई गई और प्रकाश सिंह बादल का ‘असली पुत्र मोह’ जाग गया। वह मनप्रीत की कारगुजारी से नाखुश रहने लगे। इधर, मनप्रीत सरकार के ‘पर्दे के पीछे’ की बातें मीडिया में ब्रीफ करने लगे तो प्रकाश सिंह बादल ने उन्हें इस्तीफा देने के लिए कह दिया। हालात से वाकिफ मनप्रीत बखूबी जानते थे कि एक दिन उनके साथ क्या होना है, इसलिए इस्तीफा उनकी जेब में ही था। कुछ दिन की खामोशी के बाद उन्होंने मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल और सुखबीर सिंह बादल पर गंभीर आरोप लगाते हुए शिरोमणि अकाली दल की प्राथमिक सदस्यता भी त्याग दी। अपनी नई पार्टी का गठन कर लिया और इसके लिए जगह चुनी शहीद भगत सिंह के नौनिहाल गांव खड़करकलां। जिला नवांशहर का यह गांव भगत सिंह का गांव कहलाता है क्योंकि उन्होंने अपना कुछ वक्त यहां गुजारा था।
खैर, मनप्रीत सिंह बादल ने बेहद जोश के साथ अपनी नई पार्टी का गठन किया और बाकायदा सौगंध खाई कि वह का ताउम्र अपनी इसी पार्टी को चलाएंगे। शिरोमणि अकाली दल में वापसी नहीं करेंगे। कांग्रेस और भाजपा को उन्होंने पंजाब एवं सिख विरोधी बताते हुए कहा था कि उनके साथ समझौते का तो कोई सवाल ही पैदा नहीं होता, वहां जाना तो बहुत दूर की बात है। अपने बूते मनप्रीत की पार्टी ने पूरे पंजाब में चुनाव लड़ा लेकिन एक भी सीट नहीं हासिल कर पाए। जबकि नई पार्टी बनाते वक्त लाखों लोग खड़कर कलां गए थे और लगता था कि पंजाब में ‘मनप्रीत लहर’ आ गई है। विधानसभा चुनाव हारने के बाद मनप्रीत और उनकी पार्टी हाशिए पर चले गए और संस्थापक मनप्रीत तो अज्ञातवास में भी चले गए। इस बीच दिल्ली में आम आदमी पार्टी (आप) वजूद में आ गई थी और अरविंद केजरीवाल को पंजाब में किसी ‘ईमानदार’ चेहरे की तलाश थी। बहुत कम लोग इस तथ्य से वाकिफ हैं कि पंजाब में पार्टी सक्रिय करने के लिए उन्होंने सबसे पहले मनप्रीत सिंह बादल से ही संपर्क किया था लेकिन मनप्रीत का कहना था कि मैंने सौगंध खाई हुई है कि मैं अन्य किसी भी पार्टी में नहीं जाऊंगा।
अचानक एक दिन पता चला कि मनप्रीत सिंह बादल ने अपनी नवनिर्मित नई पार्टी का शुमार कांग्रेस में कर दिया है। ‘सौगंध’ रातों-रात न जाने कैसे काफूर हो गई और मनप्रीत ने बाकायदा कांग्रेसी जामा पहन लिया। कांग्रेस की टिकट पर ही विधानसभा चुनाव लड़ा और कैप्टन अमरिंदर सिंह ने उन्हें वित्त मंत्री की कुर्सी दी। बताते हैं कि कांग्रेस आलाकमान में मनप्रीत ने अच्छे संबंध बना लिए थे। बादल मंत्रिमंडल में रहते हुए वह अक्सर परियोजनाओं के सिलसिले में दिल्ली जाया करते थे तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से लेकर तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी तक मिला करते थे। अन्य वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं से भी। इन्हीं मुलाकातों का सिला था कि वह कांग्रेसी हो गए और उन्हें मनचाहा पोर्टफोलियो मिल गया।
प्रसंगवश, इस पत्रकार की जानकारी के मुताबिक मनप्रीत सिंह बादल आम आदमी पार्टी में भी जाने को तैयार थे लेकिन चाहते थे कि अरविंद केजरीवाल उन्हें मुख्यमंत्री का चेहरा बनाएं। यह शर्त आप सुप्रीमो को नामंजूर थी। लिहाजा वह कांग्रेस में आ गए। कैप्टन अमरिंदर सिंह के बाद जब चरणजीत सिंह चन्नी मुख्यमंत्री बने तो यह कांग्रेस आलाकमान से नज़दीकियों का ही असर था कि उन्हें उनके पुराने पोर्टफोलियो में ही रखा गया। करारी शिकस्त के बाद जो लोग अचानक ‘लापता’ हो गए; उनमें पूर्व मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के साथ-साथ मनप्रीत सिंह बादल भी थे। वह नए साल की पूर्व संध्या पर पंजाब वापस आए।
सबको हैरानी तब हुई जब भारत जोड़ो यात्रा में मनप्रीत सिंह बादल शामिल नहीं हुए और न इस बाबत उन्होंने राहुल गांधी से कोई बात की। इसकी एक बड़ी वजह यह भी हो सकती है कि मनप्रीत सिंह बादल दरअसल गिद्दड़बाहा विधानसभा क्षेत्र को अपनी ‘राजनीतिक जागीर’ मानते हैं और उनकी इस परंपरागत सीट पर अब मौजूदा प्रदेशाध्यक्ष अमरिंदर सिंह राजा वडिंग चुनाव लड़ते हैं। वह तीसरी बार वहां से जीते। उन्हें प्रदेश प्रधान की कमान दी गई तो मनप्रीत को यह भी रास नहीं आया।
18 जनवरी 2023 की दोपहर एक बार फिर मनप्रीत सिंह बादल ने साबित कर दिया कि राजनीति में छवि और सौगंध अब कोई मायने नहीं रखतीं। ‘मौकापरस्ती’ सर्वोपरि है! ट्वीट करके उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा दिया और राहुल गांधी के नाम दो पेज की एक चिट्ठी लिखी और इतना इंतजार भी नहीं किया कि पार्टी आलाकमान उनका इस्तीफे पर कोई फैसला करे। उनका मुख्य आरोप यही था कि पार्टी में धड़ेबंदी के चलते उनकी अवहेलना हो रही है। इसलिए वह छोड़ रहे हैं। इस्तीफा देने के थोड़े वक्त के बाद ही उन्होंने अमित शाह के ‘विशेष गुण’ बताते और गाते हुए घोषणा कर दी कि वह अब भाजपा का हिस्सा हो गए हैं!
मनप्रीत सिंह बादल का भाजपाई होना जहां कांग्रेस को कहीं न कहीं बड़ा नुकसान दे गया, वहीं बादलों की सरपरस्ती वाले शिरोमणि अकाली दल में भी खासी हैरानी पाई जा रही है। सुखबीर सिंह बादल को उनका भाजपा में जाना कतिपय कारणों से कतई रास नहीं आ रहा। मनप्रीत के भाजपा में जाने से राज्य के सियासी समीकरण सिरे से बदल गए हैं।
कैप्टन अमरिंदर सिंह के भाजपा में शामिल होने का उतना मलाल कांग्रेस को नहीं था जितना अब मनप्रीत सिंह बादल के जाने का है। मनप्रीत के भाजपा में जाने से उनके धुर विरोधी भी हैरान हैं और खुद भाजपा के राज्य स्तरीय वरिष्ठ नेता भी। यह पत्रकार पहले भी कई बार लिख चुका है कि भाजपा चुन-चुन कर सिख चेहरों को पार्टी में बाकायदा एक ‘मिशन’ के तहत ला रही है। मनप्रीत सिंह बादल का भाजपा में आना निसंदेह नरेंद्र मोदी, अमित शाह और जेपी नड्डा के लिए काफी मुफीद साबित होगा। कम से कम भाजपा के केंद्रीय नेता तो यही मानत हैं!
(अमरीक सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और पंजाब में रहते हैं।)
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