इस देश को नरपिशाचों का देश बनाने की तैयारी शुरू हो गयी है। अब यहां नागरिक नहीं होंगे। न ही होगा कोई गणराज्य। देश में होगी एक खास धर्म की सत्ता जिसके नागरिकों की पहचान नागरिक कम नरपिशाच के तौर पर ज्यादा होगी। पहलगाम की घटना बड़ी थी और उससे भी बड़ा था कश्मीरियों का उसके खिलाफ उठ खड़ा होना। पिछले 35 सालों में यह पहली बार हुआ जब पूरा कश्मीर खड़ा हो गया। देश के किसी दूसरे हिस्से में भले ही उस तरह का प्रतिरोध न हुआ हो लेकिन कश्मीर में बंद से लेकर घटना के खिलाफ सड़कों पर प्रदर्शन तक हुए।
सैलानियों की जान बचाने का मसला हो या फिर उन्हें सुरक्षित अपने घरों में रखने का इस काम के लिए भी वही कश्मीरी सामने आए जिनके खिलाफ देश के बाकी हिस्से में आग उगली जा रही है। मरने वालों में हिंदू के साथ मुस्लिम भी शामिल हैं और कश्मीर के सैयद तो अपने मेहमान सैलानियों को बचाने के लिए आतंकियों से लड़ पड़े और इस कड़ी में उन्होंने अपनी जान तक गवां दी लेकिन कश्मीर के बाहर देश के बाकी हिस्सों में उसका जिक्र तक नहीं किया जा रहा है।
इन सब मसलों पर बाद में आएंगे। पहले कुछ सवालों की बात कर लेते हैं जिनके जवाब बेहद जरूरी हैं। लेकिन उससे पहले इस बात को समझ लेना जरूरी है कि जम्मू-कश्मीर के केंद्र शासित प्रदेश में बदल जाने के बाद अब सूबे में कानून व्यवस्था की पूरी जिम्मेदारी केंद्र के गृहमंत्रालय और सूबे के एलजी के पास है। चुनी गयी उमर सरकार के पास सूबे के कांस्टेबल तक की कहीं तैनाती या फिर उसके तबादले का अधिकार नहीं है।
ऐसे में अभी जबकि पिछली आठ अप्रैल को गृहमंत्री अमित शाह ने कश्मीर में सुरक्षा व्यवस्था संबंधी बैठक की थी तो उसमें आखिर किस बात की समीक्षा की थी और कश्मीर के लिए क्या योजना बनायी थी? एक दूसरी हकीकत यह है कि जुलाई में अमरनाथ यात्रा की तैयारी शुरू हो चुकी है और वह यात्रा इसी पहलगाम इलाके से होकर गुजरती है। लोग चिल्ला-चिल्ला कर पूछ रहे हैं कि जिस कश्मीर में 6-7 लाख सुरक्षा बल के जवान तैनात हैं और चप्पे-चप्पे पर इनको लगाया गया है। यानि हर पांच नागरिक पर एक जवान की तैनाती है। वहां एक ऐसी जगह पर जहां कि गर्मी के इस मौसम में रोजाना 2500-3000 सैलानी एकत्रित हो रहे हैं वहां सरकार ने सुरक्षा बल के जवानों की एक टुकड़ी भी तैनात करनी जरूरी नहीं समझी? आखिर क्यों? और अगर एमआईएमआईएम नेता असदुद्दीन ओवैसी की मानें तो वहां इससे पहले सीआरपीएफ की दो टुकड़ियां तैनात रहा करती थीं। अगर यह बात सही है तो फिर सवाल यह उठता है कि उन्हें हटाया क्यों गया?
इसके पहले 17 अप्रैल के आस-पास संघ और दक्षिणपंथी संगठनों से जुड़े तमाम सोशल मीडिया की पोस्टों में खुलेआम यह बात लिखी और कही जा रही थी कि कुछ होने वाला है। जिसमें पीएम मोदी की राष्ट्रपति से मुलाकात। फिर शाह की कश्मीर में समीक्षा बैठक। नड्डा की शाह के साथ मीटिंग। और इसी तरह की ढेर सारी बातों का जिक्र किया गया था। और पंकज जैन उज्जैन नाम के एक सज्जन ने तो बाकायदा जेके और शाह का हवाला देते हुए ऐलानिया तौर पर अपनी पोस्ट का स्क्रीन शाट तक रखने की बात कही थी।
इसी बीच कश्मीर और देश दोनों की सत्ता के शीर्ष से जुड़ी दो और घटनाएं हुईं। घटना से एक दिन पहले एलजी मनोज सिन्हा सूबे से बाहर चले गए और यूपी में जाकर उसकी गवर्नर आनंदी बेन पटेल से मिल रहे थे। जबकि इससे भी पहले पीएम मोदी कश्मीर की होने वाली अपनी यात्रा रद्द कर चुके थे। यानि कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि उस दौर में सत्ता से जुड़े लोगों की गतिविधियों और उनके बयानों का आकलन करें तो जो हुआ उसकी आहट वहां देखी जा सकती थी।
अब अगर इसकी पृष्ठभूमि पर नजर दौड़ाएं तो मोदी इस दौरान चौतरफा घिर गए थे। संघ की ओर से उन पर बीजेपी अध्यक्ष की नियुक्ति का लगातार दबाव बनाया जा रहा था। जिसमें यह शर्त शामिल थी कि अध्यक्ष संघ का होगा। लेकिन ऐसा कहा जा रहा है कि मोदी किसी भी कीमत पर उस शर्त को मानने के लिए तैयार नहीं हैं/थे। उस शर्त को मानने का मतलब सत्ता से उनकी उलटी गिनती की शुरुआत। ऊपर से जनमत के उनके पैमाने में भी लगातार गिरावट दर्ज की जा रही थी। इस पर मुहर उस समय लग गयी जब अंतरराष्ट्रीय मैगजीन ‘टाइम’ की ओर से जारी दुनिया के 100 सबसे प्रभावी व्यक्तित्वों की सूची में भी वह अपना नाम नहीं दर्ज करा सके। जबकि पड़ोसी बांग्लादेश के यूनुस साहब का नाम उसमें शामिल था।
ऊपर से अमेरिका और ट्रम्प द्वारा मिला अपमान उनके लिए किसी मर्मांतक चोट से कम नहीं था। भारतीय नागरिकों को जिस तरह से हथकड़ी पहना कर लाया गया और अपनी अमेरिकी यात्रा के बाद भी वह उसे रोक पाने में नाकाम रहे। उसने उनकी रही-सही साख को भी मिट्टी में मिला दिया। बाकी कसर सुप्रीम कोर्ट ने पूरी कर दी वक्फ पर अपनी संवैधानिक पोजीशन लेकर। और ऊपर से इस बीच आने वाले दिनों में बंगाल और बिहार के चुनाव थे। ऐसे में आपको क्या लगता है मोदी साहब सब कुछ स्वीकार कर अपने बाहर जाने का रास्ता साफ कर लेते या फिर इसी में से कोई ऐसा रास्ता निकालते जिससे सांप भी मर जाता और लाठी भी नहीं टूटती।
लेकिन यह सब कुछ इतना नंगे तरीके से होगा किसी को इसका ख्याल नहीं था। अभी तक जितनी आतंकी घटनाएं हुई हैं उसमें किसी आतंकवादी ने धर्म पूछ कर गोली नहीं मारी। न ही पीड़ितों से कलमा पढ़वाया। यह पहली घटना है जिसमें आतंकी इतने नीचे उतर कर इस तरह की घटना को अंजाम दिए हैं। इस बात में कोई शक नहीं कि वह अपने आका के निर्देशों का ही पालन कर रहे थे भले ही वो सीमा पार के हों या फिर सीमा के भीतर के। एक बात दोनों के लिए सच है कि दोनों का मकसद देश में सांप्रदायिक विभाजन कराना था। नफरत और घृणा फैलाना था। जिसको उन्होंने अपने इन आतंकियों के जरिये करने की कोशिश की।
इस बीच सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेताओं की गतिविधियों ने भी तमाम आशंकाओं को बल दिया है। गृहमंत्री होने के नाते घटना के बाद अमित शाह ने भले ही घाटी का दौरा किया हो लेकिन उन्होंने न तो कोई प्रेस कांफ्रेंस करके आधिकारिक तौर पर घटना का ब्योरा दिया और न ही पत्रकारों के सवालों का सामना करने की कोशिश की। अलबत्ता जब पीड़ितों के परिजनों से मुखातिब हुए तो एएनआई ने आडियो को म्यूट कर दिया। इस्तीफे और जिम्मेदारी लेने की पेशकश तो बहुत दूर की बात है। सत्ता के शीर्ष पुरुष दुबई की यात्रा बीच में रोक कर स्वदेश ज़रूर लौटे लेकिन उन्होंने देश की जनता को संबोधित करने की जगह अपने पहले बयान के लिए बिहार को चुना जहां आने वाले दिनों में चुनाव हैं। हालांकि बताया जा रहा है कि आज के दिन उनका कानपुर का दौरा लगा हुआ था जहां उन्हें मेट्रो का उद्घाटन करने जाना था। लेकिन शायद वहां से कोई राजनीतिक लाभ तो मिलना नहीं था और वोट की फसल तो बिहार में लहलहा रही थी लिहाजा उसे काटने के लिए उन्होंने बिहार का ही रुख करना उचित समझा। और सर्वदलीय बैठक में शामिल विपक्षी पार्टियों को संबोधित करने के लिए राजनाथ को छोड़ दिया। जिनका बीजेपी और सत्ता प्रतिष्ठान में स्थान आलू से ज्यादा नहीं है।
सीसीएस की बैठक में पाकिस्तान के खिलाफ जो कुछ प्रस्ताव पारित किए गए हैं उनका मकसद सिर्फ और सिर्फ देश में सांप्रदायिकता के रंग को गाढ़ा करना है। वहां के नागरिकों को देश से भगाकर भी भला आप क्या हासिल कर लेंगे? हाई कमीशनों में कुछ नौकरशाहों के घट जाने से भारत को क्या फायदा मिल जाएगा? सिंधु नदी समझौते को तो एकतरफा तरीके से आप निलंबित कर भी नहीं सकते। क्योंकि वह एक अंतरराष्ट्रीय समझौता है और उसमें दूसरी अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां भी शामिल हैं। और अगर अपने भक्तों को खुश करने के लिए आपने यह ऐलान कर भी दिया है तो उसके पानी को आप कहां ले जाएंगे? इसलिए इन बेफजूल के फैसलों से न तो आतंकवाद पर रोक लगेगी और न ही उससे कोई फर्क पड़ने वाला है।
यह उसी तरह की बात है जैसे नोटबंदी और धारा 370 हटाए जाने से आतंकवाद समाप्त होने वाला था। जबकि इन चीजों से उस पर कोई फर्क नहीं पड़ा है। यह पूरे देश ने देखा है और महसूस भी किया है। पिछले सालों में होने वाली आतंकी गतिविधियों की सूची सोशल मीडिया पर घूम रही है। उसको यहां देना कोई जरूरी नहीं है। यह सूची अमित शाह के संसद में दिए गए आतंकवाद के खात्मे के बयान को खारिज करने के लिए पर्याप्त है।
लेकिन इन सारे सवालों और जटिलताओं में जाने और उन्हें हल करने की बजाय सत्ता पोषित और उसके द्वारा निर्देशित रास्ते पर ही देश को ले जाने की कोशिश की जा रही है। सबकी जुबान पर महज धर्म पूछ कर मारने के नरेटिव और फिर उसके आधार पर देश के भीतर न केवल मुसलमानों बल्कि कश्मीरियों के खिलाफ खुला अभियान छेड़ देने की कोशिश हो रही है। जबकि सच्चाई यह है कि आतंकियों से पहले इस देश के प्रधानमंत्री ने कपड़े के आधार पर लोगों को पहचानने की बात कही थी। उनके समर्थक भक्त और भगवाधारी ही टोपी और दाढ़ी देखकर हमले करते रहे हैं। पिछले दिनों देश में हुई तमाम लिंचिंग की घटनाएं इसकी खुली गवाह हैं। राजस्थान की एक ट्रेन में एक खाकीधारी ने ही दाढ़ी देखकर कई मुसलमानों की हत्याएं की थीं।
और वो तो आतंकी थे भला उनसे किसी नैतिकता, मूल्य और सिद्धांत की क्या उम्मीद करना? लेकिन उनके नरेटिव को ही आगे बढ़ाने की कोशिश की जा रही है। लेकिन ऐसा करने वालों को एकबारगी ज़रूर यह सोचना चाहिए उनकी जेहनियत भी उन्हीं आतंकियों वाली ही है। रही आतंकवाद के किसी एक खास धर्म से जुड़े होने की बात तो अब सत्ता प्रतिष्ठान ने उसे खुद ही खारिज कर दिया है। जब उसने मालेगांव ब्लास्ट में प्रज्ञा ठाकुर को दोषी करार देकर उनके लिए मौत की सजा की मांग कर दी है।
सरकार के अपने पैमाने के हिसाब से फिर तो प्रज्ञा ठाकुर और उनके दूसरे सहयोगी भी आतंकी हुए। और इस तरह से यह बात सरकार खुद ही कह रही है कि हिंदू धर्म में भी आतंकी हो सकते हैं। ज्यादा दिन नहीं हुए जब बगल के पड़ोसी मुल्क श्रीलंका में प्रभाकरन को आतंकी के तौर पर ही चिन्हित किया जाता था जबकि वह तमिल हिंदू समुदाय से आता था। बर्मा के भीतर रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ बर्बर हमले करने वाले बौद्धों को आप किस श्रेणी में रखेंगे?
मोदी जी आप आग से खेल रहे हैं। एक विविधता भरे खूबसूरत देश को जो लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत समृद्धि के मार्ग पर सरपट दौड़ रहा था तब अपनी कुर्सी और सांप्रदायिक सोच के चलते देखते-देखते आपने उसे अफगानिस्तान के रास्ते पर धकेल दिया। और अब आप उस मुहाने पर उसे ले जाकर खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं जहां पहुंचने पर किसी के लिए उसको पहचान पाना भी मुश्किल होगा।
(महेंद्र जनचौक के संपादक हैं।)