त्रिपुरा में क्यों चाहिए ‘ग्रेटर टिपरालैंड’, जानें टिपरा मोथा का इतिहास

देश में अलग राज्यों की मांग पुरानी है। पश्चिम बंगाल में गोरखालैंड, महाराष्ट्र में विदर्भ, उत्तर प्रदेश में पूर्वांचल और हरित प्रदेश तो मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों को काटकर बुंदेलखंड बनाने की मांग राजनीतिक दलों को परेशानी में डालते रहते हैं। लेकिन त्रिपुरा में चुनावी हलचल के बीच ‘ग्रेटर टिपरालैंड’ की मांग ने सत्तारूढ़ बीजेपी के साथ ही सीपीएम, कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस को खासा परेशान कर दिया है।

ग्रेटर टिपरालैंड बनाने की मांग करने वाले प्रमुख व्यक्ति का नाम प्रद्योत किशोर माणिक्य देबबर्मा है। वह त्रिपुरा के पूर्व शाही परिवार के वारिस और टिपरा मोथा नामक राजनीतिक दल के प्रमुख हैं। उनका परिवार लंबे समय तक कांग्रेस से जुड़ा रहा है, लेकिन अब वह कांग्रेस छोड़कर अलग राज्य बनाने की मांग बुलंद कर रहे हैं।

त्रिपुरा की 60 सदस्यीय विधानसभा के लिए 16 फरवरी को मतदान होना है। नामांकन भरने की अंतिम तिथि 30 जनवरी है। वोटों की गिनती दो मार्च को होगी। इसको लेकर सभी पार्टियों ने तैयारी तेज कर दी है। लेकिन राज्य का हर दल प्रद्योत किशोर माणिक्य देबबर्मा के नए-नवेले दल टिपरा मोथा से गठबंधन करना चाह रहा है।

लेकिन टिपरा मोथा प्रमुख प्रद्योत किशोर माणिक्य देबबर्मा का कहना है कि उनकी पार्टी त्रिपुरा विधानसभा चुनाव में किसी भी राजनीतिक दल के साथ गठबंधन नहीं करेगी। वह 16 फरवरी का विधानसभा चुनाव उन लोगों को हराने के लिए लड़ेंगे जो उसकी ‘ग्रेटर टिपरालैंड’ मांग का विरोध कर रहे हैं। उनकी इस टिप्पणी के बाद उन अटकलों पर विराम लग जाता है जिसमें कहा जा रहा था कि 60 सदस्यीय विधानसभा चुनाव में टिपरा मोथा सत्तारूढ़ बीजेपी के साथ गठबंधन करने वाली है।

ग्रेटर टिपरालैंड, टिपरामोथा और प्रद्योत माणिक्य देबबर्मन

ग्रेटर टिपरालैंड की मांग त्रिपुरा की राजनीति को अपनी जद में ले लिया है। राज्य में कुछ स्थानीय जनजातियों (स्वदेशी समुदायों) के लिए अलग राज्य के रूप में ग्रेटर टिपरालैंड की मांग चल रही है। त्रिपुरा के शाही परिवार के वंशज, प्रद्योत माणिक्य देबबर्मन के नेतृत्व वाली टिपरा मोथा पार्टी ने राज्य के स्वदेशी समुदायों के बीच उन्हें एक जातीय मातृभूमि का वादा करके बीजेपी, सीपीएम और तृणमूल कांग्रेस को असमंजस में डाल दिया है।

क्या टिपरा मोथा का होगा बीजेपी से गठबंधन

प्रद्योत के इस चाल से सबसे ज्यादा किसका नुकसान होगा, अभी कहा नहीं जा सकता है। लेकिन सत्तारूढ़ बीजेपी टिपरा मोथा से चुनावी गठबंधन करना चाह रही है। बीजेपी की प्रद्योत से बातचीत चल रही है। टिपरा मोथा प्रतिनिधिमंडल का नई दिल्ली में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के साथ भी बातचीत हुई।

पिछले हफ्ते भाजपा ने असम के मुख्यमंत्री और पूर्वोत्तर में पार्टी के संकटमोचक हिमंत बिस्वा सरमा को प्रद्योत के साथ बातचीत करने के लिए नियुक्त किया था। प्रद्योत देबबर्मन ने यह कह कर बीजेपी को उलझन में डाल दिया है कि टिपरा मोथा किसी भी चुनाव पूर्व गठबंधन में शामिल नहीं होगा, जब तक कि अलग राज्य की उनकी मांग को लिखित रूप में स्वीकार नहीं किया जाता।

प्रद्योत किशोर ने कहा, “जब तक भारत सरकार हमारी मांग के संवैधानिक हल के लिए कोई लिखित दस्तावेज नहीं देती, हम कोई गठबंधन नहीं करेंगे।”

त्रिपुरा की 60 विधानसभा सीटों में से 20 सीट अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं। 2018 में, इनमें से आठ सीटों पर इंडीजेनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (आईपीएफटी), 10 सीटों पर बीजेपी और दो सीटों पर सीपीआई (एम) की जीत हुई थी।

ग्रेटर टिपरालैंड की मांग क्या है?

प्रद्योत के अनुसार, ‘ग्रेटर तिपरालैंड’ मौजूदा राज्य त्रिपुरा से बना एक अलग राज्य होगा, जो क्षेत्रफल के मामले में भारत का तीसरा सबसे छोटा राज्य है। नई जातीय मातृभूमि मुख्य रूप से उस क्षेत्र के स्वदेशी समुदायों के लिए होगी जो विभाजन के दौरान पूर्वी बंगाल से विस्थापित बंगालियों की आमद के कारण संख्या में अल्पसंख्यक हो गए हैं।

ग्रेटर टिपरालैंड
ग्रेटर तिपरालैंड का संभावित सीमांकन

1971 में बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम के दौरान भारी संख्या में बंगाली प्रवासियों ने त्रिपुरा में शरण ली। भाषा जनगणना 2011 के अनुसार त्रिपुरा में 24.14 लाख लोगों की मातृभाषा बंगाली है। यह 36.74 लाख आबादी में बंगाली मातृभाषा वालों की संख्या दो-तिहाई है और त्रिपुरा के 8.87 लाख की संख्या वाले सबसे बड़े आदिवासी समूह, जो तिब्बती-बर्मन परिवार की भाषा कोकबोरोक बोलते हैं उनसे लगभग तीन गुना अधिक हैं।

त्रिपुरा जनजातीय क्षेत्र स्वायत्त जिला परिषद (टीटीएएडीसी) क्षेत्र की जनसंख्या 1,216,465 है, जिसमें से अनुसूचित जनजातियों की संख्या 1,021,560 है, यानी टीटीएएडीसी क्षेत्र की जनसंख्या का 83.4 प्रतिशत है।

शाही वंश के रत्न माणिक्य (1462-1487) के बीच त्रिपुरा में 4000 बंगालियों को चार स्थानों पर बसाने वाले पहले व्यक्ति थे। 1946 में नोआखली दंगों के दौरान बचे हुए कई बंगाली हिंदू, जिन्हें पूर्वी बंगाली शरणार्थी कहा जाता है, को कोमिला, चांदपुर, अगरतला (वर्तमान त्रिपुरा की राजधानी) और अन्य स्थानों में अस्थायी राहत शिविरों में शरण दी गई थी। 1971 में बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान असम, मेघालय, त्रिपुरा और अन्य स्थानों में बंगाली हिंदुओं और मुसलमानों का एक बड़ा प्रवास हुआ।

जनगणना रिपोर्ट 2001 के अनुसार 1971 तक त्रिपुरा का जनसांख्यिकीय रुझान, त्रिपुरा सरकार के जनजातीय मामलों के विभाग ने 1971 से 2001 के बीच त्रिपुरा के जनसंख्या अनुपात को बताया है। जिसमें वर्ष, कुल जनसंख्या, गैर-आदिवासी जनसंख्या, जनजातीय जनसंख्या, जनजातीय जनसंख्या का प्रतिशत और गैर-जनजातीय जनसंख्या का प्रतिशत दिया गया है। वर्ष 1931 में राज्य की कुल जनसंख्या 382,450 में 53.16 प्रतिशत जनजाति और 46.84 प्रतिशत गैर जनजाति थे।

1941 में 50.09 प्रतिशत जनजाति और 49.91 गैर जनजाति, 1951 में 37.23 फीसद जनजाति और 62.77 गैर जनजाति, 1961 में 31.53 प्रतिशत जनजाति और 68.47 गैर जनजाति और 1971 में 28.95 फीसद जनजाति और 71.05 प्रतिशत गैर जनजाति आबादी हो गई।

प्रद्योत कहते हैं, ‘ग्रेटर तिपरालैंड’आदिवासियों के अधिकारों और संस्कृति की रक्षा करने में मदद करेगा। उन्होंने आदिवासियों के लिए भूमि सुधार का भी वादा किया है। वह चाहते हैं कि उनकी मांग भारत के संविधान के अनुच्छेद 2 और 3 के तहत पूरी की जाए, जो धाराएं नए राज्यों के गठन से संबंधित हैं।

आदिवासी क्षेत्रों में हो चुका है सशस्त्र विद्रोह

1992 में गठित नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (NLFT) और 1990 में स्थापित ऑल त्रिपुरा ट्राइबल फोर्स (ATTF) जैसे सशस्त्र विद्रोही समूहों ने एक अलग राज्य के बजाय भारत से अलगाव की मांग की थी।

1980 के दशक में सक्रिय विद्रोही समूह त्रिपुरा नेशनल वालंटियर्स (TNV) ने बाद में राजीव गांधी के शासनकाल के दौरान केंद्र के साथ एक शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। लेकिन टीएनवी (TNV) से अलग हुए समूह एनएलएफटी (NLFT) और एटीटीएफ (ATTF) ने राज्य में आतंक का राज कायम कर दिया। दक्षिण एशिया आतंकवाद पोर्टल के अनुसार, 1992 और 2012 के बीच 2509 नागरिक, 455 सुरक्षाकर्मी और 519 विद्रोही मारे गए।

इन संगठनों के रंगरूट त्रिपुरा के गरीबी से जूझ रहे पहाड़ी इलाकों से बड़े पैमाने पर आदिवासी युवाओं को अपनी तरफ आकर्षित किया था। आज तक ये क्षेत्र सामाजिक-आर्थिक मापदंडों में पिछड़ रहे हैं।

1996 में जब शेख हसीना के नेतृत्व वाली अवामी लीग बांग्लादेश में सत्ता में आई, तो राज्य सरकार और केंद्र ने विद्रोहियों के सीमा-पार बुनियादी ढांचे को नष्ट करने के लिए पड़ोसी देश के साथ मिलकर काम करना शुरू कर दिया।

क्या टिपरा मोथा अलग राज्य की मांग करने वाली पहली पार्टी है?

2000 में बने इंडिजिनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (IPFT) ने सबसे पहले यह मांग उठाई थी। दो साल बाद, आईपीएफटी का त्रिपुरा उपजाति जुबा समिति (TUJS) नामक एक अन्य संगठन के साथ विलय हो गया, जिससे पूर्व अलगाववादी नेता बिजॉय कुमार हरंगख्वाल के नेतृत्व में इंडीजेनस नेशनलिस्ट पार्टी ऑफ ट्विप्रा (INPT) का जन्म हुआ।

IPFT को 2009 में एनसी देबबर्मा के नेतृत्व में पुनर्जीवित किया गया था, जो बाद में 1 जनवरी, 2022 को अपनी मृत्यु तक भाजपा-IPFT गठबंधन सरकार में मंत्री के रूप में काम करते रहे।

2021 में त्रिपुरा ट्राइबल एरियाज ऑटोनॉमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल (TTADC) की 28 में से 18 सीटों पर जीत हासिल करने के बाद से IPFT के प्रभाव में कमी आने के साथ, टिपरा मोथा ने एक बार फिर मांग को सामने ला दिया है। IPFT वर्तमान में टिपरा मोथा के साथ विलय के लिए प्रद्योत के साथ बातचीत कर रहा है। 2021 के बाद से, आईपीएफटी (IPFT) के तीन विधायक और एक भाजपा विधायक टिपरा मोथा में शामिल हो गए हैं।

क्या त्रिपुरा शाही परिवार हमेशा राजनीतिक रूप से सक्रिय रहा है?

त्रिपुरा की रियासत पर माणिक्य राजवंश का शासन था, जो त्रिपुरी या तिप्रसा समुदाय से संबंधित है, 13 वीं शताब्दी के अंत से 15 अक्टूबर, 1949 को भारत सरकार के साथ विलय के साधन पर हस्ताक्षर करने तक। उस समय प्रद्योत के पिता किरीट बिक्रम माणिक्य ने त्रिपुरा का शासन संभाला, हालांकि वह तब नाबालिग थे।

बाद में किरीट बिक्रम और उनकी पत्नी बिभू कुमारी देवी दोनों कांग्रेस से लोकसभा सांसद चुने गए। सितंबर 2019 में इस्तीफा देने से पहले प्रद्योत खुद कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में काम कर चुके हैं। उनकी बहन प्रज्ञा देबबर्मन ने भी कांग्रेस के टिकट पर 2019 का लोकसभा चुनाव लड़ा था।

गठबंधन के संभावित राजनीतिक प्रभाव क्या हैं?

अगर टिपरा मोथा का बीजेपी या सीपीआई (एम)-कांग्रेस गठबंधन के साथ कोई चुनावी समझौता नहीं हो जाता है, तो इस बार त्रिपुरा में चुनाव त्रिकोणीय होना तय है।

2018 में, भाजपा ने 43.5 प्रतिशत के वोट शेयर के साथ 36 सीटें जीतीं, उसके बाद सीपीआई (एम) को 42.2 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 16 सीटें मिलीं, जबकि आईपीएफटी ने आठ सीटें और 7.5 प्रतिशत वोट शेयर हासिल किया।

2023 तक, आईपीएफटी कमजोर हो गया है, भाजपा को विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है, जबकि सीपीआई (एम) और कांग्रेस एक ऐसे गठबंधन में हैं जो अतीत में अकल्पनीय था। टिपरा मोथा के लगातार उदय और इसके गठबंधन प्रस्तावों को अस्वीकार करने से अब तक सभी प्रमुख राजनीतिक खिलाड़ी पशोपेश में हैं।

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