मणिपुर में पत्रकारिता जोखिम भरा काम हो गया है

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2018 में उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक हिंसा की एक घटना को कवर करते समय, मैंने प्रभावित परिवारों में से एक के घर का दौरा किया। उनके घर में तोड़फोड़ की गई थी और आग लगा दी गई थी। घर की स्थिति देखकर साफ लग रहा था कि इस घर में रहने वाला परिवार डर के मारे भोजन तैयार होने पहले ही घर छोड़कर चला गया था।

आधा-अधूरा गुंथा हुआ आटा, आधी पकी हुई दाल और कटी हुई सब्जियों की एक प्लेट उनकी रसोई के फर्श पर पड़ी थी। वहां एक धार्मिक पुस्तक भी थी। मेरे साथ आए एक पड़ोसी किताब की हालत देखकर भड़क गए। यह अंदाज लगते ही कि इस स्थिति से तनाव और बढ़ सकता है। मैंने उनसे चुप रहने का अनुरोध किया। सैकड़ों गुस्साए लोग बाहर खड़े थे और किसी भी उकसावे से हिंसा की एक और लहर शुरू होने की संभावना थी।

शुक्र है कि उन्हें मेरी बात में दम लगा। उन्होंने किताब उठाई और हम चुपचाप वहां से निकल गए। परिस्थिति चाहे जो भी हो, इस पेशे का एक सामान्य नियम यह है कि हम पहले पत्रकार हैं। हम धर्म या जाति को अपने फैसले पर हावी नहीं होने दे सकते।

लेकिन यह एक आदर्श स्थिति है, हालात अक्सर इसके विपरीत होते हैं। मणिपुर में चल रही जातीय हिंसा ने जातीय आधार पर रिपोर्टिंग की परेशान करने वाली प्रवृत्ति को सामने ला दिया है। पिछले 50 दिनों में 100 से अधिक लोग मारे गए हैं और हजारों लोग विस्थापित हुए हैं। और पुलिस की तरह, प्रेस भी बुरी तरह से विभाजित है। कुछ दिन पहले एक अधिकारी ने मुझे बताया था कि एक ही संस्था के लिए काम करने वाले दो पत्रकारों की भी जातीयता (कुकी-मैतेई) के आधार पर एक ही घटना की अलग-अलग प्रस्तुति हो सकती है।

किसी संघर्ष के दौरान अक्सर सरकार को ख़बरों को दबाना और सेंसर करना उनके लिए फायदेमंद होता है। यहीं पर पत्रकार सरकार को जवाबदेह ठहराकर महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। लेकिन मणिपुर में ऐसा नहीं हो रहा है। यदि आप इम्फाल से प्रकाशित एक समाचार पत्र और किसी पहाड़ी जिले से प्रकाशित एक अन्य समाचार पत्र उठाते हैं, तो आप पाएंगे कि समाचार अक्सर सामुदायिक (कुकी-मैतेई) आधार पर होते हैं। दोनों पक्षों की ओर से बढ़ा-चढ़ाकर किए गए दावे हैं।

पत्रकारों के सामने आने वाले खतरों को ध्यान में रखे बिना उन्हें दोष देना बहुत आसान है। 15 जून को अखबार के पहले पन्ने पर पूर्वी इंफाल में नौ लोगों की हत्या के बारे में एक खबर प्रकाशित होने के बाद वहां ‘द हिंदू’ संवाददाता के आवास के बाहर भीड़ जमा हो गई। स्थानीय लोग गुस्से में थे क्योंकि वे तथ्यों से सहमत नहीं थे। जो रिपोर्ट में प्रस्तुत किया गया था। उक्त रिपोर्टर ने हत्याओं से संबंधित इनपुट प्रदान नहीं किया था, लेकिन उसने कर्फ्यू के समय और विरोध प्रदर्शन पर अतिरिक्त विवरण दिया था। यही कारण है कि रिपोर्ट में उसकी बायलाइन दी गई थी। रिपोर्ट में मेरी बायलाइन भी थी क्योंकि मैंने कई स्रोतों से जानकारी की सत्यता की जांच करने के बाद हत्याओं के बारे में इनपुट प्रदान किया था।

उनके घर के सामने भीड़ जमा होने के बाद रिपोर्टर ने स्पष्ट किया कि रिपोर्ट के कुछ हिस्सों से उनका कोई लेना-देना नहीं है, जो मेरे द्वारा लिखे गए थे। इस घटना ने ज़मीनी स्तर पर पत्रकारों के सामने आने वाले भारी दबाव को उजागर किया। इस हफ्ते, दिल्ली स्थित एक समाचार चैनल के एक टीवी पत्रकार पर इंफाल में सरकार द्वारा संचालित मीडिया सेंटर में हमला किया गया था। इंफाल स्थित पत्रकारों का कहना है कि पहाड़ी जिलों में हिंसा किस कदर हुई इसका कभी पता नहीं चल सकता। क्योंकि पत्रकार वहां जाने की हिम्मत नहीं करते।

राजनीतिक प्रतिष्ठान स्थिति को संभालने या प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा करने में विफल रहे हैं। गृह मंत्री अमित शाह ने 29 मई से 1 जून तक मणिपुर का दौरा किया। अपने दौरे के आखिरी दिन उन्होंने इंफाल में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित किया। यह काफी स्पष्ट था कि सम्मेलन में पहाड़ी जिले से एक भी पत्रकार नहीं था, क्योंकि इंफाल की यात्रा करना उनके लिए जीवन और मृत्यु का सवाल होता। जब गृह मंत्री ने पहाड़ी जिलों का दौरा किया तो मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह अमित शाह के साथ नहीं थे।

देश के अन्य हिस्सों से इस मुद्दे पर रिपोर्टिंग करने वालों को ‘पैराशूट पत्रकार’ करार दिया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि वे राज्य को नहीं समझते हैं और उन्हें इसके इतिहास और संस्कृति की कोई जानकारी नहीं है। उन पर कभी-कभी आर्थिक लाभ का आरोप लगाया जाता है। इन चुनौतियों के बावजूद, आगे बढ़ने का केवल एक ही रास्ता है तथ्यपरक रिपोर्टिंग और उसका सत्यापन करते रहना।

( द हिंदू में ‘चैलेंजेज ऑफ रिपोर्टिंग ऑन एन एथिनिक कनफ्लिट’ शीर्ष से प्रकाशित विजेयता सिंह की रिपोर्ट का हिंदी अनुवाद। अनुवाद-आजाद शेखर)

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