“हमें मालूम है कि सभी समाजों, यहां तक कि स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवस्था, में भी समय समय पर अतिवादी जनोत्तेजक नेता जन्म लेते रहते हैं। …….. इतिहास साक्षी है, यह बात साफ़ है कि चरम ध्रुवीकरण (समाज का) लोकतंत्र की हत्या कर सकता है।“ (स्टीवन लेवित्स्की व डेनियल जिब्लट : लोकतंत्र की मृत्यु कैसे होती है, पृ. 7 -9)
“जब मेरी मां जीवित थीं तब मेरा विश्वास था कि मैं जैविक जन्मा हूँ। उनके निधन के पश्चात् जो मुझे अनुभव हुए हैं उससे मेरा यह विश्वास है कि ईश्वर ने मुझे भेजा है। यह ऊर्जा जैविक देह से पैदा नहीं हो सकती। लेकिन ईश्वर ने मुझमें पैदा की है… जब भी मैं कुछ करता हूँ, मुझे विश्वास होता है कि ईश्वर मेरा मार्गदर्शन कर रहे हैं।” (प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, 14 मई,’24 वाराणसी)।
निःसंदेह, प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी की ‘स्ट्राइकिंग रेट’ लाज़वाब रही है। इसकी तस्दीक़ सत्ताईस बरस के सत्ता – वनवास के बाद दिल्ली में भाजपा के सत्ता रोहण से होती है। आरोपों के कटघरे में चुनाव आयोग के होने, महाराष्ट्र व दिल्ली के चुनावों में मतदाता-आबादी में असाधारण इज़ाफ़ा और प्रयाग-कुम्भ में महा शव-त्रासदी के बावज़ूद मोदी राज का अश्व विपक्ष को रौंदता हुआ इंद्रप्रस्थ (दिल्ली) पर काबिज़ हो गया। इसे उदार लोकतंत्र का उत्थान कहें या पतन और भ्रमित जनता का फ़ैसला? आज़ देश में मोदी राज की चरम लोकप्रियता (पॉपुलरिज़्म ) का दौर (दक्षिण भारत को छोड़) है। ऐसे में ज़रूरी है कि इस दौर की प्रवृत्तियों और प्रभावों को समझा जाए।
प्रधानमंत्री मोदी के एक दशकीय राज की विश्लेषण यात्रा करने से पहले फेसबुक की दो टिप्पणियों की तरफ आपका ध्यान खींचना चाहूंगा। 30 दिसंबर के दिन भूख तालिका में भारत का स्थान 127 देशों में से 105 पर देखा। 2014 में देश का क्रम 54 था। इसका अर्थ यह हुआ कि भारत निरंतर भूख तालिका में नीचे गिरता गया है। लेकिन, किसी की टिप्पणी थी कि यह ’एब्सर्ड डेटा’ हैं। इससे एक हफ़्ते पहले इसी सोशल मीडिया के मंच पर पढ़ा था ’भगत सिंह आराम तलब थे, होटलवालों से सेटिंग करके खाना खाया करते थे, चार्ली चैपलिन की फिल्में देखते थे और बहुरूपिया या दोहरे चरित्र के थे।’
कानपुर में आयोजित साहित्यिक उत्सव में इतिहास की एक शिक्षिका ने अपनी पुस्तक ’रेवोल्यूशनरी ऑन ट्रायल: सीडीशन, बैट्रियल एंड मार्टोयडम’ में ऐसा निष्कर्ष निकाला था। श्रोताओं ने इन शब्दों का जबरदस्त विरोध किया।अंत में, आयोजकों और शिक्षिका को मांफ़ी मांगनी पड़ी। लेखिका थी अशोक विश्वविद्यालय की एसोसिएट प्रोफेसर अपर्णा वैदिक। इन दोनों अनुभवों की पृष्ठभूमि के साथ यह लेखक मोदी राज की यात्रा करेगा।

निःसंदेह, स्वतंत्र भारत के इतिहास में मोदी राज ’भव्य बुलेट मेल’ की रफ्तार वाला राज के रूप में दर्ज़ होगा; हर सप्ताह, हर महीना और वर्ष सामाजिक+सांस्कृतिक+आर्थिक+ राजनैतिक झटके महसूस होते रहे हैं। इसी दौर में हंगामेदार प्रवृत्तियों -दृश्यों का सैलाब आया : नया भारत, पहली बार संस्कृति का विस्फोट, पोस्ट ट्रुथ मीडिया (गोदी मीडिया) व पोस्ट ट्रुथ पॉलिटिक्स (दरबारी राजनीति), नोटबंदी, कांग्रेस व विपक्ष मुक्त भारत, एक ही दिन में 140+ सांसदों का निलंबन (2023), भाजपा उर्फ़ वाशिंग मशीन, हरेक के खाते में 15 लाख, 100 दिनों में कालेधन की वापसी, श्वेतपोश लुटेरों का देश से पलायन, किसानों की दुगनी आय; जय श्रीराम, वोट जेहाद, लव जेहाद, उन्मादी गौ रक्षक, भीड़ हिंसा, गौ मांस का विरोध, हिंदुत्व व हिन्दू धर्म खतरे में है, गंगा बनी शव वाहिनी, ताली- थालियां बजाओ -कोविड भगाओ, समाज का ध्रुवीकरण व बहुसंख्यकवाद, मस्ज़िद उखाड़ो मंदिर तलाशो, बुलडोज़र न्याय, श्मसान बनाम कब्रिस्तान, कपड़ों से पहचान, मंगल सूत्र छीन लेंगे व पशु चुरा लेंगे, उद्घाटन संस्कृति, अयोध्या में रामजन्म भूमि मंदिर का उदघाटन व लाखों दीपों का उत्सव, केरल : मिनी पाकिस्तान (बीजेपी मंत्री नीतेश राणे), सरकारी कृपा पर 80+ करोड़ भारतियों का जीवन यापन; फाइल ब्रांड फिल्मों ( कश्मीर फाइल, केरला फाइल, साबरमती फाइल , एक्सीडेंटल प्राईमिनिस्टर, इमरजेंसी आदि) का निर्माण, गुजरात विकास मॉडल, अबकी बार चार सौ पार आदि।

वास्तव में, मोदी राज को सही परिप्रेक्ष्य में समझना है तो गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी के राज (2001-14 ) पर भी नज़र दौड़ानी होगी। वर्ष 2002 में गोधरा त्रासदी हुई, और इसके साथ ही गुजरात जल उठा। राजधानी अहमदाबाद की साम्प्रदायिक हिंसा में हज़ारों लोग मारे गये, अल्पसंख्यक मुस्लिम अधिक मरे। इसके साथी ही मोदी शासन शैली अस्तित्व में आती है। भव्य धूमधाम के साथ वाइब्रेंट गुजरात के आयोजन की शुरुआत हुई।
गुजरात का विकास मॉडल को सामने रखा जाने लगा। मोदी के नेतृत्व में एक ऐसी संस्कृति विकसित होने लगी , जिसमें व्यक्ति, समाज और राज्य की संवेदना- विहीनता की प्रक्रिया उभरने लगती है। 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी जी की अहमदाबाद हिंसा के सन्दर्भ में प्रतिक्रिया थी कि जब कोई कुत्ता या जानवर उनकी कार के नीचे आ जाता है तो दुःख तो होता है। क्या सांप्रदायिक हिंसा में इंसान की हत्या या अग्रिकांड में झुलस कर मर जाने की तुलना किसी वाहन द्वारा पशु के कुचले जाने के साथ की जानी चाहिए?
लेकिन, मोदी जी ने यह हैरतअंगेज तुलना करके संवेदना विहीनता का परिचय दिया। इस प्रतिक्रिया के सन्दर्भ में 18 वीं सदी के फ्रांस की रानी मैरी-एंटोनेट ( लुइस 16 वीं ) की प्रतिक्रिया की याद आ जाती है, जिसने भूखग्रस्त जनता से कहा था कि ‘यदि उसे रोटी नहीं मिलती है तो वह केक खाये।’ यह प्रतिक्रिया राज्य और शासक की सम्वेदनविहीनता को दर्शाती है। जब सम्वेदन विहीनीकरण की प्रक्रिया अस्तित्व में आने लगती है तब राज्य और जनता के बीच दूरी बढ़ने लगती है।
इसके साथ ही नव उभरते समृद्ध वर्गों की संवेदनशीलता भी पथराने लगती है। समाज में सम्वेदनविहीनता और हाशियाकरण की संस्कृति का विस्फोट हो जाता है। समाज में घोर व्यक्तिवाद, आत्मकेंद्रित, आत्ममुग्धता, विलगावपन, चरम स्वार्थीपन, प्रदर्शनीयता व कृत्रिमता, भव्यता, चरम उपभोक्तावाद या भोगवाद, अराजकता जैसी प्रवृतियां फैलने लग जाती हैं। राज्य की हस्तक्षेप धर्मिता सिकुड़ने लगती है। प्रथम व दूसरे महा युद्धों के बाद इन प्रवृत्तियों के शिकार पश्चिमी जगत के समाज रह चुके हैं।
आज भारत को भी वैसी ही नकारात्मक प्रवृत्तियां जकड़ती जा रही हैं। पिछले दस सालों में ये और अधिक आक्रामक हो गई हैं क्योंकि राज्य का बुनियादी चरित्र बदल चुका है (प्रधानमंत्री मोदी, फ्रांस, श्रीलंका तथा अन्य देशों में अदानी के लिए व्यापार की पैरवी करने के विपक्षी आरोपों से घिर चुके हैं। मोदी -अदानी यारी- दोस्ती की गूँज संसद और बाहर जम कर होती रही है।) पहले इसका चरित्र जन कल्याणकारी हुआ करता था (1947- 1991 )। अब मोदी राज में यह ’दलाल’ में रूपांतरित हो चुका है। हालांकि, इसकी शुरुआत राव+ मनमोहन सिंह शासनों में हो चुकी थी। लेकिन, मोदी राज ने इसे एक्सप्रेस ट्रेन से बुलेट ट्रेन की गति में बदल दिया है। यह सोचे बग़ैर कि पटरियां बुलेट ट्रेन के लिए हैं भी तैयार?

मोदी जी की जीवन शैली पर सरसरी नजर डालें तो निरंतर ’थ्रिल’ की अंतर्धारा उसमें बहती हुई मिलेगी; चमकदार पोशाकों का पहनना–उतारना; मोदी नाम की कढ़ाई से बना दस लाख का कोट; कीमती चश्मा व जूते; उदघाटन के लिए सनातनी शैली में तत्पर; झप्पीमार स्वागत; विदेश यात्राओं के लिए व्यग्र( 2014 से दिसंबर,24 तक 73 देशों की 84 यात्राएं); पारसी मंचीय अभिनय शैली में चुनावी भाषण; आत्मरति की मुद्राएं आदि। मुख्तसर में, मोदी जी को सियासी दुनिया का ’शोमैन’।
कहा जाए, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। शायद, इसलिए मोदी राज के लिए ’सूट –बूट की सरकार’ का जुमला प्रचलित हुआ। इसीसे जुड़ा है ‘नमो भारत ट्रैन’ का सिलसिला। यध्यपि, नमो का एक पक्ष धार्मिक भी है, लेकिन वर्तमान में इस शब्द में निहित अर्थ को तलाशा जाए तो नमो= नरेंद्र मोदी भी बनता है। इसी से जुड़ी घटना अहमदाबाद के ‘नरेंद्र मोदी स्टेडियम’ की है। यह दुनिया का सबसे बड़ा क्रिकेट स्टेडियम है। 2020 में प्रधानमंत्री मोदी ने तत्कालीन व वर्तमान खिलंदड़ी अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का इस स्टेडियम में भव्य स्वागत किया था। दोनों नेताओं ने संग संग स्टेडियम का चककर लगाया था।
24 फरवरी 2020 से पहले इसका नाम था’ मोटेरा स्टेडियम’। वैसे यह कभी ‘ सरदार पटेल स्टेडियम’ के नाम से भी जाना जाता था या गुजरात स्टेडियम व मोटेरा स्टेडियम भी कहलाता था। पर, मोदी जी के जीवन काल में ही स्टेडियम का उनके नाम पर नामकरण करना क्या दर्शाता है ? प्रधानमंत्री मोदी इसे रोक भी सकते थे, लेकिन उनकी शोमैनशिप प्रवृत्ति उनपर हावी रही और सरदार पटेल स्टेडियम से ‘नरेंद्र मोदी स्टेडियम’ में परिवर्तित हो गया। एक तरफ मोदी जी पटेल की भव्य एकता आदमक़द मूर्ति लगवाते हैं, वहीं उनके नाम के स्टेडियम को अपने नाम होने से रोक नहीं पाते हैं!

नमो भारत ट्रेन भी उनकी इस प्रवृत्ति की प्रतिछाया है। उनकी इस शोमैनशिप की लुभावनी झलकियों को बनारस में गंगा आरती, काशी विश्वनाथ मंदिर गलियारा उद्घाटन, अयोध्या राम जन्म भूमि मंदिर-उद्घाटन व प्राणप्रतिष्ठा, नये संसद भवन का उद्घाटन, 2019 में अमेरिका में टेक्सास के एनआरजी स्टेडियम में आयोजित मेगा कार्यक्रम में ट्रम्प के साथ मिल कर नारा लगाना ‘अब की बार ट्रम्प सरकार’ (स्टेडियम में भारत वंशियों की बहुतायत थी) जैसे आयोजनों में देखी जा सकती है। इसके अलावा लालक़िले की प्राचीर से लम्बे लम्बे राष्ट्रीय सम्बोधनों में ‘अहम’ का चरम प्रदर्शन भी रहता है। उन्हें अपने बराबर किसी नेता का कंधे -से- कंधे मिला कर चलना भी नापसंद है।
मोदी+ शाह जुगलबंदी पर नज़र डालते हुए मासिक कारवां का दिसंबर,’ 24 का अंक बरबस आंखों के सामने प्रकट हो जाता है।इस अंक में कॉर्पोरेट अंबानी घराने की सार्वजनिक जीवन शैली का तथ्य परक व तर्क संगत चित्रण किया गया है। इस चित्रण में दिखाया गया है कि इस गुजराती वैष्णव वैश्य परिवार के मुखिया मुकेश अंबानी और उनकी पत्नी नीता अंबानी अपनी छवि की सार्वजनिक प्रदर्शनीयता के लिए हमेशा व्यग्र-तत्पर रहते हैं। इसके लिए मीडिया के साथ साथ सांस्कृतिक उपक्रमों का भी प्रचुरता के साथ इस्तेमाल करते हैं।
अम्बानी दंपति चर्चा में बने रहने के लिए खेल संसार में भी खासा नियोजन करते हैं; सीएन एन न्यूज़ 18 व नेटवर्क्स 18 को प्रधानमंत्री मोदी व अन्य राजनैतिक कामों के लिए तैनात रखे जाते हैं; नीता -मुकेश अम्बानी कल्चरल सेंटर की भूमिका अम्बानी परिवार की सौम्य सांस्कृतिक छवि के निर्माण में लगी रहती है; यह सांस्कृतिक केंद्र विशाल व्यापारिक उद्यम -जिओ वर्ल्ड सेंटर के सात हैक्टर के परिसर का हिस्सा है। मीडिया और सांस्कृतिक केंद्र, दोनों शस्त्रों का प्रयोग राजसत्ता के संरक्षण के माध्यम से अम्बानी परिवार के विराट व्यापारिक संसार की रक्षा के लिए किया जाता है।

ज़ाहिर है, देश के शिखर सत्ता पुरुष हैं नरेंद्र मोदी। पिछले दस वर्षों से उनके छवि निर्माण व विस्तार के लिए न्यूज़ 18 अहर्निश तत्पर रहता आया है। इसके साथ ही ‘गोदी मीडिया’ जैसा तिरस्कारपूर्ण तमगा भी अस्तित्व में आ गया। कारवां के खोजपूर्ण व विश्लेषणात्मक लेखों के अनुसार, चैनलों के पत्रकारों पर मोदी जी की हरेक गतिविधि को भव्य व सकारात्मक दिखाने के लिए अक़्सर निर्देश मिलते रहते हैं। यहां तक कि 2024 के लोकसभा चुनावों के एग्जिट पोल के वास्तविक आंकड़ों को भी बदल कर देश के सामने रखा गया। एक सर्वे में तो भाजपा की हार साफ़ थी, लेकिन दबाव के कारण उसे भी बदला गया। दर्शकों को ठगा गया। बाजार भाव भी प्रभावित हुआ। शेयर धारकों के हज़ारों करोड़ रुपये एक ही रात में डूब गये। हैरत और गुस्सा तो इस बात पर है कि एग्जिट पोल के मनवांछित आंकड़ों के प्रसारित होते ही शिखर नेतृत्व ने शेयर खरीदने की सीख दे डाली।
ज़ाहिर है, लोगों को विश्वास हो गया और धारकों ने आनन -फानन में शेयर बेचे-ख़रीदे। लेकिन, दो रोज़ बाद जब वास्तविक चुनाव परिणाम सामने आये और भाजपा की 63 सीटें ( 303 से 240 ) घट गईं , तब हाहाकार फूटा। एक सर्वे एजेंसी का कर्ताधर्ता तो चैनल पर ही पश्चाताप के कारण फूट फूट कर रोने भी लगा। पत्रिका बतलाती है कि अम्बानी के कर्मचारी के अनुसार अम्बानी संस्थान का माहौल ‘ज़हरीला’ है। हर समय उन पर नज़र रखी जाती है। अम्बानी परिसर में एंटिला (अम्बानी निवास ) मैन या टीम सबसे अधिक शक्तिशाली है। एंटिला के लोग कुछ भी करने के लिए तैयार रहते हैं। सबसे दिलचस्प तो यह है कि ऐसे शक्ति संपन्न कर्मचारियों पर भी नज़र रखने के लिए अलग से अदृश्य आंखों की टीम रहती है।
पत्रिका की खोजी रिपोर्ट को पढ़ कर जॉर्ज ऑरवेल के उपन्यास ‘1984 ‘ का कथानक व किरदार याद हो आते हैं। याद करें, जब 2014 में मोदी जी पहली दफा प्रधानमंत्री बने थे तब उनकी कार्यशैली पर ‘बिग बॉस या सुपरमैन ’ का टैग लगा था। राजनैतिक गलियारों में चर्चा रहती थी कि मोदी जी की हज़ार आँखें हैं जिसके दृष्टि घेरे में सभी मंत्री-संत्री और नौकरशाह हैं। वरिष्ठ से वरिष्ठ मंत्री अपने इच्छित व्यक्ति को चपरासी तक नहीं रख सकता है। कोई मंत्री या पार्टी का बड़ा नेता किससे मिलता है, किस पांच सितारा होटल में किसके साथ वह उठा-बैठा, इसकी ख़बर मोदी जी के पास हुआ करती थी।
देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह थे, लेकिन वे भी अदृश्य आंखों के घेरे में थे। इसे लेकर मोदी-सिंह टकराव की ख़बरें भी गलियारों में चहल क़दमी करती रहती थीं। प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) से लेकर भाजपा शासित मुख्यमंत्रियों के कार्यालयों में मोदी जी के विश्वस्त व्यक्ति प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से तैनात हैं। संक्षेप में, कमज़ोर मुख्यमंत्री रखे जाते हैं और उनकी सहायता के लिए मोदी-विश्वासपात्र रहते हैं।
वास्तव में, मुझे मोदी जी के सन्दर्भ में अम्बानी घराने की जीवन शैली का उल्लेख प्रासंगिक लगा। दोनों की जीवन शैलियों में कतिपय आधारभूत साम्यताएं झलकती हैं;1. दोनों की गुजरात पृष्ठभूमि, 2. दोनों छवि -निर्माण के लिए उत्सुक,3. दोनों की पसंद प्रदर्शन प्रियता,4. भव्यता में आस्था, 5. दोनों की भव्य निर्माण प्रियता, 6. दोनों परम धार्मिक और केदारनाथ के उपासक, 7. दोनों एकाधिकारवादी – एक राजसत्ता का उपासक, दूसरा धन सत्ता का, 8. दोनों की पसंद -पोस्ट ट्रुथ मीडिया व पोस्ट ट्रुथ पॉलिटिक्स, 9. दोनों मुक्त अर्थव्यवस्था के पोषक और नैतिक कसौटियों से निश्चिन्त और 10. दोनों आत्ममुग्धता जीवी। चूंकि, मोदी जी प्रधानमंत्री हैं, इसलिए मुकेश व नीता अम्बानी की अपेक्षाकृत उनकी आत्मग्रस्तता अधिक अर्थवान व उल्लेखनीय है।
विश्व के अधिकांश तानाशाह व निर्वाचित अधिनायकवादी नेता इस मनोरोग से पीड़ित रहे हैं या रहते हैं। इस सन्दर्भ में, जर्मनी के हिटलर, इटली के मुसोलिनी, इराक़ के सद्दाम हुसैन, लीबिया के क़द्दाफ़ी,सीरिया के बशर अल असद, रूस के स्टालिन व पुतिन, चीन के झी जिनपिंग, तुर्की के रजब तैयब इर्दगान, नोर्थ कोरिया के किम जोंग उन जैसे राजनेताओं के नाम उल्लेखनीय हैं। इस पंगत के काफी करीब नरेंद्र मोदी और डोनाल्ड ट्रम्प को भी समझा जाता है।
मोदी राज द्वारा निर्मित संवेदनहीन सांस्कृतिक वातावरण का ही यह परिणाम है कि देश के कतिपय कॉरपोरेटपति ( नारायण मूर्ति व एस. एन. सुब्रहमण्यन स्वामी) उपदेश देते हैं कि विश्व में भारत को नंबर एक बनाने के लिए कर्मचारियों को सप्ताह में 70 घंटे से लेकर 90 घंटे काम करना चाहिए। यह कितना बेहूदा, बर्बर और मध्ययुगीन सुझाव है! क्या कॉरपोरेटपति अपने मुनाफे को घटाने के लिए तैयार हैं?

90 घंटे का सुझाव एक ऐसा व्यक्ति दे रहा है जिसकी वार्षिक पगार 50 करोड़ रुपये से अधिक है। ऐसे लोग श्रम संतानों को 19 वीं सदी में फिर से धकेलना चाहते हैं। वे भूल जाते हैं कि श्रमिक वर्ग को प्रतिदिन 9 घंटे काम और साप्ताहिक अवकाश के लिए कितना कड़ा संघर्ष करना पड़ा था। हज़ारों श्रमिकों ने अपने जीवन का बलिदान दिया था। कल के पूंजीपति शर्मनाक सुझाव दे रहे हैं। ऐसे मनुष्य विरोधी सुझाव देने के लिए मोदी राज द्वारा निर्मित वातावरण जिम्मेदार है।
राजनैतिक शासकों और आर्थिक जारों की कार्यशैली को देखते हुए लगने लगा है कि ये लोग इससे बेपरवाह हैं कि किस वर्ग का हाशियाकरण हो रहा है और कौन भूख की खंदक में गिर रहा है? इन दोनों वर्गों को अपनी सत्ता और धन-सम्पदा की परवाह है। इनकी प्राथमिकता में आमजन ख़ैरात पर जीते रहें, इनकी चिंता इस सीमा तक सीमित है। लेकिन, यह विशाल मानवता इन वर्गों के लिए जीतोड़ श्रम करती रहे, और दौलत का उत्पादन करती रहे, इसके प्रति ये वर्ग अहर्निश फिक्रमंद हैं!
(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)
जारी…
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