Wednesday, April 24, 2024

‘आंदोलन से ही निकले और आंदोलन में विलीन हो गए अरुण’

नई दिल्ली। वो अजातशत्रु थे। आंदोलन से ही पैदा हुए और आंदोलन में ही विलीन हो गए। तमाम शहीद किसानों की तरह वह भी हमारे लिए एक शहीद हैं। वह मृदुभाषी थे। सरल थे। उनका अपनापा हर किसी को भाता था। बड़े को भाई साहब और छोटे को अपने स्तर पर लाकर खड़ा करके बात करने की उनकी कला किसी को भी अपनी ओर खींच लेती थी। अनायास नहीं एक मुलाकात में ही हर कोई उनका मुरीद हो जाता था। अद्भुत शख्सियत के मालिक थे। व्यक्तित्व में अजीब किस्म का चुंबकत्व। क्या छोटा, क्या बड़ा, क्या गरीब, क्या अमीर हर किसी के साथ एक ही स्तर पर संवाद की कला में वो माहिर थे। अपनी वैचारिक जमीन पर दृढ़ता से खड़े रहते हुए समन्वय और विस्तार की उनमें असीमित क्षमता थी। ये बातें कल दिल्ली स्थित गांधी शांति प्रतिष्ठान में वरिष्ठ पत्रकार अरुण पांडेय के लिए तमाम वरिष्ठ और मूर्धन्य पत्रकारों और वक्ताओं ने कहीं।

बलिया के रास्ते इलाहाबाद और फिर लखनऊ से दिल्ली के आखिरी पड़ाव के उनके सैकड़ों सहयात्री कल गांधी शांति प्रतिष्ठान में एकत्रित हुए। ये कोई जबरन बुलाए गए लोग नहीं थे। ये सभी खुद अपने पैरों से चलकर अपने प्यारे, मित्र, दोस्त, कॉमरेड, हमसफर, हमराह अरुण को श्रद्धांजलि देने आए थे। पूरा आयोजन और उसमें बातचीत से लग रहा था जैसे यह आयोजकों का नहीं बल्कि सभी भागीदारों का अपना खुद का आयोजन है। बीच रास्ते में ही साथ छूट जाने का गम सभी के चेहरों पर झलक रहा था। अनायास नहीं वरिष्ठ पत्रकार अजीत अंजुम ने कहा कि “अभी दो साल पहले मेरे पिता जी का निधन हुआ है। और अरुण जी को गए डेढ़ साल हुए हैं। लेकिन मुझे पिता जी से ज्यादा अरुण की याद आती है। और उनका असमय जाना खलता है। बार-बार अरुण मेरी यादों में आ जाते हैं। जैसे मैंने क्या खो दिया। उनके जाने के बाद जीवन में एक स्थाई अधूरापन आ गया है। हम लोगों ने कई सपने देख लिए थे लेकिन उनके जाने के बाद सब कुछ अधूरा रह गया।”

अरुण पांडेय एक आंदोलन की पैदाइश थे। वह छात्र आंदोलन की उस धारा से निकले थे। जिसने कुर्बानी और बलिदान की नई इबारत लिखी थी। जिसने बताया था कि मनुष्य क्या होता है और उसकी मनुष्यता क्या होती है। जिसने जीवन के बुनियादी फ़लसफ़े की वो शिक्षा सड़क पर दी थी जो कहीं किसी क्लास रूम में नहीं मिलती है। उसने बताया था कि किसी भी जिंदा और सार्थक मानव जीवन का समाज से 10 लेने पर 100 वापस लौटाने का कर्तव्य बनता है। वह सरोकार को ही जीवन मानती है। अरुण पांडेय ने यह सबक जीवन भर याद रखा। अनायास नहीं पत्रकारिता में आने के बाद उन्होंने हस्तक्षेप जैसा मंच चुना जिसने न केवल पत्रकारिता के नये मानदंड स्थापित किए बल्कि डंकल से लेकर तमाम जरूरी मौकों पर वैचारिक अभियान चलाकर पत्रकारिता को आंदोलन का हिस्सा बना दिया।

उनके भीतर एक एक्टिविस्ट हमेशा जिंदा रहता था। और अनायास नहीं जब मौका आया या फिर जरूरत पड़ी तो वह सड़कों पर उतर गए। बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद प्रभाष जोशी के साथ देश भर में जगह-जगह गोष्ठियां करके उन्होंने लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के सामने आने वाले खतरों के प्रति लोगों को आगाह किया। और फिर जब किसानों का आंदोलन खड़ा हुआ तो वह अजीत अंजुम के साथ बॉर्डर से लेकर बंगाल तक की खाक छान रहे थे। वरिष्ठ पत्रकार अरुण कुमार त्रिपाठी ने उनके इस व्यक्तित्व को बेहतरीन तरीके से सूत्रबद्ध किया जब उन्होंने कहा कि “अरुण आंदोलन में ही पैदा हुए और आंदोलन में ही विलीन हो गए। और आंदोलन में शहीद हुए तमाम किसानों की तरह वह भी हमारे लिए एक शहीद हैं। वह पत्रकारिता को एक उपकरण के तौर पर देखते थे। और उसे वह दुरुस्त कर रहे थे।” उन्होंने कहा कि यह बहुत डरावना समय है। नवउदारवाद के खिलाफ जो भी आंदोलन था उसमें मैं और अरुण साथ होते थे। इस मौके पर अरुण त्रिपाठी ने अभय दुबे के संपादकत्व में आयी सात किताबों का जिक्र भी किया। जिसमें ज्योति बसु पर अरुण पांडेय ने और कल्याण सिंह और मेधा पाटेकर पर खुद उन्होंने एक-एक किताब लिखी थी।

सभी के एक साथ विमोचन की तैयारी के सिलसिले में वीपी सिंह के घर पर हुई बैठक का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया कि परिचय के दौरान जब अरुण पांडेय की बारी आयी तो वीपी सिंह ने कहा कि पांडेय जी का परिचय मत कराइये हम इन्हें इलाहाबाद से जानते हैं ये तो हमारे घर के आदमी हैं। और पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर बलिया के होने के नाते सचमुच में उनके घर के ही थे। और यही कारण है कि 3, साउथ एवेन्यू (चंद्रशेखर का घर) जाने के लिए अरुण पांडेय को कभी कोई परिचय नहीं देना पड़ता था। उन्होंने लखनऊ के दौर की उनसे मुलाकातों की अपनी यादें लोगों से साझा कीं।

अरुण पांडेय के जीवन को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है। एक पत्रकारिता और दूसरा छात्र कार्यकर्ता। वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश ने अपनी बात इलाहाबाद में उनके साथ बिताए छात्र जीवन के दौर पर केंद्रित किया। उन्होंने कहा कि “लोगों को जोड़ने और चीजों को परखने की उनमें अद्भुत क्षमता थी। और फिर बगैर लाग-लपेट के सब कुछ सामने रख देना कोई उनसे सीखे”। छात्र संघ चुनावों में उनकी उल्लेखनीय भूमिका के लिए उन्होंने याद किया। उन्होंने कहा कि वह सचमुच में अजातशत्रु थे जिसका कोई दुश्मन नहीं था। उन्होंने कहा कि प्रतिबद्धता, त्याग और बलिदान के मामले में वह एक नजीर थे।

वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी ने उनसे अपनी पहली मुलाकात का जिक्र करते हुए बताया कि यह कोई 2003-04 की बात रही होगी प्रभाष जोशी अरुण पांडेय के कंधे पर हाथ रख कर कहे कि इनसे मिलिए ये हैं अरुण पांडेय। मेरे यह पूछने पर कि क्या कॉमरेड हैं? उन्होंने कहा कि नहीं, अच्छे इंसान हैं। अब प्रभाष जोशी को उनकी वैचारिक पृष्ठभूमि के बारे में पता नहीं था या फिर वह छुपाना चाह रहे थे ये तो वो ही जानते होंगे। लेकिन जिस इंसान और इंसानियत की बात वह कह रहे थे वह उसी कॉमरेडाना पृष्ठभूमि से पैदा हुई थी जिसको वह ऊपर अपने तरीके से खारिज कर रहे थे। बहरहाल इसके साथ ही पुण्य प्रसून ने अरुण जी के साथ फोन पर बातचीत के कई वाकयों का जिक्र किया। उन्होंने बताया कि जब सहारा ज्वाइन कर रहा था तो उनसे बात हुई तो उन्होंने पूछा था कि चैनलों में भूत-प्रेत के इस दौर में क्या आप कुछ कर पाएंगे? तो मैंने कहा था कि वहां मैं खुद फैसला लेने की स्थिति में रहूंगा इसलिए ज़रूर इसकी संभावना ज्यादा है।

सभागार में मौजूद हर शख्स के यादों की पोटली में अरुण जी के लिए कुछ खास था। पूर्व सांसद और वरिष्ठ पत्रकार संतोष भारतीय ने अरुण पांडेय के साथ अपने रिश्तों का जिक्र करते हुए कहा कि जब भी कोई छोटी-बड़ी राजनीतिक घटना हो तो अरुण फोन कर मिलने आ जाते थे। और उनसे घंटों बातचीत होती थी। उन्होंने कहा कि अरुण का व्यक्तित्व इतना सरल था कि उसकी तारीफ किए बिना कोई नहीं रह सकता था। मुझे याद है जब इस तरह के मौके पर हम उनकी तारीफ करते थे तो वह ‘अरे भाई साहब आप भी’….कहकर रोकने की कोशिश करते थे। उनका यह अंदाज आज भी कभी-कभी जेहन में घूम जाता है। उन्होंने कहा कि ऐसा मिलनसार शख्स मैंने नहीं देखा। जिससे बात करे वह अपना हो जाए। उन्होंने कहा कि वह कभी समझौता नहीं करते थे। बाद के दौर में उनका इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से मोहभंग हो गया था। वह लगातार कुछ नया करने और बदलने के लिए तत्पर रहते थे।

हस्तक्षेप को जितना अरुण पांडेय ने गढ़ा था उतना ही वह उनके व्यक्तित्व का भी हिस्सा हो गया था। और उन्हीं हिस्सों में शामिल थे उनके सहकर्मी। हस्तक्षेप के उनके अनन्य सहयोगी दिलीप चौबे जो इस पूरे आयोजन के भी केंद्र में थे, ने कहा कि पिछले 25 सालों में रोजाना 10 घंटे का साथ था। शायद ही किसी एक शख्स के साथ मैंने इतना समय बिताया हो। अनायास नहीं संचालक प्रेम प्रकाश ने उनका परिचय देते हुए कहा कि कहीं दिलीप दिख जाएं तो अरुण की वहां होने की गारंटी थी। एक के बगैर दूसरा अधूरा था। दिलीप चौबे ने अरुण की पत्रकारिता और उसके प्रति उनके दृढ़ संकल्प का एक उदाहरण देते हुए बताया कि एक बार हस्तक्षेप का पेज तैयार हो गया था उसे दिखाने के लिए एक कनिष्ठ सहयोगी अखबार के तत्कालीन संपादक के पास गया। पेज देखते ही संपादक ने उसे यह कहते हुए फेंक दिया कि इसमें चित्र कहां है? और बगैर चित्र के इसको कौन पढ़ेगा?

कुछ देर बाद अरुण पांडेय वही पेज लेकर संपादक के केबिन में घुसे और उनसे बोले कि आप की हस्तक्षेप को इस तरह से फेंकने की हिम्मत कैसे पड़ी? आप जानते हैं इस दो पन्ने को तैयार करने के लिए हम सातों दिन चौबीसों घंटे दिमाग खपाने के साथ ही अपना कितना खून-पसीना बहाते हैं। तब यह निकलकर सामने आता है। आपको चित्र ही देखने का शौक है तो अपना बंद पड़ा कंप्यूटर खोल लिया करिए और शाम सात बजे तक का इंतजार करिए जब तक फाइनल ले आउट बन कर तैयार न हो जाए। उसमें चित्र समेत सब कुछ होगा। उन्होंने कहा कि यह हिम्मत अरुण पांडेय ही कर सकते थे। जबकि ऐसा करने के बाद उनकी नौकरी भी जा सकती थी। लेकिन उन्होंने इसका खतरा मोल लिया।

इस मौके पर उनके हस्तक्षेप के दौर की सहयोगी फरहत रिज़वी ने अपनी यादों को साझा किया। उन्होंने कहा कि अरुण के साथ प्रोफेशन से लेकर परिवार तक का रिश्ता था। शादी से पहले और शादी के बाद कई बार उनके घर पर जाना हुआ।

इस मौके पर कई शेरों और मुहावरों का भी जिक्र हुआ। निदा फाजली का शेर ‘हर एक आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी, जिसको भी देखना हो कई बार देखिए’ का कई पत्रकारों ने जिक्र किया। लेकिन सभी ने अरुण के मामले में इसको खारिज किया। वरिष्ठ पत्रकार और संपादक राम कृपाल सिंह ने कहा कि मेरी मुलाकात जनसत्ता सोसाइटी में होती थी और उनसे घंटों-घंटा बात होती थी। उन्होंने कहा कि मैंने कभी उनको उदास नहीं देखा। लेकिन वो ऐसी उदासी देकर चले जाएंगे यह कभी सोचा नहीं था। उन्होंने कहा कि असहमति के अधिकार को मुस्कराते हुए इस तरह से प्रकट करते थे कि सामने वाले को बुरा भी न लगे और वह समझ भी जाए। उन्होंने कि वह मूल्यों के प्रति अडिग थे।

गांधीवादी कुमार प्रशांत ने कहा कि कुछ लोग अपने पूरे दौर को देखते हैं और फिर उसे लेकर चले जाते हैं। अरुण उन्हीं में से एक थे। मौजूदा दौर की पत्रकारिता घटनाओं की रिपोर्टिंग तक सीमित हो गयी है। जबकि अरुण पांडेय पुराने दौर के पत्रकार थे और उनमें एक संपूर्णता थी।

संचालक प्रेम-प्रकाश ने ‘अपने-अपने गांधी’ के हवाले से कहा कि सबके ‘अपने-अपने अरुण’ हैं। जीवन के अलग-अलग रास्तों और मोड़ों पर मिले लोगों के अपने निजी अनुभव यही बता रहे हैं।

इस मौके पर उनके दो घनिष्ठ साथियों प्रोफेसर आनंद प्रधान और वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ श्रीवास्तव ने अपने निजी अनुभव साझे किए। आनंद प्रधान ने अपने छात्र जीवन के साथ बिताए दौर को याद किया। उन्होंने बताया कि पीएसओ में रहते हुए किस तरह से उन्हें लखनऊ विश्वविद्यालय में संगठन खड़ा करने की जिम्मेदारी दी गयी और फिर उसी दौरान पहले राज्य सम्मेलन की जिम्मेदारी और उसके केंद्र में वह थे। बीएचयू छात्रसंघ में संगठक के तौर पर उनकी केंद्रीय भूमिका को उन्होंने याद किया। उन्होंने कहा कि वह एक टीम बिल्डर थे। उन्होंने वैचारिक और प्रतिबद्ध पत्रकारों की एक टीम तैयार की। वह एक संस्था के निर्माता थे। उनमें एक बेचैनी थी। पुराने छात्र दिनों के जीवन को नये दौर से जोड़कर वह कुछ नया पैदा करना चाहते थे।

अमिताभ श्रीवास्तव ने लखनऊ से शुरू हुए अपने याराने का दिल्ली के न्यूज़ रूमों तक बरकरार रहने की पूरी कहानी बतायी। उन्होंने कहा कि उनके हस्तक्षेप के दौर में मैं जनरल डेस्क पर था और फिर कई बार होता था कि वह किसी का इंटरव्यू लेने के लिए मुझे साथ ले लेते। इसी तरह के एक वाकये का जिक्र उन्होंने हंस के तत्कालीन संपादक राजेंद्र यादव से साक्षात्कार का किया। जब उनसे सेक्स और मोरल्टी पर इंटरव्यू करना था। उन्होंने बताया कि किस तरह से पहले बेहद औपचारिकताओं के साथ शुरू हुआ वह साक्षात्कार शराब और नाश्ते के साथ एक प्रक्रिया में अनौपचारिक हो गया। कुछ पता ही नहीं चला। उनके अनन्य सहयोगी विमल झा ने भी उनके साथ की अपनी यादों को साझा किया।

संचालक प्रेम प्रकाश ने अपनी आखिरी टिप्पणी में कहा कि अरुण की पूरी अस्थि मज्जा को एक जगह स्थिर किया जाए तो उसका रूप जनवादी होगा। एक जनवादी, जुझारू और प्रतिबद्ध पत्रकार।

समापन भाषण कॉ. अवधेश सिंह ने दिया जो अरुण पांडेय की इस ताजी किताब ‘स्मृतियों के आईने में’ के सह संपादक हैं। उन्होंने अरुण पांडेय की शहादत के साथ ही इस दौर में जेलों में बंद बुद्धिजीवियों और कार्यकर्ताओं का भी जिक्र किया। धन्यवाद संबोधन में वरिष्ठ पत्रकार और अरुण जी के छात्र जीवन के सहयोगी राम शिरोमणि शुक्ला ने अरुण पांडेय की याद में संवाद श्रृंखला शुरू करने के दिलीप चौबे के प्रस्ताव को एक बार फिर दोहराया। उन्होंने कहा कि इसको संस्थाबद्ध किए जाने की जरूरत है।

इस पूरी बातचीत के दौरान अखिलेंद्र प्रताप सिंह, रामजी राय और लाल बहादुर सिंह जैसे उनके पुराने सहकर्मियों का बार-बार जिक्र हुआ। पत्रकार और कवि अजय सिंह जो खुद सभागार में मौजूद थे, लखनऊ से जुड़े लोगों ने उनका कई बार नाम लिया। इसके अलावा सभागार में दलित शिक्षा आंदोलन के सूत्रधार रहे चंद्रभान प्रसाद, प्रोफेसर गोपाल प्रधान, वरिष्ठ पत्रकार और अरुण जी के छात्र दिनों के सहयोगी चंद्रभूषण, वरिष्ठ पत्रकार अवधेश कुमार, सीपीआई (एमएल) की केंद्रीय समिति के सदस्य राजेंद्र प्रथोली, वरिष्ठ पत्रकार तारिक नासिर, वरिष्ठ पत्रकार शाहिद अख्तर, वरिष्ठ पत्रकार अमलेश राजू, वरिष्ठ पत्रकार कृष्ण सिंह, वरिष्ठ पत्रकार संजय काक, कांग्रेस नेता और उनके पुराने सहयोगी पंकज श्रीवास्तव, बचपन बचाओ आंदोलन के निदेशक ओम प्रकाश पाल, कवयित्री शोभा सिंह, पत्रकार राजेश अभय, उनके पुराने सहयोगी मनोज सिंह, न्यूज़ क्लिक हिंदी के संपादक मुकुल सरल, हिम्मत सिंह और अखिलेश कुमार आदि मौजूद थे।

इस पूरे आयोजन के पीछे एक चेहरा था जो वहां मौजूद नहीं था लेकिन उसकी हर जगह उपस्थिति थी। वह थीं कुमुदिनी पति जो अरुण पांडेय की मौजूदा किताब ‘स्मृतियों के आईने में’ की संपादक हैं। महिला एक्टिविस्ट और इलाहाबाद के उनके छात्र जीवन के दिनों की सहयोगी कुमुदिनी पति ने उनकी किताब के संपादन का पूरा कार्यभार न केवल अपने कंधों पर लिया बल्कि उसे अवधेश सिंह के साथ मिलकर सफलता की मंजिल तक पहुंचाया। किताब में अधूरा ही सही किसान आंदोलन पर लिखा गया उनका वह हिस्सा है जिसे वह किसान आंदोलन को जमीन पर उतर कर देखने के बाद लिखे थे। दस्तावेज के तौर पर अरुण पांडेय की पत्नी सुनीता पांडेय (पुतुल) ने इसे कुमुदिनी पति को मुहैया कराया था।

इसके अलावा इस किताब में उनके साथ काम करने वाले पत्रकारों और सहयोगियों के संस्मरण दिए गए हैं। 170 के करीब पृष्ठों वाली इस किताब के आखिर में हस्तक्षेप की कुछ प्रतियों, उनकी किताबों और उनसे जुड़े कुछ छाया चित्र दिए गए हैं। इसके पहले अरुण जी की फोटो पर पुष्पांजलि और फिर उसके बाद किताब के विमोचन के साथ कार्यक्रम की शुरुआत हुई। विमोचन में तमाम वरिष्ठ पत्रकारों और संपादकों के साथ उनकी पत्नी पुतुल भी शामिल हुईं।

(जनचौक के संपादक महेंद्र मिश्र की रिपोर्ट।)

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