पिछले हफ्ते के सोमवार को केंद्रीय पर्यटन राज्य मंत्री प्रह्लाद सिंह पटेल ने कहा कि एएसआई जिन ऐतिहासिक महत्व की इमारतों की देखभाल करता है, उनमें से 321 में अतिक्रमण हो चुका है। इससे भी गंभीर बात यह कि एएसआई के पास देश भर में जो 3691 स्मारक हैं, उनमें से 24 तो गायब हो चुके हैं। इसके दो दिन पहले ही पर्यटन राज्य मंत्री ने यह भी बताया कि देश भर में संरक्षित स्मारकों में से कई के आस-पास अब विकास कार्यों को मंजूरी दी जाएगी और इसके लिए एएसआई से रिपोर्ट मांगी गई है।
अभी कानून है कि संरक्षित इमारत की सीमा के सौ मीटर तक और सीमा से बाहर दो सौ मीटर तक कोई निर्माण कार्य नहीं हो सकता। दो साल पहले इस कानून में यह परिवर्तन लोकसभा से पास करा लिया गया था कि सौ से दो सौ मीटर की सीमा समाप्त कर दी जाए। यह परिवर्तन अभी राज्यसभा में लंबित है, इसके बावजूद पांच सौ शहरों में मौजूद 70 हजार स्मारकों का लेआउट प्लान भी तैयार हो चुका है। यानी वह दिन अब बहुत दूर नहीं, जब हमारा इतिहास सरकारी अतिक्रमण का शिकार होकर मिट जाएगा।

भारत में ऐतिहासिक महत्व के स्मारकों की बात करें तो पश्चिम में सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर पूरब में महान अहोम साम्राज्य की निशानियां फैली हुई हैं। सिंधु घाटी सभ्यता की तलाश सन 1921 से शुरू होकर अभी तक चल ही रही है। पिछले दिनों हरियाणा के राखीगढ़ी में मिले हड़प्पाकालीन कंकाल से पता चला कि उसमें आर1ए1 जीन नहीं है, जिसे कि मध्य एशिया का जीन माना जाता है।
कच्छ के सुरकोटड़ा, जम्मू के मांडा, कुरुक्षेत्र के भगवानपुरा, सहारनपुर के हुलास और हरियाणा के मीताथल सहित दर्जनों साइट्स में इतिहास पर यह शोधकार्य लगातार चल ही रहे हैं। दो साल पहले लेह-लद्दाखकी त्सो-मोरीरी झील की तलछट जांचकर वैज्ञानिकों ने बताया था कि सिंधु घाटी की तबाही की वजह नौ सौ साल लंबा चला वह सूखा था, जिसका जिक्र हमें किसी वेद-पुराण में भी नहीं मिलता।

यह तो रही प्राचीन इतिहास की बातें। ऐसी भी चीजें हैं जो हमारे समसामयिक इतिहास से जुड़ी हैं और अभी अलिखित ही हैं। उत्तर प्रदेश में देश भर में सबसे ज्यादा 745 संरक्षित स्थल हैं। इसी प्रदेश में सन 1857 की अनगिनत कब्रें, मजारें और समाधियां हैं जो मेरठ, मुरादाबाद से लेकर लखनऊ, कानपुर और फैजाबाद तक बिखरी हुई हैं। ये सभी हमारे जंग-ए-आजादी के शुरुआती नायक हैं, जिनकी पहचान अभी बाकी है और उनकी पहचान कर उन्हें हमारे इतिहास सही मुकाम तस्लीम करना महज इतिहासकारों का ही काम नहीं है, यह हम सभी का काम है और कर्ज भी ।
बीती फरवरी में संस्कृति मंत्रालय ने एएसआई को दिल्ली में दाराशिकोह की कब्र तलाशने को कहा था। यह कब्र हुमायूं के मकबरे में मौजूद 140 कब्रों में से एक है, लेकिन अभी तक एएसआई इनमें से दाराशिकोह की कब्र नहीं पहचान पाई है। एक दाराशिकोह ही नहीं, अभी ऐसी हजारों कब्रें हैं, जिनमें सोए लोगों की पहचान अभी बाकी है। केंद्रीय पर्यटन राज्य मंत्री प्रह्लाद सिंह पटेल ने यह भी कहा कि पुरातत्व अधिनियम में होने वाले इस परिवर्तन से ताज महल तो नहीं, लेकिन इस तरह की अधिकतर कब्रों, मजारों और समाधियों के आस-पास विकास कार्यों के लिए मंजूरी मिल जाएगी।

1870 में जब कोई सिंधु घाटी और हड़प्पा की सभ्यता के बारे में जानता भी नहीं था, तब जॉन और विलियम ब्रंटन को लाहौर से कराची तक रेल लाइन बिछाने का ठेका मिला था। तब इन ब्रंटन बंधुओं ने हड़प्पाकालीन ईंटों को इस रेल लाइन में चुनवा दिया था। इतिहासकार स्टुअर्ट पिगॉट ने अपनी किताब प्रीहिस्टॉरिक इंडिया में लिखा है कि ईंटों की इस लूट में कई तरह के पुरावशेष मिले, जिनमें से जो कुछ भी सुंदर था, वहां मौजूद हर किसी ने लूट लिया। तब यह लूट विकास कार्यों के बहाने ही हुई थी।
तबसे अब तक के डेढ़ सौ साल के वक्फे में राजस्थान के घग्घर तट का कालीबंगा हो, गुजरात का काठियावाड़ या कच्छ का धौलावीरा हो, सुरेंद्रनगर के रंगपुर के टीले हों या उत्तर प्रदेश में सहारनपुर और बुलंदशहर के गंगा के किनारे हों, यहां से लगातार ऐतिहासिक सबूतों का मिलना और उनकी लूट-खसोट जारी है। गूगल न्यूज पर हिंदी में कीवर्ड- मूर्ति तस्कर डालकर सर्च करने पर आधे मिनट से कम में बीस हजार से भी अधिक रिजल्ट हमारे सामने होते हैं।

मामला लूट-खसोट तक ही निपट जाए तो भी गनीमत है, मगर ऐसा है नहीं। अकेले आगरा में ढाई सौ के आसपास संरक्षित स्थल हैं, जिनमें से तीन चार को छोड़कर बाकियों की सुध एएसआई भूलकर भी नहीं लेती। फैजाबाद में बहू बेगम का मकबरा संरक्षित है जिसमें एक राजनीतिक पार्टी ने अपना दफ्तर बना रखा है तो मकबरे के अंदर रिहाइश है। खजुराहो से लेकर नालंदा तक बिखरी ऐतिहासिक धरोहरों पर लोग अपने ढोर-डांगर चराते हैं और कुछ काम का दिखता है तो फिर वह कहीं विदेश में किसी के ड्राइंग रूम में सजा दिखता है।
खुद पर्यटन राज्यमंत्री ने इसी हफ्ते संसद में ऐतिहासिक धरोहरों के चोरी होने की बात स्वीकारी है, लेकिन असल में कितनी धरोहरें पार हो चुकी हैं, यह मंत्री महोदय को भी नहीं पता और यह बात भी उन्होंने संसद में स्वीकार की है। पुरातत्व कानून में परिवर्तन करके स्मारकों के आस-पास जिस तरह के विकास कार्यों की बात सरकार कर रही है, अगर एक बार वह हो गए तो इतिहास पर कंकरीट की ऐसी धूल चढ़ेगी, जिसे साफ करना शायद नामुमकिन होगा।

बहुत सारे इतिहासकार भी इस मसले को लेकर चिंतित हैं और तीन साल पहले जब हमारे पुरातत्वों से छेड़छाड़ करने वाला यह अमेंडमेंट लोकसभा से पास हुआ था, तब पचास से अधिक प्रख्यात इतिहासकारों ने इसका विरोध किया था। इन इतिहासकारों में रोमिला थापर, इरफान हबीब आदि शामिल हैं।
(यह लेख राइजिंग राहुल ने लिखा है।)
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