Tuesday, April 23, 2024

कार्ल मार्क्स जयंती: यह दुनिया बदली जा सकती है

भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) इंदौर ने 5 मई 2023 को कार्ल मार्क्स की जयंती को एक अभिनव अंदाज़ में मनाया। कार्ल मार्क्स और उनकी लिखी विश्व प्रसिद्ध किताब “पूंजी” (जिसे जर्मन भाषा में ‘दास कैपिटल’ कहते हैं) के साथ ही कार्ल मार्क्स के विशिष्ट दर्शन मार्क्सवाद की कुछ प्रमुख बातों का परिचय दिया।

चूंकि 5 मई को ही बुद्ध पूर्णिमा भी थी और सोशल मीडिया पर इस आशय के लेख बुद्ध बड़े या मार्क्स वायरल हो रहे थे, तो इस मौके पर स्मृतिशेष कॉमरेड इन्दु मेहता का एक पत्र जो 1980 के दशक में प्रकाशित हुआ था, पढ़कर सुनाया गया। पत्र में उन्होंने लिखा था कि बुद्ध और मार्क्स की तुलना करना ग़लत है। दोनों के समय में दो हज़ार बरस का अंतर है। बुद्ध और मार्क्स, दोनों के ही योगदान अपनी-अपनी तरह से अप्रतिम है। किसी एक को बड़ा बताने के लिए किसी दूसरे को छोटा करना ज़रूरी नहीं। मार्क्स के पहले भी अनेक दार्शनिक हुए जिन्होंने दुनिया के बारे में अपनी व्याख्यायाएं की हैं लेकिन मार्क्स वो पहले दार्शनिक थे जिन्होंने कहा था कि इसे बदला भी जा सकता है।

कार्ल मार्क्स

इसके उपरान्त चार्ली चैपलिन की प्रसिद्ध फ़िल्म “मॉडर्न टाइम्स” का प्रोजेक्टर द्वारा प्रदर्शन किया गया। यह फ़िल्म 1936 में चार्ली चैपलिन द्वारा बनायी गई थी और बेहद हास्यास्पद दृश्यों के ज़रिये चार्ली चैपलिन ने उस समय यूरोप में फैली भयानक बेरोज़गारी, ग़रीबी, भुखमरी के बरअक्स उद्योगों में होने वाले मज़दूरों के भीषण शोषण, अतिउत्पादन और मज़दूरों के संघर्ष और जिजीविषा को फ़िल्म में प्रभावी तरह से अभिव्यक्त किया है। फ़िल्म का पहला दृश्य ही जानवरों की एक दिशा में भागते झुंड का है जिसके तुरंत बाद उसी दिशा में भागते इंसानों की भीड़ दिखने लगती है। इस तकनीक को मोंटाज कहते हैं और इसके ज़रिये फिल्मकार बताता है कि मॉडर्न कहे जाने वाले इस समय में इंसान को जानवर तक घटा देने की कोशिशें चल रही हैं।

चार्ली चैपलिन की प्रसिद्ध फ़िल्म मॉडर्न टाइम्स

निशा ने फिल्म को बेहद प्रभावी और कसी हुई बताया। रेहान और साजिद ने फ़िल्म में ग़रीबी और हास्य के चित्रण को बहुत असरदार बताया और अंत को उम्मीद से भरा बताया। अथर्व ने कहा कि फिल्म पूरी होने पर यह एक बहुत सकारात्मक असर छोड़ती है। तौफीक ने मज़दूरों को खाना खिलाने के लिए अविष्कृत की गई मशीन के दृश्य को याद करते हुए बताया कि मज़दूर को ख़ुद के लिए कम से कम समय मिले और अधिकतर समय वो अपने आपको मालिक के मुनाफ़े की भेंट चढ़ाता रहे। फिल्म के हास्य में छिपे दुःख और करुणा के सन्देश की ओर ध्यान खींचा।

अरविन्द जैन ने फिल्म को पूंजीवादी व्यवस्था में अनिवार्य तौर पर शामिल मुनाफ़े के संकट, जो अंततः इंसानियत को ही संकट में डाल देता है, पर एक तीखी टिप्पणी बताया। वर्षों पहले देखी गई इस फिल्म को देखकर ऐसा नहीं लगता कि यह इतनी पुरानी फिल्म है क्योंकि आज भी हालात काफी मिलते-जुलते हैं। सारिका ने फिल्म पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि ग़रीबों के भीतर भी अमीरी को देखकर अमीर बनने की इच्छा जागती है, इस मानसिकता को भी यह फिल्म बख़ूबी बयान करती है।

आदेश तिखे ने कहा कि फ़िल्म पूंजीवाद पर बेशक सवाल खड़े करती है लेकिन क्या समाजवाद में जो हुआ, वो सब ठीक था? जवाब में जया मेहता ने कहा कि समाजवादी देशों की प्राथमिकताओं में लोगों को मनुष्य होने के बुनियादी अधिकार देना था ताकि वे भूख से और दया से मुक्त होकर अपना सम्मानजनक जीवन जी सकें। इसमें बहुत हद तक वे देश कामयाब भी रहे। इसके उलट पूंजीवाद की तो संरचना में ही शोषण निहित है। समय को देखते हुए यह तय किया कि आगे जल्द ही इस पर विस्तार से बात होगी।

देवास से सिर्फ कार्यक्रम में भागीदार बनने आये कैलाश सिंह राजपूत ने कहा कि औद्योगिकीकरण ने मज़दूरों के शोषण के नये तरीके ईजाद किए। फिल्म बताती है कि कैसे पूंजीवाद मज़दूरों के शोषण का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहता।

अंत में जया मेहता ने कहा कि यह फ़िल्म किसी भी तरह से मार्क्स या मार्क्सवाद के सम्बन्ध में नहीं है लेकिन इसे एक मार्क्सवादी नज़रिये से देखने के लिए आपको जो दिख रहा है, उसका इतिहास, भूगोल और अन्य सामाजिक राजनीतिक परिस्थितियों का ज्ञान होना चाहिए। उसके बाद उन्होंने पहले विश्वयुद्ध की घटनाओं से लेकर रूस में हुई बोल्शेविक क्रांति, लेनिन की समझ और दूसरे विश्वयुद्ध की परिस्थितियां बनने से पहले दुनिया में आयी भीषण आर्थिक महामंदी का ज़िक्र किया और उस रोशनी में इस फिल्म को गहराई से देखने का सुझाव दिया। उन्होंने मार्क्सवाद के मूल सिद्धांतों में से एक “बेशी मूल्य का सिद्धांत” भी संक्षेप में भागीदारों को बताया।

(विनीत तिवारी एवं विजय दलाल की रिपोर्ट।)

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