Wednesday, April 24, 2024

केपी शशि: अद्भुत रचनात्मक अभिव्यक्ति, बेजोड़ प्रतिबद्धता

सन् 1970 का दशक भारत में लगभग सभी क्षेत्रों में प्रतिरोध के आंदोलनों के उभार के लिए जाना जाता है। इस दशक में मजदूरों और कृषकों के संगठित आंदोलन तो जारी रहे ही साथ ही आदिवासियों, महिलाओं और दलितों ने भी आगे बढ़कर प्रतिरोध की राह चुनी। बड़े बांधों के कारण अपने घर-गांव छोड़ने को मजबूर कर दिए गए आदिवासियों ने विरोध शुरू किया। उत्तर-पूर्व में सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम के खिलाफ आवाज उठी। महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले में मथुरा बलात्कार कांड के बाद महिलाओं का प्रतिरोध आंदोलन और खुलकर सामने आया। फिर सन् 1980 में राम रथयात्रा शुरू हुई और इसके नतीजे में अल्पसंख्यकों के विरूद्ध मेरठ, मलियाना, भागलपुर, मुंबई, सूरत और भोपाल में भयावह हिंसा हुई।

इस पृष्ठभूमि में केपी शशि, जो उन दिनों जेएनयू में पढ़ते थे, ने इस प्रतिरोध आंदोलन में हिस्सेदारी करने का निर्णय लिया। शुरूआत में उन्होंने व्यंग्य और कार्टून को प्रतिरोध का माध्यम बनाया। वे केरल में भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के संस्थापक के. दामोदरन के पुत्र थे। मूलतः शशि एक सह्दय सामाजिक कार्यकर्ता थे जो देश में हो रहे अन्यायों के खिलाफ अपने गुस्से और प्रतिरोध का इजहार करने के लिए माध्यम की तलाश में थे। उन्होंने कुछ समय तक फ्री प्रेस जर्नल में काम किया और अत्यंत प्रभावी ढंग से हास्य रस को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। बाद में उन्होंने डाक्यूमेंट्री फिल्मों को न्यायपूर्ण और मानवीय समाज बनाने के अपने सपने को पूरा करने का मुख्य माध्यम बना लिया। उनकी डाक्यूमेंट्रियों के बारे में बहुत कुछ लिखा जा सकता है। मैं उनकी प्रतिभा का कायल था। उनकी उत्कृष्ट फिल्म ‘अमेरिका अमेरिका’ को मैं भूल नहीं सकता जो अफानिस्तान और ईराक पर हमले की पृष्ठभूमि में साम्राज्यवादी अमेरिका पर अत्यंत तीखा व्यंग्य थी।

उन्हें कई पुरस्कार मिले। वे विबग्योर नामक फिल्म उत्सव के संस्थापक भी थे। परंतु मूलतः वे हमेशा एक सामाजिक कार्यकर्ता बने रहे जिन्हें मजाक-मजाक में तीखी से तीखी बात कहना आता था और जो समाज के वंचित वर्गों के प्रति संवेदना का भाव रखते थे, उनके अधिकारों की रक्षा के प्रति प्रतिबद्ध थे एवं व्यवस्था में व्याप्त अन्याय के खिलाफ अपनी आवाज उठाते थे।

मैं उनके काम के बारे में थोड़ा-बहुत जानता था। यह मेरा सौभाग्य ही था कि मैंने उनसे मेरी पुस्तक ‘कम्युनलिज्मः एन इलस्ट्रेटिड प्राइमर’ के लिए चित्रांकन करने का अनुरोध किया। मुझे उनकी रचनात्मकता और प्रतिबद्धता के बारे में विकास अध्ययन केन्द्र के जरिए पता चला था। विकास अध्ययन केन्द्र ने एक ऐसी पुस्तक तैयार करने में मेरी मदद की थी जो सरल भाषा में आम लोगों को – विद्यार्थियों को, अध्यापकों को, ग्रामीणों को और सब्जी बेचने वालों को – यह समझाती थी कि साम्प्रदायिक राजनीति से किस तरह की परेशानियां और समस्याएं उठ खड़ी होंगी। साम्प्रदायिकता के विघटनकारी चरित्र पर अनेक विद्वान अध्येताओं ने प्रकाश डाला था। परंतु उनके विचारों को आम लोगों तक ले जाने की जरूरत थी। हमें एक ऐसी सचित्र पुस्तक तैयार करना थी जो साम्प्रदायिकता की समस्या की जटिलताओं को नजरअंदाज न करते हुए भी पढ़ने और समझने में आसान हो।

यहीं इस परियोजना में के. पी. शशि का प्रवेश हुआ। उन्होंने पुस्तक की अवधारणा पर मेरे साथ कई घंटों तक चर्चा की और उसके बाद बहुत थोड़े समय में उन्होंने ऐसे शानदार कार्टून तैयार कर दिए जो आपको सोचने पर मजबूर करते हैं – गहराई से सोचने पर। उनके कार्टूनों में जो सबसे अच्छी बात मुझे लगी वह यह थी कि वे बेबाकी से अपनी बात कहते थे और उनका लहजा मजाहिया होता था। मैं उनके योगदान को भुला नहीं सकता। उनके कारण यह किताब अत्यंत प्रभावी और पठनीय बन सकी थी। इस किताब में प्रकाशित उनके कुछ कार्टूनों में से एक में दो कंकाल आपस में बात कर रहे हैं और एक दूसरे से पूछता है कि ‘तुम्हारा धर्म क्या है?’ एक दूसरे कार्टून में हिन्दू, इस्लाम और ईसाई धर्मों के प्रतीक एक-दूसरे के हाथ पकड़कर उत्सव मना रहे हैं। उसके बाद मैं उनके संपर्क में बना रहा और इसमें कोई संदेह नहीं कि उनके साथ जुड़े रहना एक वरदान था।

उनकी एक फिल्म ‘एक अलग मौसम’ जिसमें नंदिता दास और रेणुका शहाणे ने भूमिका निभाई थी, एचआईवी के मरीजों के अधिकारों के उल्लंघन के बारे में थी। उन्होंने ढ़ेर सारी बहुत अच्छी फ़िल्में बनाईं जिनके माध्यम से वे लोगों तक पहुंच सके। उन्हें पर्यावरण की चिंता थी। अंधे पूंजीवादी विकास के कारण लोगों का पलायन उनके सरोकारों में था। वे किसी भी निर्दोष को फंसाए जाने के खिलाफ थे।

उन्होंने कई फिल्म उत्सवों में भाग लिया और ढ़ेर सारे पुरस्कार जीते जिनमें शामिल हैं बेस्ट फिल्म अवार्ड, इंटरनेशनल रूरल फिल्म फेस्टिवल, फ्रांस एवं स्पेशल जूरी प्राईज, इंटरनेशनल एनवायरमेंट फिल्म फेस्टिवल।

उनकी डाक्यूमेंट्रियां दर्शकों के दिलोदिमाग पर गहरी छाप छोड़तीं थीं। फिल्म निर्माता शशि और कार्यकर्ता शशि के बीच अंतर करना मुश्किल था। ‘इलायुम मुल्लुम’ (पत्तियां और कांटे) केरल में महिलाओं के खिलाफ सामाजिक और मनोवैज्ञानिक हिंसा के बारे में है, ‘एक चिंगारी की खोज में’ भारत में दहेज प्रथा से जुड़े मूल्यों पर केन्द्रित है, ‘गांव छोड़ाब नहीं’ भारत के मूल निवासी आदिवासियों को विकास के नाम पर उनके घरों और उनके जंगलों से विस्थापित किए जाने की दिल को हिला देने वाली कहानी कहती है। ‘ए वेली रिफ्यूजिस टू डाई’ नर्मदा नदी पर बांधों के बारे में शुरूआती डाक्यूमेंट्री फिल्मों में से एक है।

कंधमाल हिंसा के पीड़ितों को न्याय दिलवाने के मुद्दे पर हम दोनों और नजदीक आए। वे ‘नेशनल सालिडेरिटी फोरम’ के संस्थापक सदस्यों में से एक थे जिसने दिल्ली में जस्टिस ए. पी. शाह की अध्यक्षता में जन न्यायाधिकरण का आयोजन किया था। इसके साथ ही उन्होंने कंधमाल की हिंसा पर 95 मिनट की एक फिल्म भी बनाई थी जिसका शीर्षक था ‘वायसिस फ्राम द रियूंसः कंधमाल इन सर्च ऑफ जस्टिस’।

नेशनल सालिडेरिटी फोरम की आखिरी बड़ी गतिविधि थी कर्नाटक के धर्मांतरण विरोधी कानून की खिलाफत में तैयार की गई ऑनलाइन याचिका। इस पर 30 हजार लोगों के हस्ताक्षर करवाने में शशि की महत्वपूर्ण भूमिका थी।

उनका अनूठा गुण यह था कि वे बहुत सहजता से देशभर के मानवाधिकार संगठनों और कार्यकर्ताओं से जुड़ जाते थे। उन्हें जमीनी स्तर पर काम करना आता था। वे किसी से भी आत्मीयता से बात कर सकते थे। उनकी रचनात्मक प्रतिभा अद्वितीय थी और व्यंग्य और हास्य की विधा पर उनकी पकड़ की कोई सानी नहीं थी।

तीस्ता सीतलवाड ने अपनी एक ट्वीट में जो कहा है वह शशि के दोस्तों और उनके साथ काम करने वालों की भावना को अभिव्यक्त करता हैः ”के. पी. शशि, जो फिल्म निर्माण की दुनिया की एक सह्दय और शक्तिशाली आवाज थी, अब नहीं रहे। यह एक युग का अंत है। ईमानदारी, हिम्मत, दृढ़ता और जनपक्षधर सिनेमा के प्रति प्रतिबद्धता के युग का अंत। प्रिय कामरेड शशि, तुम जहां भी हो वहां शांति से रहो। आरआईपी शशि।”

(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया; लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)

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