1598 के पूर्व मॉरीशस की धरती सुनसान थी। लगभग 90 किलोमीटर लम्बे और 40 किलोमीटर चौड़े द्वीप पर इन्सान नहीं रहते थे। सबसे पहले डच लोगों ने इस धरती को छुआ था। ऐसा अकस्मात हुआ था। वे जावा में बस गए थे और वहीं से मसालों का व्यापार करते थे। इसी प्रक्रिया में वे 1598 में मॉरीशस की धरती तक पहुंचे मगर वहां बसे नहीं। कुछ दशकों बाद, 1638 में वे मॉरीशस की प्राकृतिक सम्पदाओं के दोहन के उद्देश्य से वहां बसे। वहां गन्ना और हिरन को लाए। गन्ने की खेती शुरू किए मगर उनका मन न लगा और 1710 में इस द्वीप को वीरान छोड़कर चले गए। उसके बाद फ्रांसीसी आए। 1715 में फ्रांसीसियों ने बोरवान साम्राज्य से कॉफी का पौधा लाकर यहां खेती की और इस द्वीप का नाम इसले दि फ्रांस रखा। 1735 तक यहां कुल 838 लोग रहने लगे थे जिनमें 190 गोरे और 648 नीग्रो थे। 1766 में यह द्वीप सीधे फ्रांस के राजा के नियंत्रण में आ गया था।

तब यहां कुल 20,098 लोगों में से 1,998 गोरे और 18,100 दास थे। 1797 में यहां की कुल जनसंख्या 59,020 हो गई जिनमें 6,237 गोरे, 3,703 स्वतंत्र और 49,080 दास थे। फ्रांस का गवर्नर 4,000 लोगों के साथ मॉरीशस के दक्षिणी हिस्से में बसा था और वहीं से प्रशासन चलाता था। तभी ईस्ट इण्डिया कंपनी ने 70 नावों में 10 हजार सैनिकों, जिनमें कुछ गोरे और बहुसंख्यक भारतीय थे, के साथ 1810 में इस द्वीप के उत्तरी हिस्से पर कब्जा कर लिया। जाहिर है कि 10,000 ब्रिटिश फौज के सामने फ्रांसीसी टिक नहीं सकते थे और 3 दिसम्बर 1810 को दोनों के बीच एक संधि हुई जिसमें इस बात का आश्वासन मिला कि वहां बसे फ्रांसीसियों की सम्पत्ति, संस्कृति और कानून में कोई हस्तक्षेप नहीं किया जायेगा और तभी से इस द्वीप पर अंग्रेजों का शासन स्थापित हो गया।

एक बार फिर द्वीप का नाम इसले दि फ्रांस से बदलकर, डच नाम-‘मॉरीशस’ रख दिया गया। मगर कोई नई प्रशासनिक व्यवस्था लागू नहीं की गई। फ्रांस की प्रशासनिक व्यवस्था को ही अंग्रेजों ने लागू रखा। अब गन्ने की प्रचुरता में खेती प्रारम्भ कर दी गई थी। इस खेती के सामने गंभीर संकट 1835 में मॉरीशस से दास प्रथा के समाप्त होने पर खड़ी हो गई और उसी के समाधान के लिए एक अनुबंध (एग्रीमेंट) के तहत, भारत से गरीब मजदूरों को कलकत्ता और मद्रास के बंदरगाहों से लाया गया जिन्हें बाद में एग्रीमेटिया और फिर गिरमिटिया कहा जाने लगा।
मजदूरों की समस्या का हल, 2 नवम्बर 1834 को एटलस जहाज से कलकत्ता से लाए गए 36 मजदूरों के बाद संभव हो पाया और लगातार भारतीय मजदूर लाए जाते रहे जो पूर्व के दासों का स्थान लेते गए। उन मजदूरों ने कुली घाट पर पहला कदम रखा। 16 सीढ़ियों को चढ़कर वे कैम्प में आए जहां उनके स्वास्थ्य की जांच हुई। आज कुली घाट को अप्रवासी घाट के रूप में संजोकर रखा गया है। नाव से उतर कर जिन 16 सीढ़ियों से चढ़कर मजदूर कैम्प में आए थे, उसे वहां देखा जा सकता है।
1834 में आए 36 मजदूर, सबसे पहले अंतवानेत में ठहरे, जिसका तमिल नाम पुलवेरिया रखा जो भोजपुरी में फुलेरिया हो गया। तमिल भाषा में पुलवेरिया का मतलब गणेश होता है। इसलिए वहां मजदूरों ने गणेश मंदिर का निर्माण किया था। वे वहां के राज्य की चीनी मिल में काम करना शुरू किए। वर्तमान में वहां केवल स्मृतियां बची हैं। यहां उन मजदूरों द्वारा स्थापित एक मंदिर का ढांचा और बरगद के पेड़ को आज भी देखा जा सकता है। इस चीनी मिल का मुख्य द्वार और चिमनी 1871 में बनी थी, जो अभी भी खड़ी है। इसे गिरमिटिया मजदूरों की याद में स्मारक घोषित किया जा चुका है लेकिन अभी वहां विधिवत कार्य किया जाना शेष है।

भारतीय मजदूरों को इस द्वीप पर लगातार लाया जाता रहा। 1837 में इनकी संख्या 5,000, 1858 तक 28,000 और 1865 तक यहां की कुल जनसंख्या का तिहाई, भारतीय थे जो मुख्यतः पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार से लाए गए थे। इस कारण भी यहां भोजपुरी बोलचाल के रूप में प्रचलन में आ गई। 1834 से 1920 तक कुल 4,67000 अप्रवासी भारतीय मजदूर मॉरीशस पहुंचे। गोरे मालिकों ने शुरू में बहुत जुल्म किया। इन मजदूरों को सोने और पहनने को जूट मिलता था। मजदूरी के रूप में केवल 5 रुपया महीना वेतन था। इन्हीं जुल्मों को देखते हुए भारत सरकार पर एग्रीमेंट प्रथा को समाप्त करने का दबाव बना और अंततः 1924 में इसे समाप्त कर दिया गया।
शक्कर की कोठियों के नजदीक मजदूरों ने बैठका शुरु की जो गाने-बजाने, धार्मिक कहानियां पढ़ने आदि का स्थान बन गया। वैसे यह संस्था धार्मिक शिक्षा का केन्द्र बनकर रह गई और दूसरे फ्रांसीसी और अंग्रेज वैज्ञानिक शिक्षा ग्रहण कर चीनी मिल टेक्नॉलॉजी की ओर बढ़े। भारतीय मूल के लोग मजदूर बने रहे। केवल कुछ गुजराती व्यापारी वहां अमीर हो पाए।
शिवसागर रामगुलाम के और अन्य लोगों के प्रयास से 1968 में मॉरीशस स्वतंत्र हो गया। शिवसागर रामगुलाम जी प्रथम प्रधानमंत्री बने। आर्यसमाजी भारद्वाज ने चिकित्सा के क्षेत्र में और आर्यसमाजी काशीनाथ किस्टो ने आर्यन वैदिक शिक्षा के क्षेत्र में काम किया। मणिनाथ मगनलाल ने पोर्टलुईस में आर्यसमाज को शक्तिशाली संगठन बनाया। मूर्तिपूजा विरोधी आर्यसमाज की सक्रियता में ही यहां घर-घर मूर्तियों की पूजा शुरू हो गई। कुल मिलाकर अप्रवासी हिन्दू धार्मिक फांस में बंधे रहे।
29 अक्टूबर, 1901 को दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटते समय मोहनदास करमचन्द गांधी का जहाज मरम्मत हेतु कुछ समय के लिए पोर्ट लुईस बंदरगाह पर रुका था। वहां मोहनदास गिरमिटिया मजदूरों से मिले थे।

चीनी व्यवसाय को बढ़ावा देने के लिए 1838 में यहां एक व्यावसायिक बैंक की स्थापना की गई जो आज भी अस्तित्व में है। बाद में मुक्त किए गए दासों को भी गन्ना उत्पादन में लगाया गया। उसी समय गुजराती और चीनी व्यापारी इस धरती पर आए और उन्होंने अपना बाजार खड़ा किया।
मॉरीशस में केवल मजदूर ही नहीं आए। मजदूरों के साथ कुछ ब्राह्मण समुदाय के लोग धार्मिक किताबों के साथ यहां आ पहुंचे और घरबार छोड़कर पराई धरती पर आए मजदूरों के दुखों को हरने के बहाने धार्मिक क्रियाकर्म में जुट गए। आपदा के मारे मजदूरों को धर्म ने सहारा दिया और उन्होंने धार्मिक कर्मकाण्डों को पूरी तरह ओढ़ लिया। आज इस छोटे से देश में लगभग 300 के आस पास मंदिर हैं।
आज मॉरीशस एक सुन्दर और विकसित देश की ओर बढ़ चला है। भारतीयों के श्रम से आज 300 शक्कर मिलों की जगह पर मात्र चार या पांच बड़ी-बड़ी चीनी मिलें स्थापित हैं। अतीत की यादों के रूप में जगह-जगह चिमनियों को देखा जा सकता है।
गन्ना की खेती एक बार करके लगातार तीन या चार बार फसल काटी जाती है। गन्ना फसल की कटाई स्वचाालित मशीनें करती हैं और बंद ट्रकों में लादकर मिलों को रवाना कर देती हैं। यहां का आलू चिप्स के लिए बहुत मुफीद होता है। गन्ना, कपड़ा और पर्यटन, यहां की आय के मुख्य स्रोत हैं। सड़कें, कानून व्यवस्था, ट्रैफिक सब कुछ बहुत नियंत्रित और बेहतर है। हॉर्न का प्रयोग न के बराबर है। प्रशासन पर यूरोपीय लोगों का कब्जा होने के कारण, यह सब हो पाया है।
यहां के हिन्दू समुदाय को तय करना है कि भविष्य में वे अपना स्थान, वैज्ञानिक क्षेत्र में स्थापित कर पाते हैं या आर्यसमाज के प्रभाव में धार्मिक आवरण में खुद को लपेटे, कर्मकाण्डी मजदूर बने रहते हैं। भोजपुरी स्पीकिंग यूनियन की स्थापना के बावजूद, शिक्षा की भाषा अंग्रेजी है। राजकीय भाषा क्रियोल है जो अंग्रेजी और फ्रांस से मिलकर बनी है। तमिल और भोजपुरी के शब्द भी इसमें शामिल हैं। नई पीढ़ी ठीक से न तो हिन्दी बोल पाती है और न अंग्रेजी। केवल मिली-जुली हिन्दी और भोजपुरी के सहारे खुद को भारतीय बनाए हुए हैं। तमिलनाडु से आए लोगों के बीच तमिल भाषा बेहतर ढंग से बोली जाती है। बुद्ध के दर्शन भी यहां होते हैं। कुल मिलाकर मॉरीशस छोटा भारत की झलक प्रस्तुत करता है मगर सुन्दरता और समृद्धि में फिलहाल भारत से बेहतर है।
(सुभाष चन्द्र कुशवाहा इतिहासकार और साहित्यकार हैं। आप आजकल लखनऊ में रहते हैं।)
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