रंग परिवर्तन थियेटर ने किया ‘एक था गधा’ का मंचन

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नई दिल्ली। कल महेश वशिष्ठ के ‘रंग परिवर्तन थियेटर’ (गुरुग्राम) में शरद जोशी का लिखा ‘एक था गधा’ नाटक देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मैं और सुधा मेट्रो से गए। लंबे समय के बाद मैंने दिल्ली में नाटक देखा। अजय रोहिल्ला (मुंबई) के निर्देशन में रंग परिवर्तन के युवा रंगकर्मियों ने इस नाटक का मंचन किया।

मैं जब सन् 1989 में दिल्ली से कलकत्ता चला गया, उसके बाद दिल्ली में मैंने संभवतः यह पहला नाटक देखा। संयोग की बात है कि सुधा के साथ भी यह पहला नाटक देखा।

‘एक था गधा’ में काम करने वाले सभी कलाकार एकदम नए और मंजे हुए थे। निर्देशन शानदार था। अजय रोहिल्ला के द्वारा निर्देशित यह पहला नाटक हम लोगों ने देखा। इस समूचे कार्यक्रम में जो बात सबसे अच्छी लगी, वह है महेश वशिष्ठ का रंगकर्म को लेकर लगाव और गहरी आस्थाएं। वह लगातार तेरह साल से ‘रंग परिवर्तन थियेटर’ के ज़रिए नाटकों का मंचन अपने छात्र-छात्राओं के ज़रिए कर रहे हैं। दर्शकों को नाटक निःशुल्क देखने को मिलता है। उनके यहां निरंतर छात्र-छात्राएं देश के विभिन्न हिस्सों से रंगकर्म कला सीखने आते हैं और इस सिलसिले को चलाते हुए उन्होंने सैकड़ों युवाओं को रंगकर्म की दीक्षा दी है। स्वयं महेश वशिष्ठ चार दशक से रंगमंच से जुड़े हैं।

फ़िलहाल कल यानी 24-12-2023 को मंचित नाटक ‘एक था गधा’ के मंचन और अपने अनुभवों और राजनीतिक रंगमंच की समस्याओं के कुछ पहलुओं तक ही अपनी बात सीमित रखूंगा।

‘परंपरा’ और उसके नाम पर पैदा हुए ‘बहुआयामी संकट’ को यह नाटक बड़े सुंदर ढंग से पेश करता है। यह असल में उस ‘संकट’ को सामने लाता है जो हमारे बुद्धिजीवियों, परंपरा, रिचुअल्स, सत्ता और राजनीतिक तंत्र के साथ जनता की मनोदशा में फैला हुआ है। यह ‘संकट’ बहुत गहरा है और बहुआयामी है। इसका संदर्भ राजनीति है, राजनीतिक रंगमंच और व्यंग्य है। इन तीन संदर्भों के बिना इस ‘संकट’ को मंचित करना संभव नहीं है, इस ‘संकट’ की व्याख्या करना भी संभव नहीं है।

नाटक में परंपरा और उसे दोबारा याद करने की कोशिश में विभिन्न क्षेत्रों की परंपराओं के बिखेरने का बहुत ही सुंदर मंचन कलाकारों ने किया है। इस क्रम में यह बात सामने आई है कि जुम्मन मियां (धोबी) अपने गधे के मरने पर दुखी है, वहीं दूसरी ओर बाक़ी समाज के तबकों के अंदर उसका किस रुप में अर्थान्तर होता है। उस क्रम में जुम्मन के यहां जो त्रासदी है,पीड़ा है, उसके समानांतर और गधे की मौत के बहाने भारतीय समाज और राजनीति में मृत्यु संस्कार के विद्रूपीकरण और हृदयहीनता को हास्य और व्यंग्य से भरपूर के ज़रिए दर्शकों के मन में हंसते-हंसाते हुए मन में उतारने में कलाकारों को सफलता मिली है। इसके अलावा किस राजनीतिक मेनीपुलेशन और मृत्यु संस्कार की प्रस्तुति के बहाने नाटककार ने इनका जमकर मज़ाक उड़ाया है।

‘एक था गधा’ नाटक ‘लोकतंत्र’ और ‘संस्कृति’ के संकट को मुख्य बिन्दु बनाकर चलता है। भारतीय लोकतंत्र में बुद्धिजीवियों, सरकारी चिंतकों से लेकर आम जनता तक किस तरह ‘हां में हां’ मिलाकर चलने वालों या अंधानुयायियों से भरी पड़ी है, यही बुनियादी पहलू है जिसे निर्देशक ने बख़ूबी उभारा है।

लोकतंत्र में विवेकहीन अंधानुकरण और उसके द्वारा जीवन में किए जा रहे मेनीपुलेशन के विविध रुप विभिन्न दृश्यों के ज़रिए बहुत ही सुंदर ढंग से कलाकारों ने पेश किए हैं। खासकर लोकतंत्र में नवाब का चरित्र बहुत ही अर्थपूर्ण है। सत्ता का संचालक किस तरह कॉमनसेंस में जीता है और कॉमनसेंस को ही विवेक मानता है। किस तरह वह निर्बुद्धि विचारकों से घिरा रहता है। इसे विभिन्न चिन्तक चरित्रों ने बहुत ही सुंदर ढंग से पेश किया है। नाटक में दर्शाए गए समाज में हरेक व्यक्ति या नागरिक की भूमिकाओं को विभिन्न पात्रों ने बड़े कौशल के साथ मंचित करके लोकतंत्र में खोखले नागरिकों की चेतना का बेहतरीन चित्रण किया है।

राजनीति में पाखंड, असत्य, मेनीपुलेशन और नियमहीनता के वर्चस्व के रुपायन के ज़रिए यह नाटक एकदम नए क़िस्म के लोकतांत्रिक राजनीतिक रंगमंच पेश करता है।

लोकतांत्रिक रंगमंच का कैनवास बहुत व्यापक है। राजनीति में त्याग, संघर्ष और क़ुर्बानी की परंपरा रही है। लेकिन लोकतांत्रिक बुर्जुआ राजनीति में क़ुर्बानी की कोई भूमिका नहीं है। यहां सब कुछ परंपरागत है। नवाब साहब, चिन्तक, नागरिक, पुलिस सबका चरित्र जी-हुजूरी से ओतप्रोत है। शरद जोशी इस पहलू को बड़े ही सुंदर ढंग से पेश करते हैं।

लोकतंत्र में हर व्यक्ति दर्शक है। हर घटना दर्शकीय नज़रिए से जनता देखती है। इसने नागरिक की बजाय दर्शकीय जनता पैदा की है।

दर्शकीय जनता निर्बुद्धि होती है। यह सबसे बड़ा संदेश ‘एक था गधा’ नाटक संप्रेषित करता है। दूसरा संदेश यह है कि चिन्तकों की खोखली जमात लोकतंत्र ने पैदा की है। इनमें सत्ता की हां में हां मिलाकर जीने की आदत है।

नाटककार इन सबका एक ही समाधान अप्रत्यक्ष ढंग से संप्रेषित करता है। जो नाटक में शुरु से आख़िर तक छाया है कि ‘संकट’ को समझो, चरित्रों, घटनाओं और परिस्थितियों को आवरण हटाकर देखो, सच नज़र आएगा। इन सबकी खिल्ली उड़ाओ, लोकतंत्र क़रीब नज़र आएगा।

(जगदीश्वर चतुर्वेदी साहित्यकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

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