Tuesday, March 19, 2024

प्राचीन भारतीय इतिहास लेखन, उसकी व्याख्या और तर्कों को मुंह चिढ़ाते पुरातात्विक साक्ष्य 

भारत का प्राचीन इतिहास ईसा पूर्व (2500-600) के कालखंड की इतिहासकारों द्वारा अब तक की व्याख्या रहस्यपूर्ण है। इतिहासकार उपिन्दर सिंह के शब्दों में, “सन 2000-500 सासंपू के बीच उपलब्ध पाठ्यात्मक स्रोतों की इस काल के पुरातात्विक साक्ष्यों द्वारा संपुष्टि से जुड़ा विवाद मुख्यतः वैदिक संस्कृति और हड़प्पा संस्कृति के बीच संबंध के इर्द-गिर्द घूमता रहा है। इसकी अपेक्षा संगम ग्रंथों दक्षिण भारत की महापाषाण संस्कृति के बीच संबंध को लेकर चलने वाली बहस कम विवादपूर्ण है।

वैदिक ग्रंथों और उत्तर भारत की हड़प्पा एवं उत्तर हड़प्पा संस्कृतियों से जुड़े पुरातात्विक प्रमाणों को जोड़ने का बहुत प्रयास किया गया है। इंडो-आर्य (जिनको हम उनके ग्रंथों के माध्यम से जानते हैं) तथा हड़प्पा सभ्यता (जिसके विषय में हम पुरातात्विक साक्ष्यों के माध्यम से जानते हैं) के बीच संबंध स्थापित करना स्वाभाविक रूप से जटिल है। कुछ विद्वानों का मानना था कि हड़प्पा सभ्यता के विनाश के पीछे वैदिक आर्यों का हाथ था तो कुछ विद्वान उत्तर हड़प्पा संस्कृति तथा इंडो-आर्य लोगों के आप्रवर्जन की परिघटनाओं को समकालीन प्रक्रिया के रूप में देखते हैं।

कुछ विद्वान मानते हैं कि इंडो-आर्यों का भारत में कहीं बाहर से आगमन हुआ ही नहीं था और हड़प्पा सभ्यता दरअसल वैदिक आर्यों की ही संस्कृति का ही प्रतिनिधित्व करता है। पाठ्यात्मक स्रोतों की पुरातात्विक साक्ष्यों द्वारा संपुष्टि किये जाने के समक्ष सबसे बड़ी समस्या है कि दोनों की प्रकृति एक-दूसरे से पूर्णतः पृथक है। हम यह भी नहीं जान सके हैं कि हड़प्पावासी कौन-सी भाषा बोलते थे तथा हड़प्पा की लिपि नहीं पढ़े जाने के कारण, हड़प्पा केन्द्रों को ग्रंथों में वर्णित भाषा, संस्कृति या जनजाति समूहों से जोड़ पाना निश्चित रूप से बहुत कठिन है।

केनिथ केनेडी (1997) ने अपने द्वारा किये गये नरकंकालों के विश्लेषण के आधार पर यह पाया कि उत्तर पश्चिम के लोगों की भौतिक विशिष्टताओं में दो कालावधि में परिवर्तन हुआ-पहला परिवर्तन 6000-4500 सासंपू के बीच और बाद में 800 सासंपू के बाद। हड़प्पा सभ्यता के पतन के तुरंत बाद उत्तर-पश्चिम की जनसंख्या में भी कोई परिवर्तन नहीं रेखांकित किया गया, न ही उस समय जिस समय इंडो-आर्य लोगों ने भारत में प्रवेश किया। कोई आक्रमण की घटना के प्रमाण नहीं मिले और न ही कभी किसी बड़े पैमाने पर हुए आप्रवर्जन के ही साक्ष्य मिले हैं। उनकी छोटी-छोटी टुकड़ियों में प्रवेश करने की ही संभावना व्यक्त की जा सकती है।”

संदर्भ- पेज-269, प्राचीन एवं पूर्व मध्यकालीन भारत का इतिहास-उपिन्दर सिंह, प्रकाशक-पियर्सन, हिंदी संस्करण

ईसा पूर्व (2500-600) के इतिहास लेखन की सबसे बड़ी समस्या है कि इस कालखंड को ऋग्वेद से जोड़ना। इस कालखंड पर देश-दुनिया के सभी इतिहासकारों की आम सहमति है कि उपरोक्त कालखंड ऐतिहासिक नहीं है क्योंकि इस दौर के अभी तक कोई अभिलेखीय साक्ष्य प्राप्त नहीं हुए हैं जिसे पढ़ा जा सके। सिंधु सभ्यता के हड़प्पा-मोहनजोदड़ो के नगरों से प्राप्त मूर्तियों या शिलाओं पर खुदी हुई जो इन्स्क्रिप्सन (Inscription-किसी वस्तु पर अंकित या उत्कीर्ण शब्द) प्राप्त हुई हैं वे भी अभी पढ़ी नहीं जा सकी हैं।

इसलिए ऋग्वैदिक साहित्य को उपरोक्त कालखंड का मानना संस्कृत भाषी एक विशिष्ट संस्कृति का पालन करने वाले मानव समूह की संस्कृति का आरोपण है जिनके अभिलेखीय साक्ष्य ईसा पूर्व 180 मौर्य काल के बाद मिलने शुरू हो जाते हैं। इसलिए किसी भी सूरत में ईसा पूर्व (2500-600) के काल खंड को वैदिक सभ्यता के रूप में नहीं माना जा सकता है। वैज्ञानिक विधि तो यह होना चाहिए कि प्राप्त पुरातात्विक साक्ष्यों-

  1. उत्पादन के औजारों (तराशे पत्थर, तराशी हड्डियां, कांसे के हथियार इत्यादि) के बनावट और उसके उत्तरोत्तर विकास के कालानुक्रम
  2. विविध मृदभांड की संस्कृति
  3. कब्रगाह संस्कृति की विविधता
  4. प्राप्त सिक्कों की ढलाई की आकृति और उन पर उत्कीर्ण लिपि या चित्रांकन की बनावट
  5. प्राप्त ताम्रपत्र और उन पर उत्कीर्ण लिपि या चित्रांकन की बनावट
  6. शिलालेख 
  7. भाषा विज्ञान इत्यादि 

के आधार पर उस दौर में भारतीय उपमहाद्वीप में उपस्थित विविध कबीलाई सांस्कृतिक मानव समूहों को सिलसिलेवार चिन्हित किया जाता और ऐतिहासिक काल के शुरू होने तक किसी विशिष्ट संस्कृति के प्रभाव की निरंतरता बनी रहती और जिनकी पुरातात्विक साक्ष्यों से भी पुष्टि होती, जबकि ऐसा नहीं है।

इतिहासकार उपिन्दर सिंह ने अपनी किताब ‘प्राचीन एवं पूर्व मध्यकालीन भारत का इतिहास’ में बहुत लम्बे कालखंड (पाषाण काल से 12वीं शताब्दी तक) को समेटा है। इतने लम्बे कालखंड के भारतीय मानव इतिहास में परिवर्तन के विविध बदलावों का वर्गीकरण और उनके बीच तारतम्यता को बनाए रखना विद्वतापूर्ण शोध और संयम की मांग करता है। इसके साथ ही इतिहास की विविध शाखाओं का अध्ययन कम श्रम साध्य नहीं है। लेखक ने अपनी किताब में इतिहास के विविध दौरों के भौगोलिक मानचित्रों, पुरातात्विक साक्ष्यों की फोटोग्राफी के हवाले से अतीत का जीवंत चित्र उकेरने की कोशिश की है। साथ ही उन्होंने देश-दुनिया के स्थापित इतिहासकारों और पुरातत्वविदों के तर्कों और उनके निरीक्षण के हवाले से अपने तर्कों को रखने की कोशिश की है।

पाषाण कालीन उत्पादन के औजारों से भारतीय पुरातत्व के अध्ययन की शुरुआत

इतिहासकार उपिन्दर सिंह ने भारतीय उपमहाद्वीप के मानव सभ्यता को पूरा पाषाण कालीन पुरातात्विक साक्ष्यों के हवाले से भारतीय प्राचीन इतिहास को सचित्र उकेरने की कोशिश की है। जब इंसान पत्थरों को उत्पादन के औजारों के रूप में इस्तेमाल करना शुरू किया था। अपनी किताब में वे पुरातत्व से संदर्भित अध्ययन की शुरुआत के रूप में निम्न सिलसिले को दर्ज करती हैं –

सन 1863 में भारतीय भूविज्ञान सर्वेक्षण के अंग्रेज अधिकारी रॉबर्ट ब्रूस फुट को मद्रास के निकट पल्लवरम में एक बजरी के गड्ढे में एक दबा पत्थर मिला जो तराशा हुआ था। सन 1856 में ल. मेसुरिए नाम के एक अंग्रेज रेलवे अभियंता ने मध्य प्रदेश के नागुड़ी के पास चर्ट की बनी तिराग्र को पाया। ब्रूस ने सन 1868 में अपनी प्राप्तियों, खोजे गए कुछ ऐतिहासिक औजारों को वियाना की अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी में भी रखा। इन दो दशकों में भारतीय इतिहास की पुरातत्व के अध्ययन की आधारशिला तैयार हो गई तथा इसको अंतर्राष्ट्रीय मान्यता भी मिलने लगी।

पत्थर के उत्पादन के औजारों के बनावट उसके फलकीकरण के आधार पर पाषाण काल को दो भागों पुरा पाषाण और नव पाषाण काल में विभाजित किया गया है। दुनिया के प्राचीन मानव सभ्यताओं में नव पाषाण काल के बाद कांस्य-ताम्र युगीन सभ्यताओं की शुरुआत हुई है। कांसा, रांगा और तांबे की खोज के साथ ही मानव सभ्यताओं को खाद्य संग्रहण से खाद्य उत्पादन की दिशा में अग्रसर होने को चिन्हित किया गया है।

सच तो यह है कि कांस्य-ताम्र युग के दौर से मानव समाज में जटिलताओं के पैदा होने की उर्वर जमीन तैयार हुई है। कांस्य-ताम्र युग में ही विशेष क्षेत्रों में ज्यादा जनसंख्या घनत्व को दर्ज किया गया है और मानव आबादी की स्थायी बस्तियों के पुरातात्विक साक्ष्य मिलते हैं। सिंधु सभ्यता के हड़प्पा-मोहनजोदड़ो के नगरों से मिले पुरातात्विक अवशेष भी कांस्य-ताम्र युगीन दौर के पाए गए हैं।

उत्पादन के औजारों के क्रमिक विकास को ध्यान में रखा जाए तो उस दौर के समाज में कई तरह के नए अंतर्विरोधों की जमीन तैयार होते हुए मालूम होती है। प्रकृति बनाम मानव समाज के अंतर्विरोध, भिन्न भाषा और संस्कृति वाले कबीलाई समूहों के बीच का अंतर्विरोध, आदिम साम्यवादी (Tribe Society) संस्कृति बनाम वर्ग समाज की संस्कृति का अंतर्विरोध, आदिम साम्यवादी समाज से वर्ग समाज में संक्रमण से गुजर रहे कबीलाई समूहों के भीतर पैदा हो रहे वर्गों के बीच का अंतर्विरोध इत्यादि के हवाले से देखें तो निम्न वर्गीकरण ज्यादा मुनासिब होगा-

  1. पाषाण काल
  2. नव पाषाण काल
  3. कांस्य-ताम्र काल
  4. लौह काल

इतिहास में रुचि रखने वाले बतौर एक पाठक मेरा मानना है कि मानव इतिहास को समझने और किसी विशेष उद्देश्य के लिए प्राप्त तथ्यों और साक्ष्यों के अनेक वर्गीकरण होते रहे हैं जो अनेक खोजों और क्रांतिकारी बदलावों को जन्म दिए हैं। बशर्ते कि तथ्यों और साक्ष्यों के प्रति ईमानदारी बरतते हुए उससे छेड़छाड़ न किए जाए।

नव पाषाण युग और खाद्य उत्पादन की शुरुआत

इस अध्याय के तहत लेखक ने खाद्य संग्राहक मानव समूहों का पशुपालन और कृषि की तरफ संक्रमण के विभिन्न कारणों को सिलसिलेवार दर्ज किया है। इस संदर्भ में चार विद्वानों वी. गार्डन चाइल्ड (1952), राबर्ट जे. ब्रेडवुड (1960) ल्युविस आर. बिनफोर्ड (1968) और केंट फ्लेनरी (1969) के मतों को दर्ज किया है। इसमें वी. गार्डन चाइल्ड की व्याख्या कुछ बदलावों के साथ अब भी मान्य है। हालांकि दूसरे अन्य विद्वानों ने मानव समाज के खाद्य संग्राहक से खाद्य उत्पादन की तरफ संक्रमण के विविध पक्षों को उजागर किया है।

“चाइल्ड का तर्क है कि लगभग 10000 साल पहले पश्चिम एशिया के विभिन्न भागों में शुष्क मौसम का प्रादुर्भाव होने लगा, क्योंकि गर्मी में होने वाली बरसात अब उत्तर की दिशा में होने लगी। जलवायु की शुष्कता ने मनुष्य, वनस्पति और जंतुओं को उपलब्ध जलस्रोतों के इर्द-गिर्द एक साथ रहने के लिए मजबूर कर दिया। इनके बीच विकसित हुई निकटता के परिणाम-स्वरूप इनके बीच परस्पर निर्भरता की स्थिति उत्पन्न हो गई।”

पेज-98, प्राचीन एवं पूर्व मध्यकालीन भारत का इतिहास-उपिन्दर सिंह, प्रकाशन-पियर्सन, हिंदी संस्करण

यह लेखक की विद्वता और श्रम साध्य मेहनत की खूबसूरती है कि इस क्षेत्र के इतिहास को समझने में योगदान देने वाले इतिहासकारों, पुरातत्वविदों और समाजशास्त्रियों के मतों को सिलसिलेवार दर्ज करते हुए चलती है। उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप के विविध भौगोलिक इलाकों से प्राप्त पुरातात्विक साक्ष्यों को कालानुक्रम के अनुसार दर्ज किया है।

इससे एक पाठक इतिहास के घटनाक्रम को कालानुक्रम के अनुसार समझते हुए इतिहास के अलग-अलग दौरों को आसानी से एक दूसरे से जोड़ते हुए आगे बढ़ता रह सकता है। पुरातात्विक साक्ष्यों की विविधता इतनी है कि इतिहास के एक ही काल खंड में अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग मानव संस्कृतियां विकसित हो रही थीं जिनकी भाषा और संस्कृति कुछ मामले में एक दूसरे से भिन्न थी।

कांस्य-ताम्र काल

दक्षिण एशिया में कांस्य-ताम्र युगीन सभ्यता और नगर-

सिंधु घाटी सभ्यता के हड़प्पा-मोहनजोदड़ो दो विशाल नगर विकसित हुए थे। पुरातत्वविदों के अनुसार ईसा पूर्व 2200 से मोहनजोदड़ो में पतन के तत्व दिखलाई पड़ने लगे और ईसा पूर्व 2000 के लगभग इस नगर का पूरी तरह पतन हो गया। हड़प्पा-मोहनजोदड़ो नगरों के पतन के सन्दर्भ में विद्वानों की तरह-तरह की व्याख्या है। ये व्याख्याएं कुछ इस प्रकार हैं-

  1. राम प्रसाद चंद्रा और मार्टिमर व्हीलर का मानना है कि हड़प्पा-मोहनजोदड़ो नगरों के पतन का कारण आर्य आक्रमण था।
  2. जॉर्ज डेल्स (1964), पी.वी. काणे (1995), बी.बी. लाल (1997) जैसे कई विद्वानों ने आर्य आक्रमण के सिद्धांत को नकार दिया और तर्क दिया कि अगर कोई ऐसा आक्रमण हुआ होगा तो पुरातात्विक प्रमाण भी उपस्थित होंगे। किंतु हड़प्पा के किसी भी स्थल से किसी बड़े सैन्य संघर्ष या आक्रमण का कोई प्रमाण नहीं मिला है।
  3. एम.आर.साहनी (1956), राबर्ट एल. राइक्स (1964) और जॉर्ज एफ. डेल्स (1968) ने मोहनजोदड़ो में बाढ़ के प्रमाणों को विवर्तनीय (टेक्टोनिक-पृथ्वी की सतह की संरचना से संबंधित) घटनाओं का परिणाम माना है।
  4. शिरीन रत्नागर (1981) ने तर्क दिया है कि मेसोपोटामिया के साथ हड़प्पा-मोहनजोदड़ो नगरों से व्यापार के पतन के कारण सभ्यता का पतन हुआ।

उपरोक्त विद्वानों ने हड़प्पा-मोहनजोदड़ो नगरों के पतन के कारणों के अलग-अलग पहलुओं को रेखांकित किया है लेकिन विद्वानों ने कांस्य-ताम्र युगीन इन नगरों के समाजों में पैदा हो रहे नए अंतर्विरोधों की तरफ ध्यान नहीं दिया है।

दरअसल दुनिया की सभी कांस्य-ताम्रयुगीन प्राचीन सभ्यताएं आदिम साम्यवादी समाज से वर्ग समाज में संक्रमण का दौर रहा है। जिसके कारण उन समाजों के अंदर आदिम साम्यवादी संस्कृति बनाम वर्गीय समाज की संस्कृति का प्रधान अंतर्विरोध जन्म लेगा जिससे उस दौर के जलवायु के बदलावों के अलावा बसी-बसाई सभ्यताओं के बिखराव की प्रमुख वजह बन सकता है।

(लेखक नन्हे लाल इतिहास के जानकार हैं।)

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