सत्ता की ऐसी भूख कि केन्द्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी द्वारा एक के बाद एक लगातार स्थिर सरकारों को अस्थिर करने के प्रयास किए जा रहे हैं। केन्द्र में सत्ता हासिल करने के बाद 2014 से ही मोदी सरकार पर राज्यों की कांग्रेस या अन्य विपक्षी दलों की सरकारों को अस्थिर कर गिराने का प्रयास किया जाता रहा है। पूरे देश की जनता देख रही है 2014 के बाद से सत्तालोलुप भारतीय जनता पार्टी ने किस प्रकार खरीद- फरोख्त और दबाव के बल पर गोवा, उत्तराखंड, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, कर्नाटक या मध्य प्रदेश और बिहार आदि राज्यों में अपनी सरकारें बनाई है।
इस तथ्य को किसी भी प्रमाण की ज़रूरत नहीं है कि सत्तारूढ़ बीजेपी ने विगत बरसों में सत्ता में रहते हुए धनबल, प्रलोभन के साथ-साथ शासकीय एजेंसियों के दुरुपयोग के माध्यम से विभिन्न राज्यों में अल्पमत में होने के बावजूद विधायकों की खरीद फरोख्त कर अपनी सरकारें बनाई हैं या बनाने के लगातार प्रयास किए हैं।
अब यही कुत्सित प्रयास राजस्थान में भी किया जा रहा है। विदित हो कि राजस्थान में पिछले विधान सभा चुनाव में जनता ने कॉंग्रेस को स्पष्ट बहुमत दिया और भाजपा बमुश्किल एक तिहाई सीटें ही जीत पाई । नैतिकता का तकाज़ा तो ये है कि जनमत की भावना का सम्मान करते हुए भाजपा को विपक्ष में बैठना चाहिए और एक सशक्त व जागरूक विपक्ष की भूमिका का निर्वहन करना चाहिए। आज मगर सत्ता प्रधान राजनीति के दौर में नैतिकता पूरी तरह राजनीति से गायब हो चुकी है।

ऐसा नहीं है कि नैतिकता की आवश्यकता नहीं रह गई है। वो दल जो सत्ता के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाने से नहीं चूकता, चाहे वो घोर अनैतिक व भ्रष्ट तरीके ही क्यों न हों, दूसरे दलों को नैतिकता की दुहाई देता है। सत्ता प्राप्ति के लिए युद्ध और प्रेम में सब जायज है कहना सामंती मानसिकता और सामंती प्रवृत्ति को दर्शाता है। आज के लोकतांत्रिक युग में युद्ध नहीं जनता की राय और जनता के मतों से सरकारें बनती गिरती हैं । बहुत खेद की बात है कि आज भी विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र कहे जाने वाले देश में लोकतंत्र अपनी सुचिता और नैतिकता के लिए जूझ रहा है। इस तरह जनभावनाओं के खिलाफ साम, दाम, दंड, भेद के जरिए सत्ता हासिल करने के प्रयास अनैतिक ही नहीं बल्कि लोकतंत्र में जनमत का अपमान भी है।
यह बात गौरतलब है कि किसी भी प्रत्याशी को चुने जाने में अपना मत देते समय मतदाता के मन में उस प्रत्याशी की अपनी छवि से कई गुना ज्यादा उस दल की छवि, दल की नीतियों, घोषणाओं और दल के व्यापक प्रभाव की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। अपवादों को छोड़ दें तो आम मतदाता राजनैतिक दल को ही ध्यान में रखकर अपना मत देता है । दुखद पहलू ये है कि लोकतंत्र के प्रति अपनी वफादारी और जिम्मेदारी पूरा करने वाला मतदाता बाद में सत्ता के इस शर्मनाक खेल में मूक दर्शक बना अपने अभिमत का अपमान होते देखने को मजबूर हो जाता है।
एक बार मत देने के पश्चात उसकी भूमिका खत्म हो जाती है। क्या मतदाता की भूमिका सिर्फ मत देने तक ही सीमित कर देना उचित है? क्या धीरे-धीरे हमारे लोकतंत्र में मतदाता व मतदान का उपयोग सत्ता के लिए बिक जाने की अर्हता हासिल करना होता जा रहा है? मतदाता के मत की गरिमा और अभिमत का ऐसा अपमान विश्व के किसी भी सभ्य और विकसित लोकतंत्र में देखने को नहीं मिलता। ये हमारे लोकतंत्र की परिपक्वता और निष्पक्षता पर गंभीर प्रश्न खड़ा करता है।
छठवें दशक के अंत से शुरु हुआ ‘आया राम, गया राम’ के रूप में मशहूर दल बदल प्रवृत्ति सत्तर व अस्सी के दशक में बुरी कदर व्याप्त हो गई। आज के हालात हमें फिर उसी राजनैतिक दौर की याद करा रहे हैं। इसी ‘आया राम, गया राम’ संस्कृति से निपटने के लिए 1985 में केंद्र की राजीव गाँधी सरकार ने 52वें संविधान संशोधन के माध्यम से विधायक या सांसदों का दल-बदल रोकने के लिए दल-बदल विरोधी क़ानून बनाया गया। 1985 में जब यह बिल संसद में प्रस्तुत किया गया था तो इस बिल की ज़रूरत के बारे में लिखित रूप में कहा गया था कि राजनैतिक दल-बदल एक राष्ट्रीय महत्व का मुद्दा है, यदि इस बीमारी पर काबू नहीं पाया गया तो भारतीय लोकतंत्र की जड़ें ही खोखली हो जाएँगी। हालांकि 1985 में दल-बदल विरोधी क़ानून के लागू होने के बाद इस क़ानून में अनेकों बार संशोधन होते रहे हैं तथा अनेकों बार इस क़ानून से जुड़े मुद्दे सुप्रीम कोर्ट में भी आते रहे हैं।

हाल ही के दिनों में कर्नाटक, मध्य प्रदेश, आदि जैसे राज्यों के मामलों में भी सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दल-बदल विरोधी क़ानून के अलग-अलग पहलुओं पर बहस हुई है तथा सुप्रीम कोर्ट ने समय-समय पर दल-बदल क़ानून के अनेक बिंदुओं पर अपनी वैधानिक व्याख्या भी दी है। लेकिन, यह सभी जानते मानते हैं कि उसके बाद भी यह क़ानून देश में राजनैतिक दल-बदल रोकने में पूरी तरह से असफल रहा है। इसी के चलते सत्ता प्राप्ति के लिए राजनैतिक खरीद फरोख्त का यह व्यापार आज भी खुलेआम खेला जा रहा है।
राजस्थान प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील एवं पूर्व केंद्रीय क़ानून मंत्री कपिल सिब्बल ने यह कहा है कि देश में अगर राजनैतिक दल बदल को प्रभावी ढंग से रोकना है तो भारतीय संविधान की दसवीं अनुसूची में पर्याप्त संशोधन कर यह क़ानून बनाना चाहिए कि जिस भी विधायक या सांसद को दल बदल क़ानून के अंतर्गत अयोग्य घोषित किया जाता है तो उसकी किसी भी सार्वजनिक पद पर अगले 5 साल तक नियुक्ति नहीं हो। साथ ही वह अगले पाँच साल तक किसी भी चुनाव में भाग नहीं ले सके।
यह बात हमें समझना ही होगा कि यदि देश में संसदीय प्रजातंत्र को क़ायम रखना है तो हमें जल्दी ही दल बदल की संविधान की दसवीं अनुसूची को और मजबूत व प्रभावशाली बनाना होगा। इसके लिए इस क़ानून के अंतर्गत अयोग्य घोषित विधायक या सांसद की किसी भी सार्वजनिक पद पर अगले 5-6 वर्षों तक नियुक्ति अथवा अगले 5-6 वर्षों तक किसी भी चुनाव में भाग लेने पर भी पाबंदी जैसे प्रवधानों के अतिरिक्त इसमें और भी कड़े, पर्याप्त व मजबूत संशोधन पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। सभी राजनैतिक दलों को सत्ता मोह से उबरकर संयुक्त रूप से लोकतंत्र की बेहतरी और मजबूती के लिए दल बदल को हतोत्साहित करने के लिए सभी कठोर प्रावधानों पर विचार कर जल्द ही लागू करना होगा। इसके लिए समाज के बौद्धिक, अकादमिक और सामाजिक वर्ग को भी सलाह मशविरा में शामिल करना जरूरी है।
लोकतांत्रिक मूल्यों, लोकतंत्र की मर्यादा एवं मतदाता के अभिमत का सम्मान व गौरव बनाए रखने के लिए देश के सभी राजनैतिक दलों के सांसदों का यह दायित्व है कि वह जल्द से जल्द इस क़ानून को संसद में पास करवाएँ अन्यथा मतदान के प्रति बढ़ती अरुचि से देश में संसदीय प्रजातंत्र को कायम रख पाना मुश्किल हो सकता है।
(जीवेश चौबे लेखक और पत्रकार हैं आप आजकल छत्तीसगढ़ में रहते हैं।)