Saturday, April 20, 2024

लोकतांत्रिक समाजवादी भारत के लिए संघर्ष के अनथक योद्धा थे स्वतंत्रता सेनानी देवीदत्त अग्निहोत्री

दादा देवीदत्त अग्निहोत्री ऐसी अजीम शख्सियत थे जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता।राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन, मजदूर आंदोलन, देश के समाजवादी आंदोलन, लोकतंत्र और नागरिक आज़ादी के संघर्ष तथा क्रांतिकारी आंदोलन में जमीनी स्तर पर उनका योगदान रहा है। आंदोलनों में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। उनकी गति ही कुछ इसी तरह होती है। एक समय अत्यंत सक्रिय भूमिका निभाने वाले कुछ समय बाद शिथिल, अन्यमनस्क, उदासीन, निष्क्रिय होने लगते हैं, किनारा कर लेते हैं। ऐसे भी होते हैं जो प्रतिगामी कतारों में सम्मिलित होकर निजी स्वार्थ में उन लक्ष्यों से गद्दारी करने लगते हैं, जिनके लिए वे कभी संघर्षरत थे। अपने त्याग और कुर्बानियों को भुनाकर निजी स्वार्थ में लिप्त होने वालों के बारे में तो कुछ कहना ही व्यर्थ है। दादा देवी दत्त अग्निहोत्री इनसे अलग थे। 

जटिलताओं व अबूझ परिस्थितियों में भटकते, राह तलाशते जीवन के अंतिम पड़ाव तक वे थके नहीं, हार नहीं मानी, निराशा का दामन नहीं थामा। उन सभी को सहारा देते व प्रेरित करते रहे जो शोषण और अन्याय पर आधारित समाज को बदलने और लोकतंत्र व समता आधारित समाज की स्थापना के लिए संघर्षरत रहे। राजनीति में उनकी शुरुआत 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन से हुई थी। उनका जीवन कानपुर की गंगा-जमुनी संस्कृति, मजदूर आंदोलन, समाजवादी आंदोलन, नागरिक स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास है। 11 दिसम्बर, 1993 को 84 बरस की आयु तक वे अपने विश्वास व आस्थाओं पर अडिग रहे। कैंसर की कष्टदायी पीड़ाओं को झेलते हुए अंतिम सांस ली। सामाजिक परिवर्तन के आकांक्षियों को उनकी कमी सदा खलती रहेगी।

जंगल सत्याग्रह

बरतानिया साम्राज्यवाद के खिलाफ जंगल सत्याग्रह (1930) में भागीदारी, पुलिस की लाठियों से लहूलुहान एक माह की जेल के साथ जंग- ए -आजादी में शिरकत से उन्होंने शुरुआत की थी। उस समय उनकी आयु 18-19 बरस के आस-पास रही होगी। जंगल सत्याग्रह मध्य भारत (मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़) व महाराष्ट्र के आदिवासियों द्वारा बरतानिया शासन के वन अधिनियम के विरोध में 1922 से शुरू हुआ था। यह आदिवासी जनजातियों को साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन की कतार में सम्मिलित करने की नई शुरुआत थी। वन अधिनियम के माध्यम से ब्रिटिश सरकार ने वन उपज पर सरकारी स्वामित्व घोषित किया था। आदिवासियों के परंपरागत अधिकार समाप्त कर दिए गए। अब वे जलावन के लिए भी लकड़ी लेने जाते थे, तो उन्हें जुर्माना देना पड़ता था। मवेशियों के जंगल में घुसने की स्थिति में सरकारी अधिकारी उन्हें बंधक बना लेते थे। आदिवासी समुदाय अपनी छोटी-छोटी आवश्यकताओं के लिए विवश हो गया।

यह पहले विश्वयुद्ध के बाद महंगाई, बेरोजगारी के साथ देश में जबरदस्त जन आंदोलनों का दौर था। कानपुर का मजदूर आंदोलन, अवध के किसानों का आंदोलन, दमनकरी रौलेट एक्ट और जलियांवाला जन संहार के राष्ट्रव्यापी विरोध, देश का हर वर्ग व समुदाय विक्षोभ में उठ खड़ा हुआ था। क्रांतिकारियों ने यु्द्ध के दौरान बरतानियाशाही के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह के महत्वपूर्ण प्रयास किए परंतु सत्ता में भागीदारी के दिलासे से प्रलोभित होकर कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने पहले विश्वयुद्ध में बरतानिया का साथ दिया। युद्ध समाप्त होने के बाद स्वराज या औपनिवेशिक राज की जगह मांटेग्यू- चेम्सफोर्ड सुधारों के नाम पर गवर्नर जनरल की अकूत ताकत के साथ धारा सभा (कौंसिल) के रूप में निराशा ही मिली। इसी तरह अंग्रेजों ने तुर्की के ख़लीफा की मान्यता का जो आश्वासन दिया था उसे पूरा नहीं किया।

तुर्क साम्राज्य के विभाजन व मध्य एशिया के औपनिवेशीकरण की नीतियों के प्रतिरोध में देश में खिलाफत आंदोलन शुरू हुआ। इन परिस्थितियों में कांग्रेस द्वारा मुस्लिम लीग और खिलाफत आंदोलन के साथ मिलकर असहयोग आंदोलन (1920-22) की शुरुआत की गई थी। मध्य भारत के बैतूल जिले से जनवरी सन् 1922 के प्रथम सप्ताह में ‘वन अधिनियम’ को तोड़ने हेतु जंगल सत्याग्रह प्रारंभ हुआ था। तीन सप्ताह में 33 सत्याग्रहियों को हथकड़ी लगाकर 70 किलोमीटर, पैदल चलाकर धमतरी लाया गया था। सत्याग्रहियों को 3 से 6 माह के कारावास एवं जुर्माना से दंडित किया गया। असहयोग आंदोलन का विस्तार पहाड़-जंगलों में रहने वाले आदिवासियों में होना बरतानिया साम्राज्य के साथ उनके सहयोगी भारत के पूंजीपति और सामंतीवर्ग के लिए भी बड़ा खतरा था। गोरखपुर के चौरी-चौरा में बरतानियाशाही के जुल्म से विक्षुब्ध किसानों के उग्र विरोध को बहाना बनाकर 1922 में कांग्रेस नेतृत्व ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। इस तरह आंदोलित जनता के साथ जंगल सत्याग्रह आंदोलन भी कुंठित हो गया।

बहरहाल, वन अधिनियम की ज्यादतियों के खिलाफ विरोध जारी रहा। संवैधानिक सुधार के रास्ते पर नेहरू कमेटी की रिपोर्ट की नाकामयाबी, साइमन कमीशन का बहिष्कार और उसके बाद 1930 में कांग्रेस ने नमक सत्याग्रह के साथ “सविनय अवज्ञा आंदोलन” की शुरुआत की। क्रांतिकारी नेता सरदार गंजन सिंह कोरकू की अगुआई में जंगल सत्याग्रह नए वेग से उठ खड़ा हुआ। जंगल से आदिवासी कंधे पर कंबल और हाथ में लाठी लेकर विरोध-प्रदर्शन के लिए उमड़ने लगे। मध्य भारत की कांग्रेस कमेटी ने भी आंदोलन को अपना लिया। ‘कानपुर मजदूर आंदोलन का इतिहास’ के लेखक कामरेड सुदर्शन चक्र के अनुसार दादा देवी दत्त अग्निहोत्री “16-17 साल की किशोर आयु में नौकरी के लिए नागपुर अपने बहनोई मथुरा प्रसाद अवस्थी के पास गए… वे वहां स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े।1930 में तले गांव जिला वर्धा आरबी तहसील के जंगल सत्याग्रह में उन्होंने प्रथम बार जेल यात्रा की।… नागपुर में जुलूस पर पुलिस ने लाठी चार्ज किया। देवीदत्त उस लाठी चार्ज में घायल हुए। उन्हें गिरफ्तार करके एक माह की कैद भी दे दी गई।”1 (1. साप्ताहिक जय प्रजा, सितम्बर 1977 से उद्धृत)

फतेहपुर : जंग-ए-आजादी की विरासत

देवीदत्त अग्निहोत्री का जन्म 1911 में जिला फतेहपुर के गांव रेवाड़ी (बुजुर्ग) में एक किसान परिवार में हुआ था। वे अपने पिता बैजनाथ और माता रामप्यारी के दूसरे पुत्र थे। ये तीन भाई थे और तीनों स्वतंत्रता सेनानी थे। बड़े भाई देवी दयाल अग्निहोत्री को 1941 में व्यक्तिगत सत्याग्रह में भाग लेने के लिए भारत रक्षा कानून के अंतर्गत एक वर्ष का सश्रम कारावास हुआ, 1942 में “भारत छोड़ो आंदोलन” के दौरान भी वे नजरबंद रहे। छोटे भाई शम्भू दयाल क्रांतिकारी विचार के थे। अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान पुलिस ने जहां गिरफ्तारियों, लाठी-गोली व क्रूर दमन का सहरा लिया वहीं नौजवानों के जिस दल ने उग्र प्रतिरोध किया उसमें शम्भू दयाल अग्निहोत्री भी थे। उन्हें अपने अन्य साथियों के साथ कानपुर सेन्ट्रल रेलवे स्टेशन बम कांड और निशात टाकीज़ बम विस्फोट के प्रयास के लिए राजद्रोह व अन्य संगीन आरोपों में गिरफ्तार किया गया2 (2.संदर्भ : दैनिक प्रताप 18 फरवरी, 1945)। सत्र न्यायालय से इन्हें मृत्यु दंड की सजा सुनाई गई थी जिसकी अपील उच्च न्यायालय में 1945 में की गई थी। आजादी के बाद ये सभी मुक्त हो गए।

1942: अगस्त क्रांति में कानपुर

कांग्रेस ने 9 अगस्त,1942 से ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के लिए प्रस्ताव पारित करते हुए आम जनता का जबरदस्त आह्वान किया था ‘करो या मरो’। देश भर में प्रमुख नेताओं की गिरफ्तारी का सिलसिला प्रारंभ हो चुका था। कानपुर में भी 9 अगस्त को सवेरा होने से पहले ही गिरफ्तारियां शुरू हो गई थीं। नाराययण प्रसाद अरोड़ा, शिव नारायण टंडन, डॉ. जवाहर लाल रोहतगी, सूर्य प्रसाद अवस्थी, जीजी जोग, केची बेरी, रेवा शंकर त्रिवेदी व अन्य जिले के प्रमुख नेताओं को गिफ्तार कर जेल में ठूंस दिया गया था। कांग्रेस पार्टी के जो नेता फरार हो गए थे उनमें बृज बिहारी मेहरोत्रा, दादा देवीदत्त अग्निहोत्री भी थे। वे अंडरग्राउंड होकर क्रांति की अलख जगा रहे थे। कानपुर में कांग्रेस मुख्यालय ‘तिलक हाल’ सील पर पुलिस ने कब्जा कर वहां पुलिस की बंदूक व हथियारों का गोदाम बना दिया था। सत्ता के दमन ने जन प्रतिरोध तीव्र कर दिया। जेल में जगह नहीं बची। “कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी” आंदोलन में हरावल भूमिका अदा कर रही थी। जुझारू नौजवानों ने सरकारी भवनों को निशाना बनाया। सेन्ट्रल स्टेशन पर बम विस्फोट, माधना रेलवे स्टेशन, नरोना एक्सचेन्ज पोस्ट ऑफिस आदि सरकारी इमारतों में आगजनी, पुलिस थानों पर हमले हो रहे थे।

“कांग्रेस समाजवादी पार्टी” कानपुर से “आजाद हिंद” नामक भूमिगत अख़बार निकालती थी। भूमिगत रहकर आज़ादी की जंग चला रहे दादा देवी दत्त अग्निहोत्री के बारे में उसके 8 नवम्बर के अंक में उनकी 2 नवम्बर की शाम को गिरफ्तारी की खबर के साथ छपा था, “गिरफ्तारी के बाद पुलिस ने उनको बहुत पीटा और यातनाएं देकर गोपनीय जानकारियां उगलवाने की कोशिश की परंतु वे उनसे कुछ भी हासिल नहीं कर सके”। दादा देवी दत्त अग्निहोत्री 1936 में आचार्य नरेन्द्र देव के नेतृत्व में बनी “कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी” में सम्मिलित हो गए थे।

जय प्रकाश नारायण इसके राष्ट्रीय सचिव थे। दरअसल, 1939 में दूसरा विश्वयुद्ध शुरू होते ही कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने युद्ध की मुखालफत और आज़ादी की जंग की तैयारियां प्रारंभ कर दी थीं। दादा देवीदत्त अग्निहोत्री ने 1940 में फतेहपुर में छह जन सभाएं करके युद्ध के साम्राज्यवादी चरित्र को स्पष्ट करते हुए जिस प्रकार के भाषण दिए उन्हें राजद्रोही करार देकर बरतानिया साम्राज्य ने डेढ़ वर्ष का कठोर कारावास का दंड दिया। 1942 में “कांग्रेस ने अंग्रजों भारत छोड़ो” का प्रस्ताव पारित कर जनता का आह्वान किया “करो या मरो”। देवी दत्त अग्निहोत्री अंडरग्राउंड हो गए और सरकार की नजरों से गुप्त रहकर विभिन्न स्थानों से विद्रोह संचालित करते रहे। इसी दौरान 2 नवम्बर, 1942 को गिरफ्तार हुए थे। जेल से 1945 में ही वे रिहा हुए।3 (3. संदर्भ : महान स्वतंत्रता सेनानी दादा देवी दत्त अग्निहोत्री – लेखक सुदर्शन चक्र; साप्ताहिक जय प्रदा 5 सितम्बर, 1977)।

मजदूर आंदोलन

तीस का दशक परिवर्तन का दशक था। जंगल आंदोलन में 1930 में सजा काट कर रिहाई के बाद वे नागपुर से फतेहपुर अपने गांव लौट आए थे। यहां फिर वे कांग्रेस की बानरसेना द्वारा मर्दनशुमारी के नम्बर मिटाओ आंदोलन में शरीक हो गए। उन्हें तीन वर्ष का कारावास मिला। गांधी-इर्विन समझौते के अंतर्गत रिहा राजबंदियों में वे भी थे। रिहा होने के बाद वे इंदौर चले गए। इंदौर सूती वस्त्र उद्योग के केन्द्र के रूप में विकसित हो रहा था। दादा ने वहां ‘कल्याण हुकुमचन्द सूत मिल’ में बिन्ता श्रमिक के रूप में काम किया। यहां से मजदूर आंदोलन में उनकी शुरुआत हुई। ‘नन्द लाल भंडारी मिल’ में मजदूर हड़ताल में सक्रियता के कारण गिरफ्तार किए गए। तीन माह कारावास के बाद लौटे। अब उन्होंने कानपुर को कार्यस्थली बना लिया। पी. सी. जोशी की भतीजी चित्रा जोशी ने दादा देवी दत्त अग्निहोत्री के साथ एक साक्षात्कार का हवाला देते हुए बताया है “कानपुर आने से पहले वे गुजरात और मध्य भारत गए, जंगल सत्याग्रह में सम्मिलित हुए नागपुर में रहे फिर वहां से मुम्बई, इंदौर और उज्जैन में” .. वे ,एक कुशल बुनकर श्रमिक थे और बिन्ता विभाग में बतौर सुपरवाइजर काम करते थे।”4 (4. ‘lost world’, published by permanent black,D28, Oxford Apartment,11 ip extension, delhi 11oo92)

मजदूर आंदोलन का पहला दौर (1920-27)

कानपुर के विभिन्न उद्योगों के 20 हजार मजदूरों की ऐतिहासिक हड़ताल और कानपुर मजदूर सभा की स्थापना के साथ संगठित मजदूर आंदोलन के नए अध्याय की शुरुआत हुई। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद से महंगाई की मार, आर्थिक दुश्वारियों से जनता बेहाल थी। 1918-19 के बीच जीवन स्तर सूचकांक में 43 फीसदी इजाफा हो गया जिसके कारण बुनकर मजदूरों के वास्तविक वेतन में 31 प्रतिशत और कताई मजदूरों के वेतन में 30 प्रतिशत गिरावट दर्ज की गई, जबकि कपड़े के दाम दो गुना बढ़ गए थे। मालिकों ने युद्ध के दौरान और युद्ध समाप्त होने के बाद महंगाई के बीच जमकर मुनाफा लूटना जारी रखा। हालात यह थे की कारखानों से इतर दिहाड़ी जो 4 या 5 आना दिन की मजदूरी पाते थे वे दो गुना 8 आने रोज मजदूरी वसूल रहे थे। युद्ध काल में मांग की पूर्ति के लिए बढ़ाए गए काम के घंटों के कारण मजदूरों पर काम का बोझ भी बढ़ गया था।

मजदूर आंदोलन बहुत तीव्र था। गणेश शंकर विद्यार्थी के समाचार पत्र “प्रताप” में इन हालतों का विस्तृत हवाला दिया गया था। उसमें बताया गया है कि ड्यूटी पर 1 मिनट भी देर होने पर 1 आना जुर्माने का वेतन से काट लिया जाता था। अहातों में गंदगी का आलम यह था कि संक्रामक रोगों की चपेट में आबादी बेहाल थी। 1918 में इंफ्लुएंजा महामारी के रूप में फैल गया था। ये वे हालात थे जिसमें कानपुर का मजदूर अभूतपूर्व आंदोलन में एकजुट हो गया था। निश्चय ही होम रूल आंदोलन, स्वराज पार्टी और कांग्रेस में गरम दल तथा अंतराष्ट्रीय मजदूर आंदोलन विशेषकर 1917 में अक्टूबर क्रांति द्वारा रूस में मजदूर राज की स्थापना मजदूर वर्ग के इस स्वत:स्फूर्त आंदोलन का प्रेरणास्रोत रहे।

1921 में कानपुर में मजदूरों की तीन हड़तालें और हुईं। दमनकारी “रौलेट एक्ट” के विरोध में सत्याग्रह में मजदूरों की शिरकत को लेकर प्रस्ताव कांग्रेस में भी पारित हुआ, हालांकि गांघीजी मजदूरों को असहयोग आंदोलन से अलग रखने और अंतिम अस्त्र के रूप में हड़ताल का सहारा लेने से पूर्व मिल मालिकों से इजाजत के पक्ष में थे। वे मानते थे अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन में मिल मालिकों को भी साथ रखना जरूरी है।5(5. History Of Kanpur – Dr. Arvind Arora, published by Kanpur Itihas Samiti) कानपुर के मजदूरों ने एक सप्ताह की शानदार हड़ताल कर कानपुर बंद किया। लाला लाजपत राय के स्वास्थ्य में सुधार के लिए कानपुर के मजदूर 22 जुलाई 1922 को कार्य विरत रहे। यह मजदूर वर्ग की राजनीतिक चेतना जाहिर करता है। इस वर्ष1922 विक्टोरिया मिल के मजदूरों की चार सप्ताह और म्योर मिल के मजदूरों की छह सप्ताह की हड़ताल हुई।

एल्गिन मिल में मजदूरों पर पुलिस द्वारा लाठी भाजी गई। मजदूरों ने पथराव करके जवाब दिया। इस दौरान मजदूर वर्ग के मध्य से रमजान अली नामक जुझारू मजदूर नेता उभरा था जो कि डॉ. मुरारी लाल रोहतगी जैसे मध्य वर्गीय नरम नेताओं से अलग था। विक्टोरिया मिल में एक अंग्रेज सिलाई मास्टर ने रामरतन सिंह नामक मजदूर को थप्पड़ मार दिया। मिल के 3000 मजदूरों ने काम बंद कर दिया। 21 दिसम्बर, 1923 से 1 जनवरी, 2024 पूरे 15 दिन मिल बंद रही। मालिकों ने 1 जनवरी से फिर मिल खोली पर हड़ताल जारी रही। 5 फरवरी से काम सुचारू हो पाया। 4 अप्रैल, 1924 को बोनस की मांग पर कानपुर कॉटन मिल (एल्गिन मिल नं. 2) के मजदूरों ने बोनस के लिए हड़ताल कर दी। अन्य मिलों में बोनस बंट चुका था। मजदूरों ने मालिकों का रवैया देखकर नयी रणनीति अपनाई। काम बंद कर मिल के भीतर धरना देकर बैठ गए। 

प्रबंधकों ने पुलिस बुला ली। मजदूरों पर भयंकर लाठी चार्ज किया। मजदूरों के प्रतिरोध पर फायरिंग की। मजदूरों और बाहर एकत्र भीड़ पर घोड़े दौड़ाकर उन्हें कुचला गया। कुछ मजदूरों को भट्टी में झोंक दिया गया। सरकार ने चार मजदूरों की मौत कबूली। जबकि अनेक लापता दिखाए गए। कानपुर कॉटन मिल का नाम तभी से “खूनी काटन मिल” पड़ गया। रमजान अली और शिव बालक पर सरकार ने दंगा भड़काने के आरोप में मुकदमा दर्ज किया।

कांग्रेस की समझौतापरस्त नीतियों के कारण कानपुर मजदूर सभा पर कांग्रेस का प्रभाव घटने लगा। राधा मोहन गोकुलजी, मौलाना हसरत मोहानी, सत्यभक्त, और शौकत उस्मानी जैसे वामपंथियों का असर कानपुर के मजदूर आंदोलन पर बढ़ना शुरु हुआ। कनपुर मजदूर सभा की ओर से “मजदूर” नाम से एक समाचार पत्र प्रारंभ किया गय। “वर्तमान” अखबार के संपादक रमाशंकर अवस्थी ने लेनिन की जीवनी तथा “रूस की राज्य क्रांति” नामक पुस्तिकाएं लिखीं। कानपुर में ही 28 से 30 दिसंबर,1925 में कम्युनिस्ट पार्टी का पहला खुला सम्मेलन हुआ। राधा मोहन गोकुलजी, सत्यभक्त, श्रीपाद अमृत डांगे, मुजफ्फर अहमद जैसे कामरेडों सहित मेरठ षड्यंत्र केस आदि विभिन्न मुकदमों में जेल में अवरुद्ध कम्युनिस्ट नेतृत्व की पहली कतार की प्रत्यक्ष या परोक्ष हिस्सेदारी इस सम्मेलन में थी। बहरहाल, कानपुर मजदूर सभा के चुनाव में मुरारी लाल रोहतगी को ही संगठन का सदर चुना गया। इसी वर्ष गणेश शंकर विद्यार्थी कौंसिल (धारा सभा) के लिए चुने गए।

(कमल सिंह लेखक हैं।)

जारी..

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