चर्चित पत्रकार रवीश कुमार ने हर्ष गोयनका के एक ट्विट के बारे में गोरख पांडे की कविता का जिक्र किया है। इससे पहले यह कविता व्हाट्सऐप पर भी एक कागज की पुर्जी पर लिखी हुई प्रसारित होती रही। उसमें इसे गोरख पांडे की लिखी हुई बताया गया।
राजा और रानी के जिक्र से संदेह पुष्ट भी हुआ। जर्मन कवि बर्टोल्ट ब्रेष्ट की किसी कविता के गीत में अनुवाद के प्रसंग में गोरख जी ने ‘राजा चाहें खून खराबा, रानी झांसापट्टी, चोरवा रात अन्हरिया जइसे सेन्हिया लगाई।’ की शब्दावली अपनाई थी। गोरख पांडे के किसी संग्रह में लेकिन यह कविता नहीं है इसलिए संदेह हुआ।
फिर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के गोविंद प्रसाद का नाम भी कविता के साथ जुड़ा। गोरख की कविता की विशेषता शब्द संक्षिप्ति है, इसलिए ‘राजा बोला रात है, रानी बोली रात है, ये सुबह सुबह की बात है’ के उनके लिखे होने पर यकीन था।
बहरहाल गोविंद जी का नाम जुड़ने पर फोन पर बात की तो उन्होंने इसकी लंबाई थोड़ी ज्यादा बताई। इस कविता के सिलसिले में कुछ अन्य कथाएं भी सुनने में आईं। किसी का कहना था कि अरुंधति राय को यह कविता तिहाड़ जेल के किसी कैदी के मार्फ़त मिली थी। उस कैदी को जेएनयू के किसी विद्यार्थी ने इसे सुनाया था।
एक कथा यह भी है कि जब गोरख जी जेएनयू में थे तो किसी साथी के नाटक के लिए प्रोमोशनल कविता के रूप में उनके मांगने पर उन्होंने इसे लिख कर दे दिया था। गोरख जी को नजदीक से जानने वाले सलिल मिश्र ने मुझे बताया कि उनका कुछ भी कमरे में नहीं रहता था। जो कुछ भी होता था वह दिमाग या जेब में होता था। जब भी किसी ने मांगा निकालकर दे दिया, इसलिए इस कहानी पर अविश्वास करना मुश्किल है।
उनके कुछ गीत और कविताएं मुझे केवल कैसेट में मिलीं। देहांत के बाद अंतिम कविता तो सचमुच उनकी डायरी से लेकर छापी गई, जिसमें नई सदी में युद्ध या शांति की प्रबलता को लेकर चिंता जाहिर की गई थी। खुद मुझे गाजीपुर के एक भोजपुरी कवि की डायरी में उनके हाथ से लिखी कविता देखने को मिली थी। इसके बावजूद जिस रूप में गोयनका जी ने इसे उद्धृत किया है उस रूप में बहुत संभव है, वह गोविंद जी की ही हो क्योंकि उसकी संक्षिप्ति गोरख जी वाली नहीं है।
वैसे दोनों के जेएनयू से जुड़े होने के कारण आपसी संवाद की संभावना से इनकार भी नहीं किया जा सकता। जो भी हो इस कविता को अब उसके तमाम रूपों में जनता की संपत्ति मानना उचित होगा। बहुत सारे मुहावरों और कहावतों का जन्म इसी तरह हुआ होगा। संघर्ष के दौर में इसी तरह की रचना को जन्म देते हैं और बार-बार उसको नया जीवन देते रहते हैं।
मुख्य बात है कि यह खास शब्द संयोजन व्यंग्य की ऐसी तीखी धार को जन्म देता है जो तानाशाही और चाटुकारिता के दु:खद प्रसार को व्यक्त करने में अतुलनीय है। आश्चर्य नहीं कि तानाशाह इससे घबराते हैं। किसी भी कवि की गुस्सैल तुर्शी को व्यंग्य में ही सबसे बेहतर अभिव्यक्ति मिलती है।
गोपाल प्रधान
(लेखक अंबेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली में प्रोफेसर हैं।)
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