पिछले एक-दो वर्षों से अब यह बात सभी के लिए साफ़ होती जा रही है कि अक्टूबर से दिसंबर तक दिल्ली में वायु प्रदूषण के लिए पंजाब और हरियाणा के किसानों के द्वारा पराली जलाने को मुख्य रूप से जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है।
लेकिन चूंकि पंजाब में पहले कांग्रेस की सरकार थी, इसलिए बीजेपी और आप पार्टी इसे जिम्मेदार बताती थीं, और आज आप पार्टी की सरकार पंजाब में है तो बीजेपी इसे बड़ा मुद्दा बनाये हुए है।
इस साल तो सुप्रीम कोर्ट भी समय से चेत गया, और अक्टूबर में दिल्ली-एनसीआर में कुछ बारिश भी हो गई, इसके बावजूद जैसे ही हवा की रफ्तार धीमी पड़ गई, वायु प्रदूषण एक बार फिर से अपने चरम पर पहुंच गया है, और अस्पतालों में दमा और श्वास संबंधी रोगियों की संख्या में भारी उछाल देखने को मिल रहा है।
गैस चैम्बर में जीने को मजबूर दिल्ली-एनसीआर की आबादी
दक्षिणी मानसून की वापसी के साथ ही अक्टूबर माह से जाड़े की शुरुआत होने लगती है। हवा की रफ्तार धीमी होती चली जाती है, और उत्तर भारत के किसानों के लिए धान की फसल कटाई के बाद गेहूं की बुआई के लिए जल्द से जल्द खेतों में जमा ठूंठ और पराली को नष्ट करने का कार्यभार होता है।
खेती में लाभकारी मूल्य में लगातार गिरावट ने खेतिहर मजदूरों से खेती करने को अलाभकारी बना डाला है, जिसकी वजह से आधुनिकतम संयंत्रों के माध्यम से खेती करना एक बड़ी मजबूरी बन चुका है।
ये चीजें किसानों ने स्वंय नहीं पैदा की हैं, बल्कि सरकार और उसकी कॉर्पोरेट और मल्टीनेशनल के हित में बनाई गई नीतियों का ही नतीजा है कि आज कृषि में श्रमिकों की जरूरत न के बराबर रह गई है।
लेकिन जैसे ही पिछले एक दशक से देश की राजधानी में वायु प्रदूषण खतरनाक स्तर पर पहुंच गया, इसकी रोकथाम के बजाय राजनीतिक दल एक-दूसरे पर आरोप लगाकर अपने पापों से राजनीतिक फायदा उठाने से बाज नहीं आ रहे। और ऐसा लगता है कि यह नीचता आगे भी जारी रहने वाली है, जब तक आम आदमी उनके झूठे नैरेटिव में फंसा रहेगा।
आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, दिल्ली-एनसीआर की हवा में पार्टिकुलेट मैटर की सांद्रता विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा निर्धारित सुरक्षित सीमा से 10 गुना अधिक हो चुकी है और आने वाले दिनों में स्थिति और भी बदतर होने की संभावना है।
दीपावली के लिए पटाखों पर प्रतिबंध के बावजूद दिल्ली के गली मोहल्लों में बच्चे पिछले एक सप्ताह से पटाखे फोड़ रहे हैं। ऐसा जान पड़ता है कि वायु प्रदूषण के खतरों से दिल्ली की 80% आबादी अनजान है।
दीवाली से पहले ही केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आंकड़े बता रहे हैं कि दिल्ली सांस लेने लायक नहीं बची। 40 में से 36 निगरानी केन्द्रों के आंकड़े साफ़-साफ़ इशारा कर रहे हैं कि एक्यूआई स्तर ‘बेहद खराब’ की श्रेणी में चला गया है। बवाना, बुराड़ी और जहांगीरपुरी में तो यह ‘खतरनाक’ स्तर पर पहुंच चुका है।
बवाना का AQI 411, बुराड़ी का 405 तो जहांगीरपुरी का स्तर 402 सूचकांक को छू रहा है। अगले एक सप्ताह यह स्तर 450-500 भी पहुंच जाए तो कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए। आनंद विहार में 391, वजीरपुर 390, अलीपुर 389, ओखला फेज-2 388, सोनिया विहार 385, विवेक विहार 384, अशोक विहार 382, मुंडका 376 तो रोहिणी 374 AQI सूचकांक के साथ बराबर की टक्कर दे रहे हैं।
दिल्ली में पटाखे न फोड़ने को लेकर आम लोग कितने जागरूक हैं, इस बारे में ‘दिल्ली सर्किल’ नामक एक संस्था ने सर्वेक्षण कर कुछ चौंकाने वाले खुलासे किये हैं। इसके अनुसार, 55 फीसदी लोगों ने ही इस बार दिवाली में पटाखे न फोड़ने की बात कही है।
जबकि 18% पटाखे फोड़ने की योजना बना रहे हैं। लेकिन 9% ऐसे भी हैं, जिनके अनुसार वे हर हाल में पटाखे फोड़ेंगे। दिल्ली, गुरुग्राम, फरीदाबाद, गाज़ियाबाद और नॉएडा के कुल 10,526 लोग इस सर्वेक्षण में लिए गये थे, जिसमें 68% पुरुष और 32% महिलाएं थीं।
प्रदूषण के लिए पराली नहीं है सबसे बड़ा खलनायक
पिछले कुछ वर्षों में हुए अध्ययनों, जिनमें सबसे हाल ही में 2023 में आईआईटी कानपुर, आईआईटी दिल्ली, टेरी और एयरशेड, कानपुर के एक संयुक्त उपक्रम द्वारा संचालित अध्ययनों में पाया गया है कि अक्टूबर के मध्य से नवंबर 2022 के अंत तक वायु गुणवत्ता में पराली जलाने की भूमिका औसतन 22% पाई गई थी।
और यह अधिकतम 35% तक पहुंच गई। यह पिछले अध्ययनों के साथ काफी हद तक मेल खाता है, जिसमें अनुमानित किया गया था कि पराली जलाने का योगदान 20%-40% तक रहता है।
आज के अंग्रेजी अखबार, द हिंदू के मुताबिक, इसको आधार बनाकर आईआईटीएम-पुणे) की ओर से वायु गुणवत्ता पूर्वानुमान प्रणाली को तैयार किया जाता है, जो शहरों के माध्यम से वायुजनित प्रदूषकों के प्रवाह को मॉडल करता है। यह दिल्ली के प्रदूषण पर पराली जलाने के प्रभाव की गतिशील प्रकृति को दर्शाता है।
उदाहरण के लिए, इस वर्ष 8 से 19 अक्टूबर तक, दिल्ली में पीएम 2.5 लोड में कृषि उत्पादों का योगदान मात्र 1.2% ही था। इस अवधि के दौरान, औसत AQI 130 -198 (या ‘मध्यम’ प्रदूषण श्रेणी) के बीच रहा।
हालांकि, 21 अक्टूबर को, जब पराली जलाने का सापेक्ष योगदान 3।2% तक बढ़ गया, तो दिल्ली का AQI तुरंत ‘बहुत खराब’ (310) पर पहुंच गया। 23 अक्टूबर को, जब पराली जलाने का सापेक्ष योगदान 16% के मौसमी उच्च स्तर पर पहुंच गया, तो सूचकांक 364 पर गिर गया, जो अभी भी ‘बहुत खराब’ श्रेणी में है।
जाड़े की शुरुआत के साथ प्रदूषण में उछाल के पीछे पराली की भूमिका
सर्दियों की शुरुआत के साथ ही दिल्ली-एनसीआर में हवा की गति में तेज गिरावट आने लगती है और वायु प्रदूषक वायुमंडल के ऊपरी क्षेत्रों में जाने के बजाय जमीन के करीब मंडराने लगते हैं। इस स्थिति में, प्रदूषकों का कोई भी अतिरिक्त स्रोत-जैसे कि पराली जलाना, दिल्ली में प्रदूषक भार को नाटकीय रूप से बढ़ा सकता है।
साथ ही, अध्ययनों से पता चला है कि दिल्ली में लगभग 55% प्रदूषण इसकी क्षेत्रीय सीमाओं के बाहर से उत्पन्न होता है। इस प्रकार, अपेक्षाकृत छोटी-छोटी वृद्धि सूचकांक को 100 अंक तक बढ़ा सकती है और श्रेणियों को ‘खराब’ से ‘बहुत खराब’ और ‘खतरनाक’ श्रेणी में तब्दील कर सकती है।
पीएम 2.5 के लिए कौन से कारक जिम्मेदार हैं?
25 अक्टूबर के आईआईटीएम की वायु गुणवत्ता पूर्वानुमान प्रणाली के अध्ययन से पता चला है कि दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण को बढ़ाने के लिए पराली का योगदान 15% था। वहीं दूसरी तरफ, ‘दिल्ली परिवहन’ जिसमें वाहनों और दिल्ली में प्रवेश करने वाले वाहनों से निकलने वाले कण शामिल हैं, पीएम 2.5 भार के लगभग 18% के लिए जिम्मेदार थे।
असल में पीएम 2.5 के सूक्ष्म कण के लिए सबसे बड़े कारक के रूप में द्वितीयक अकार्बनिक एरोसोल (एसआईए) को जिम्मेदार पाया गया है, जो 32% प्रदूषण के लिए जिम्मेदार है।
इसमें दिल्ली के भीतर और बाहर बायोमास के जलने से 24% और वाहनों से निकलने वाले प्रदूषण से 17% योगदान प्राप्त होता है।
एसआईए तब निर्मित होते हैं जब सल्फर डाइऑक्साइड (SO2), नाइट्रोजन ऑक्साइड (NOx), और अमोनिया (NH3) जैसे गैसीय अग्रदूत अमोनियम सल्फेट या अमोनियम नाइट्रेट बनाने के लिए प्रतिक्रिया करते हैं।
सर्दियों में, दिल्ली के भीतर के स्रोतों से एसआईए का औसत योगदान 16% और दिल्ली के बाहर से 84% है।
वाहनों में इस्तेमाल होने वाले ईंधन से अधिक सड़कों पर बिखरी धूल कहीं ज्यादा पीएम 2.5 को बढ़ाने में योगदान देती है। इस बारे में सरकार जानती है, लेकिन सड़कों को साफ़ रखने को लेकर उसकी उदासीनता जस की तस बनी हुई है।
उसका ध्यान तो सिर्फ पंजाब के किसानों के पराली जलाने और पुराने वाहनों को जल्द से जल्द बेच ऑटो लॉबी की भूख को शांत करने के प्रयोजन पर लगा हुआ है।
दिल्ली में डीजल वाहन के लिए 10 वर्ष और पेट्रोल चालित वाहनों के लिए 15 वर्ष की मियाद तय कर दी गई है। तय समय सीमा पूरी होने के बाद इन गाड़ियों को दिल्ली के भीतर नहीं चलाया जा सकता। इन्हें दिल्ली से बाहर चलाया जा सकता है, तो क्या सिर्फ दिल्ली को ही साफ़ रखकर दिल्ली को बचाया जा सकता है?
नहीं। इसका मकसद कुछ और है। असल में इसके माध्यम से बड़े महानगरों में वाहनों की नई खेप को खपाने और सेकेंडरी मार्केट में अफोर्डेबल दामों पर एक पूरी नयी श्रृंखला के साथ ग्राहकों को खड़ा करने की है।
जो सालाना लाखों करोड़ रूपये का डीजल पेट्रोल फूंककर सरकार के खजाने में एक्साइज ड्यूटी और जीएसटी भरने की आदत को अपने जीवन में शुमार कर लें। वायु प्रदूषण इसका बाय-प्रोडक्ट होगा, जो पूरे देश को अपनी जद में ले लेगा।
अब खबर आ रही है कि दिल्ली सरकार 10,000 सिविल डिफेन्स वालंटियर्स की तैनाती कर प्रदूषण को रोकने के लिए जमीन पर उतर रही है। इसके तहत सभी प्रमुख चौराहों पर वाहनों की सुचारू आवा-जाही के साथ-साथ धूल के उड़ने को रोकने के लिए पानी का छिड़काव शामिल है।
लेकिन इन फौरी उपायों से न तो वायु प्रदूषण का कोई मुकम्मल इलाज होना है, और न ही ये उपाय इसे पूरी तरह से रोक सकते हैं। ये तो सिर्फ खानापूरी है, जिसे सुप्रीम कोर्ट और एनजीटी का मान रखने और आम लोगों की नजरों में खुद को न गिरने देने की कवायद मात्र है।
वायु प्रदूषण से हर वर्ष 20 लाख मौतें
देश में हवा की गुणवत्ता का हाल यह है कि हर वर्ष तकरीबन 20 लाख मौतें सिर्फ इसी वजह से हो रही हैं। अगर ध्यान से देखें तो यह सारा कुचक्र सरकार और उसकी नव-उदारवादी आर्थिक नीति का नतीजा है।
लेकिन इसके लिए अपराधी उन्हीं लोगों को ठहराया जाता है, जिन्हें पहले सरकार और कॉर्पोरेट के द्वारा विज्ञापनों और खुशहाल जीवन के सपने दिखाकर आदी बना दिया गया है।
Earth।org ने चीन का उदाहरण पेश करते हुए अपने एक लेख में बताया है कि चीन ने 2013 के बाद करोड़ों लोगों को गरीबी से बाहर निकाला है, जैसा कि दुनिया के किसी भी अन्य देश ने नहीं किया है।
उस आर्थिक प्रगति की कीमत वायु प्रदूषण में नजर आती है, जिसने सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट पैदा कर दिया था, जिसके चलते हर साल 11 लाख से अधिक लोग मारे जाते थे।
यह देश के लिए भी महंगा साबित हुआ, क्योंकि प्रदूषण के कारण फसल खराब होने से अर्थव्यवस्था को सालाना 37 बिलियन डॉलर का नुकसान होता था।
बीजिंग के ‘एयरपोकैलिप्स’ की घटना के बाद नागरिकों में भारी गुस्सा और निराशा को देखते हुए चीन ने अपने शहरों की वायु गुणवत्ता को बेहतर करने का बीड़ा उठाया। सरकार ने नए कोयला आधारित बिजली संयंत्रों पर प्रतिबंध लगा दिया और बीजिंग-तियानजिन-हेबेई और पर्ल और यांग्त्ज़ी डेल्टा के शहरी समूहों सहित सबसे प्रदूषित क्षेत्रों में कई पुराने संयंत्रों को बंद कर दिया।
इसके अलावा, शंघाई, शेनझेन और ग्वांगझोउ जैसे बड़े शहरों में सड़कों पर कारों की संख्या को सीमित कर दिया गया और पूरी तरह से इलेक्ट्रिक बस बेड़े की शुरुआत की गई। देश ने स्टील उत्पादन की क्षमता को कम कर दिया और कोयला खदानों को बंद कर दिया।
ग्रेट ग्रीन वॉल जैसे आक्रामक वनरोपण और पुनर्वनरोपण कार्यक्रम भी शुरू किए गये और 12 प्रांतों में 35 बिलियन से अधिक पेड़ लगाए गये।
ऐसे कार्यक्रमों में 100 बिलियन डॉलर से अधिक के निवेश के साथ, चीन का प्रति हेक्टेयर वन व्यय अमेरिका और यूरोप से अधिक हो गया जो कि वैश्विक औसत से तीन गुना अधिक था।
वायु प्रदूषण के खिलाफ अपनी लड़ाई के दूसरे चरण के हिस्से के रूप में, 2018 में, चीन ने ब्लू स्काई वार जीतने के लिए अपनी तीन वर्षीय कार्य योजना पेश की।
इसका नतीजा आज यह है कि चीन में नागरिक अपनी औसत उम्र में 2.4 वर्ष की वृद्धि को हासिल करने में कामयाब है। सवाल है, भारत सरकार कब इसे गंभीरता से लेगी?
(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)
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