एक अर्थव्यवस्था वह है, जिसका संबंध देश की बहुसंख्यक आबादी से होता है। चूंकि इसके बरक्स एक दूसरी अर्थव्यवस्था का भी वजूद उभर आया है, इसलिए उससे अलग दिखाने या समझने के लिए आम जन से जुड़ी अर्थव्यवस्था को आज वास्तविक अर्थव्यवस्था कहा जा रहा है। इसका संबंध उत्पादन, वितरण, उपभोग, मांग और निवेश के चक्र से होता है।
इसके बरक्स खड़ी हुई अर्थव्यवस्था वित्तीय है, जिसके प्रमुख तत्व स्टॉक्स (शेयर), बॉन्ड, ऋण, वायदा कारोबार और डेरिवेटेविव्स हैं। इसका संबंध ज्यादातर देशों- और भारत में तो निश्चित रूप से ही, आबादी के बहुत छोटे से हिस्से से है।
वैसे तो यह उन तमाम देशों की कहानी है, जिन्होंने नव-उदारवाद को गले लगाया, लेकिन यहां हम अपनी बात भारत तक सीमित रखेंगे। कहानी यह है कि वास्तविक अर्थव्यवस्था संकटग्रस्त है, जबकि वित्तीय अर्थव्यवस्था चमक रही है। नतीजा है कि आबादी का बहुसंख्यक हिस्सा बदहाल होता गया है, जबकि छोटा-सा हिस्सा चमक रहा है।
भारत की वास्तविक अर्थव्यवस्था को अब संकटग्रस्त कहना शायद काफी नहीं होगा। इसकी असल कहानी यह सामने आ रही है कि यह पीछे की दिशा में दौड़ रही है और यह रफ्तार तेज ही होती जा रही है। यानी यह प्रगति के बजाय अवनति की कथा है।
तथ्य इसी दिशा की पुष्टि करते हैं। फिर भी सरकारी और मेनस्ट्रीम मीडिया नैरेटिव्स प्रगति का भ्रमजाल खड़ा किया गया है। जबकि इस भ्रमजाल पर तथ्यों की रोशनी डाली जाए, तो इस कथानक का तुरंत परदाफाश हो जाता है। दरअसल, ऐसे कथानकों के जरिए सरकार और मीडिया एक बड़ा दुस्साहस दिखा रहे हैं, जिस पर आर्थिक अज्ञान से ग्रस्त लोग सहज यकीन कर लेते हैं।
हमने पीछे की दिशा में अर्थव्यवस्था के दौड़ने की बात क्यों कही? इसलिए कि हर विकसित हुई अर्थव्यवस्था की दिशा यह रही है कि लोग रोजगार के लिए कृषि से उद्योग या सेवा क्षेत्र की ओर जाते हैं। विकसित होने का इसे एक पैमाना भी माना जाता है। लेकिन भारत में उलटा हो रहा है।
दरअसल, भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रतिगामी दिशा 2017-18 से ही जारी है। ना सिर्फ जारी है, बल्कि उसकी रफ्तार और तेज हो गई है। और यह बात खुद सरकारी आंकड़ों से सामने आई है। गौर करें:
- वित्त वर्ष 2023-24 में कृषि पर निर्भर श्रमिकों की संख्या 25 करोड़ 90 लाख तक पहुंच गई।
- इसके पहले वाले वित्त वर्ष में ये 23 करोड़ 30 लाख थी।
- 2004-05 से 2016-17 तक दिशा यही थी। उस दौरान कृषि पर निर्भर श्रमिकों की संख्या में छह करोड़ 60 लाख की गिरावट आई।
- उसके बाद दिशा बदल गई। यहां पर इस ओर ध्यान खींचना उचित होगा कि 2016 वह साल था, जब नोटबंदी लागू की गई थी। साल भर बाद उसके प्रभाव जाहिर होने लगे।
- 2017-18 में भारत में कृषि निर्भर मजदूरों की संख्या 19 करोड़ दस लाख थी। तब से ये तदाद लगतार बढ़ी है। अब तक इसमें कुल छह करोड़ 80 लाख की वृद्धि हो चुकी है।
- साफ है कि 2004-05 से 2016-17 के बीच जो प्रगति हुई, वह पलट कर अब नकारात्मक हो चुकी है।
- इस दरम्यान जिन राज्यों में यह बढ़ोतरी सबसे ज्यादा हुई, वे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार और राजस्थान हैं, जिन्हें कभी अपमान भाव के साथ “बीमारू” राज्य कहा जाता था। सवाल उठेगा कि क्या पुरानी स्थिति वापस आ गई है?
- ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर निर्भर श्रमिकों के बीच महिलाओं की संख्या तेजी से बढ़ी है। भारतीय वर्क फोर्स में महिलाओं की स्थिति पहले भी बेहतर नहीं थी। मगर गुजरे सात वर्षों में यह बदतर होती चली गई है।
जिस तरह अर्थव्यवस्था का दो स्वरूप बन गया है, लगता है कि नरेंद्र मोदी सरकार भी दो तरह की बातें भी करती है। राजनेता प्रगति की कहानी बताते हैं। लेकिन विशेषज्ञ अधिकारी, खास कर जब उद्योग जगत के कर्ता-धर्ताओं के सामने उपस्थित होते हैं, तो वे असल कथा बताते हैं।
उन्हें अहसास है कि भारत की ‘ग्रोथ स्टोरी’ कहीं अटक गई है। वजह है आबादी के बहुत बड़े वर्ग की उपभोग क्षमता में गिरावट। नतीजतन मांग गिर गई है और उसका असर अब कॉरपोरेट सेक्टर पर भी पड़ रहा है। उन्हें यह भी अहसास है कि ये स्थिति बनी रही, तो जीडीपी की तीव्र वृद्धि दर के दावे को कायम रखना कठिन हो जाएगा।
वित्त मंत्रालय के मुख्य आर्थिक सलाहकार वी अनंत नागेश्वरन इस बारे में सार्वजनिक चिंता जता चुके हैं। कुछ दिन पहले उद्योगपतियों के संगठन एसोचैम के एक आयोजन में उन्होंने कॉरपोरेट मुनाफे और श्रमिकों की आमदनी के बीच संतुलन बनाए रखने पर जोर दिया।
कहा कि कॉरपोरेट का मुनाफा 15 साल के सबसे ऊंचे स्तर पर है। लेकिन इससे हुई आमदनी के ज्यादातर हिस्से का इस्तेमाल कंपनियों ने ऋण चुकाने में किया है। जबकि कॉरपोरेट मुनाफे की तुलना में कर्मचारियों की तनख्वाह नहीं बढ़ी है।
नागेश्वरन ने कहा- ‘बैलेंस सीट को बेहतर करना अच्छी बात है। लेकिन कॉरपोरेट मुनाफे और श्रमिकों की आय वृद्धि के बीच संतुलन बने रहना चाहिए। यह अनुपात कायम नहीं रहा, तो अर्थव्यवस्था में पर्याप्त मांग नहीं बचेगी और कॉपोरेट उत्पादों की खरीद नहीं होगी।’
यह वो बात है, जिस पर अनेक विशेषज्ञ लंबे समय से रोशनी डालते रहे हैं। पिछले कुछ समय से कंपनी अधिकारी और मार्केट एजेंसियां भी इस बात को दो-टूक कह रही हैं कि देश में मध्य वर्ग ढह रहा है।
कुछ दिन पहले मार्केट एजेंसी कैंटार ने अपनी रिपोर्ट जारी की थी। उस मौके पर कैंटार साउथ एशिया के महानिदेशक सौम्य महंती ने कहा थाः ‘कोरोना के बाद अर्थव्यवस्था में हुआ सुधार व्यावहारिक रूप में ‘K’ आकार का रहा है, जिसमें मध्य वर्ग पिस गया है।
2024 में बड़े दायरे में लोगों ने महसूस किया कि वे पहले की तुलना में गरीब हो गए हैं। इसका परिणाम उपभोक्ता विश्वास के गतिरुद्ध होने के रूप में सामने आया है।’ कैंटार के मुताबिक अगले वर्ष भी मांग मद्धम ही रहेगी, क्योंकि ऊंची महंगाई वास्तविक आय को प्रभावित कर रही है।
नागेश्वरन ने जो कहा, उसकी पुष्टि कॉरपोरेट तनख्वाह पर नज़र रखने वाली एजेंसी क्वेस पे-रोल एजेंसी के जुटाए आंकड़ों से होती है। उसके मुताबिक 2019 से 2023 के बीच कॉरपोरेट सेक्टर के किसी भी क्षेत्र में औसत वेतन वृद्धि 5.4 प्रतिशत से ऊंची नहीं रही।
यह सर्वोच्च वृद्धि एफएमसीजी क्षेत्र में दर्ज हुई। ईएमपीआई (इंजीनियरिंग मैनुफैक्चरिंग, प्रोसेस और इन्फ्रा) सेक्टर में तो वृद्धि महज 0.8 प्रतिशत रही। इस दौर में सबसे ज्यादा मुनाफा बीएफएसआई (बैकिंग, वित्तीय सेवाएं, एवं बीमा) सेक्टर ने कमाया है। फिर भी वहां पांच वर्ष में औसत वेतन वृद्धि 2.8 प्रतिशत रही है।
इस दौर में कोई वर्ष ऐसा नहीं गया, जिसमें मुद्रास्फीति की दर 4.77 प्रतिशत से कम रही हो। यह न्यूनतम दर भी 2019 में दर्ज हुई थी। उसके बाद से हर वर्ष यह पांच फीसदी के ऊपर रही है। 2020 में तो यह 6.7 प्रतिशत दर्ज रही थी। सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि जब महंगाई वेतन वृद्धि से ऊंची हो, तो क्या नतीजा होगा।
इसका अर्थ होता है, वास्तविक आय में गिरावट। यही मध्य वर्ग के ढहने का कारण है। इसका प्रभाव पूरी शहरी अर्थव्यवस्था पर दिखा है। इसी कारण दिहाड़ी मजदूरों के शहरों से गांव जाने का क्रम बना हुआ है।
बहरहाल, श्रमिक एवं मध्य वर्ग का चाहे जो भी हो रहा हो, एक तबके की चमक जरूर बढ़ रही है। वे भारत के अरबपति हैं। जिस समय देश में मध्य वर्ग के ढहने और उपभोक्ता बाजार के मंद होने की चर्चा चिंता का कारण बनी हुई है, तभी अरबपतियों का धन तेज रफ्तार से बढ़ रहा है। ध्यान दें:
- वित्त वर्ष 2023-24 में अरबपतियों के धन में 42 फीसदी इजाफा हुआ। रकम में देखें, तो यह बढ़ोतरी 905 बिलियन डॉलर की रही।
- अरबपतियों की संख्या के लिहाज से भारत पहले ही दुनिया में तीसरे नंबर पर आ चुका है।
- चूंकि चीन में विषमता घटाने की नीति पर सख्त अमल के कारण अरबपतियों की संख्या और उनका सकल धन घट रहा है, इसलिए संभव है कि कुछ वर्षों में भारत इस सूची में अमेरिका के बाद दूसरे नंबर पर आ जाए।
- दस साल के आंकड़ों पर गौर करें, तो भारत में अरबपतियों की संख्या दो गुना होकर 185 तक पहुंच चुकी है, जबकि उनका कुल धन लगभग पौने तीन गुना (सही आंकड़ा 263 प्रतिशत है) बढ़ गया है।
- स्विस बैंक यूबीएस हर वर्ष अरबपतियों के बारे में रिपोर्ट जारी करता है। उसकी ताजा रिपोर्ट के मुताबिक इस समय वैश्विक रुझान अरबपतियों का धन अपेक्षाकृत घटने का है, लेकिन भारतीय अरबपति इस रुझान को मात देने में कामयाब हैं।
- पिछले वित्त वर्ष में अरबपतियों के धन के लिहाज से टॉप पांच देशों में अमेरिका, जर्मनी और ब्रिटेन में भी अरबपतियों का कुल धन बढ़ा, मगर सबसे ज्यादा वृद्धि भारत में दर्ज हुई।
- सिर्फ चीन ऐसा देश रहा, जहां इस वर्ग के कुल धन में गिरावट आई।
एक तरफ बढ़ती खुशहाली और दूसरी तरफ बदहाली इस बात साक्ष्य हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था K shape (आकार) में ढल चुकी है। K की अर्थव्यवस्था में जिस तरह इस अक्षर में एक डंडी ऊपरी की तरफ है, वैसे ही समाज का एक छोटा-से तबके की माली हालत ऊपर चढ़ती जाती है, जबकि निचले छोर पर मौजूद लोग और गिरते चले जाते हैं।
अर्थव्यवस्था के इस आकार ने trickle down सिद्धांत को सिरे से गलत साबित कर दिया है। पूंजीवादी अर्थशास्त्री इस सिद्धांत के जरिए बताते रहे हैं कि जब ऊपर धन बढ़ता है, तो वह रिस कर नीचे तक पहुंचता है। यानी लाभ सबको मिलता है, लेकिन यह लाभ उनके वर्गीय अनुपात में होता है।
लेकिन ये बात आज के तजुर्बे से गलत साबित हो गई है। अरबपतियों और उनसे सीधे तौर पर जुड़े छोटे से तबके की खुशहाली अन्य वर्गों की बदहाली की कीमत पर हासिल हो रही है। कारण साफ है। अरबपति उत्पादक अर्थव्यवस्था में निवेश के बजाय पैसा से पैसा बढ़ाने और तफरीह पर धन लुटाने में ज्यादा रुचि दिखा रहे हैं। नतीजा बाजार संकटग्रस्त हो गया है।
दीर्घकाल में इसका असर सब पर पड़ेगा, लेकिन वह दीर्घकाल की बात है। शासक वर्ग ऐसी संभावनाओं पर नहीं सोचते। अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड कीन्स उनके आदर्श वाक्य लिख कर जा चुके हैः In the long run everybody is dead यानी दीर्घकाल में तो सबको मर जाना है!
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)
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