Saturday, April 20, 2024

सावन के बहाने ‘शिवलिंग’ के रूपक की व्याख्या

सावन ‘चौमास’ का एक महत्पूर्ण महीना है। जिसमें प्रकृति ऋतुवती होती है। यानि सावन प्रकृति का महीना होता है। सृजन और प्रजनन का महीना होता है। जिसमें सांप जैसे विषैले जीव से लेकर हाथी जैसे विशाल जानवर, कुत्ते, बिल्ली जैसे आम जानवरों से लेकर शेर बाघ जैसे जंगली जानवर, मेढ़क जैसे उभयचर, मछली जैसे जलचर और पक्षी वर्ग इसी महीने में प्रजनन करते हैं। किसान अपने श्रम से अरबों उदर की क्षुधा शांत करने के लिये धरती में हरियाली बोता है। फिर प्रकृति के ख़िलाफ़ जाकर किसने सावन को शिव का महीना बना दिया। आखिर किसने सावन को प्रकृति से विलग करके शिवमय कर दिया। पूंजीवादी बाज़ार, सांप्रदायिक सांस्कृतिक सत्ता के गठजोड़ युक्त प्रयास के बिना तो ये मुमकिन नहीं है।

शाक्त दर्शन में योनि को आद्यशक्ति कहा गया है। इसी बिना पे तंत्र दर्शन व्याख्या करता है कि ‘स्त्री सत्ता पुरुष से उच्च होती है’।

जब अद्वैतवादी (वेदान्तवादी) अपना दायरा फैलाने लगे, तो उन्होंने एक संगठित तरीके से स्त्री-शक्ति (शाक्त दर्शन) की इस संस्कृति को उखाड़ना शुरू कर दिया। उन्होंने सभी देवी मंदिरों को तोड़ कर मटियामेट कर दिया। सोलहवीं शताब्दी में तोड़ी गई कामाख्या मंदिर इसी साजिश की एक कड़ी था जिसका सत्रहवीं सदी में राजा नर नारायण ने पुनः निर्माण करवाया था।

दुनिया में हर कहीं पूजा का सबसे बुनियादी रूप देवी पूजा या कहें स्त्री शक्ति की पूजा ही रही है। हर गांव में एक देवी मंदिर जरूर होता है। और यही एक संस्कृति है जहां आपको अपनी देवी बनाने की आजादी दी गई थी। इसलिए स्थानीय ज़रूरतों के मुताबिक़ अपनी ज़रूरतों के लिए अपनी देवी बना सकते थे।

तंत्र या शाक्त कोई आध्यात्मिकता नहीं है। यह एक भौतिक तकनीक है,जो व्यक्तिनिष्ठ है क्योंकि इसमे अपने शरीर, मन और ऊर्जा का इस्तेमाल होता है। भैरवी मार्ग के साधक ‘योनि’ को आद्याशक्ति मानते हैं क्योंकि सृष्टि का प्रथम बीजरूप उत्पत्ति यही है। ‘लिंग’ का अवतरण इसकी ही प्रतिक्रिया में होता है।

यहाँ उपरोक्त बातों के संदर्भ में एक सर्वविदित प्रसंग जोड़कर देखते हैं – पार्वती जब अपनी काया से कायिक विधि (अलैंगिक विधि) से गणेश को उत्पन्न करती हैं तो शिव रुष्ट होकर गणेश की हत्या कर देते हैं। स्पष्ट है यहाँ गणेश स्त्री सत्ता (शाक्त दर्शन) के प्रतिमान हैं और शिव पुरुष सत्ता (अद्वैतवाद) के। शिव (लिंग या अद्वैत) द्वारा गणेश हत्या मूर्तिपूजक शाक्त (स्त्री सत्ता) को खत्म करने का रूपक है। इसके बाद तमाम कथायें गढ़ कर लिंग को योनि पर महिमामंडित करके आरोपित कर दिया गया।

शिवलिंग दरअसल निराकार का आकार है। जब स्वामी गौड़पदाचार्य ने बौद्ध महायान के शून्यता के दर्शन पर आधारित अद्वैतवाद का दर्शन प्रतिपादित किया तो उनके सामने इसे लोगों के भीतर स्थापित करने का संकट था। उनके शिष्य गोविंदाचार्य और फिर उनके भी शिष्य शंकराचार्य ने इस दिशा में सोचना शुरू किया। शंकराचार्य ने सबसे पहले गौड़पदाचार्य के सूत्रों पर भाष्य लिखा फिर मूर्ति पूजा के खिलाफ अभियान छेड़ा। उस समय उनकी लड़ाई बौद्ध, जैन और देवी (सोनी) पूजकों से थी। पूरे देश में शक्तिपीठों की स्थापना हो चुकी थी। मूर्तियाँ अपने साकार गुण धर्म के साथ लोगों के ह्रदय में रच बस कर उनकी चेतना का अभिन्न हिस्सा बन चुकी थी। उसे खंडित करके नहीं बल्कि प्रतिस्थापित और करके ही अद्वैत (पुरुष या वेदांत) दर्शन को स्थापित किया जा सकता था। अतः शंकराचार्य नें निराकार (ब्रह्म) को आकार देकर लोगों के मन में स्थापित करने की दिशा में काम करना शुरू किया। देवी मूर्तियाँ योनि की प्रतीक थी अतः शंकराचार्य ने लिंग (बीज) के रूप में परब्रह्म (परम् पुरुष) की परिकल्पना की और योनि की जगह प्रतिस्थापित कर दिया। ये इतना भी आसान नहीं था अतः योनि को बाकायदा ब्रह्म की माया, महामाया बताकर योनि के प्रति समाज में हीन बोध उपजाया गया। चूँकि योनि ही संसार की उत्पत्ति का आधार थी और शंकराचार्य के पास इस तथ्य के खंडन का कोई तर्क नहीं था अतः उन्होंने संसार (जीव जगत) को मिथ्या बताकर योनि से मुक्ति को मोक्ष घोषित कर दिया। शंकराचार्य ने बताया कि माया से संबंध है तो जीव, जीव है माया से संबंध तोड़कर वो ब्रह्म (अह्म ब्रह्मास्मि) हो जाता है । योनि से मुक्ति को जीवपने से मुक्ति बताई गई। शक्ति साधना के बरक्श मुक्ति साधना खड़ा किया गया। शक्तिपीठों के तर्ज़ पर उनके विरुद्ध ज्योतिर्लिंगों को स्थापित किया गया। उनसे संबद्ध कर कहानियाँ गढ़ी गई। ‘शिवलिंग’ पुरुष-प्रकृति के  मिलन का नहीं वरन् योनि पर लिंग (माया पर ब्रह्म) और शाक्त दर्शन पर वेदान्त की विजय का रूपक है।

तेरहवीं- चौदहवीं सदी के निर्गुण (अद्वैतवादी) भक्त साहित्यकारों ने (नारी को नर्क का द्वार) बताकर स्त्री को समाज में और अधिक अवमूल्यित किया है। कालान्तर में लोगों ने ‘शिवलिंग’ को सांख्य दर्शन (स्त्री पुरुष द्वैत) के रूपक के रूप में भी व्याख्यायित किया गया है।

रुद्राभिषेक क्या है

‘रुद्राभिषेक’ तो जैसे सावन का संस्कार बन चुका है। सवाल ये है कि ये रुद्राभिषेक है क्या ? जिसे करने से मनचाहा मिलता है। जो मंत्रों के बीच हजारों रुपयों का वारा न्यारा करते हुए पंडितजी लोग संपन्न करवाते हैं ? जिसे करने के लिए बेरोज़गारों का हुजूम सैंकड़ों किलोमीटर की पदयात्रा फानता है ? जिसके दम पर अचानक भगवा कपड़ों, प्लास्टिक के लोटों, जलहरियों काँवड़ो डीजे और पैरोडी गानों का कारोबार नई ऊँचाइयों को छूने लगता है।

हमारे समाज में पुरुषों के बीच जहाँ पुरुष अहंकार की बात आती है। एक कहावत बात बात पर दुहराई जाती है – फलाने के फलान (शिश्न) में तेल नहीं लगाऊँगा। कहावत का आशय ये है कि अपना मनोरथ पूरा करने के लिए अपना अहम् दाँव पर रखकर उनके (मनोरथ दाता) के शिश्न में लुब्रीकेंट नहीं लगाऊँगा। तेल लुब्रीकेंट है। शहद  और घी भी लुब्रीकेंट हैं। दूध, दही कुछ कम पर लुब्रीकेंट हैं। शिवलिंग पर इन लुब्रीकेंट को अप्लाई करना ही ‘रुद्राभिषेक’ है। फूल भी अपनी गंध और रंग के साथ यौनोत्तेजक तत्व है।

कुछ लोग लिंग को प्रतीक बताने का कुतर्क लेकर हाजिर होंगे मुझे पता है। प्रश्न ये है कि शिव कौन हैं ? शिव परब्रह्म हैं। परब्रह्म यानी परम पुरुष। तो पुरुष का प्रतीक क्या है ? आँख, नाक कान पैर तो नहीं। जाहिर है शिश्न ही है, जैसे स्त्री का प्रतीक योनि है। यही कारण है कि कहीं कहीं प्रबुद्ध समाज में स्त्रियों को शिवलिंग छूने की मनाही होती है। तो शिव के लिंग पर लुब्रीकेंट अप्लाई करके शिव को परम् आनंदित करना ही रुद्राभिषेक है। माने शिव अर्थात परम् पुरुष को प्रसन्न करके अपना कोई काम निकालना है तो पहले उन्हें उनके लिंग के जरिए आनंदित करिए।

यहाँ ध्यातव्य ये है कि ‘रुद्राभिषेक’ का मनोविज्ञान ही भारतीय समाज में ज्यों का त्यों उतर आया है जहाँ मनोरथकामी को अपना हित साधने के लिए मनोरथदाता को लिंगोंनंदित करने को विवश होना पड़ता है। भारतीय समाज में यौन शोषण के बीज रुद्राभिषेक के मनोविज्ञान में ही छुपे हुए हैं, साथ ही रुद्राभिषेक मौजूदा समय में पुरुष की लैंगिक सत्ता को पुनर्स्थापित कर लैंगिक समानता के मानवीय प्रयासों का दमन करता है।

(लेखक जनचौक के विशेष संवादाता हैं)

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