पहली बात कि भगत सिंह का मानना था कि ब्रिटिश साम्राज्य भारत के बहुसंख्यक लोगों के हितों के खिलाफ है। ध्यान रहे बहुसंख्यक न कि सभी। भारतीयों का एक बड़ा हिस्सा ब्रिटिश साम्राज्य से लाभान्वित हो रहा था, उनके साथ था। जिसमें राजे-महराजे, जमींदार-नवाब, नौकरशाह,जज, पुलिस और सेना। ब्रिटिश नौकरशाही और जजों का बड़ा हिस्सा भारतीयों से ही बना था। सेना का बहुसंख्यक भारतीय थे, पुलिस तो भारतीयों से ही बनी थी।
दूसरी बात यह कि भगत सिंह और उनके साथियों ने निर्णय लिया कि वे ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेकेंगे। सविनय अवज्ञा और असहयोग आंदोलन से नहीं, हथियारों से। जरूरत पड़ने पर ब्रिटिश सत्ता के जालिम प्रतिनिधियों को मार कर भी, भले ही प्रतीकात्मक तौर पर। ऐसा सिर्फ भगत सिंह ने नहीं किया उनके पहले और उनके बाद बहुतों ने किया। ऊधम सिंह जैसे लोगों ने तो ब्रिटेन जाकर ऐसे जालिमों को मौत के घाट उतारा। उन्हें कांग्रेस और गांधी का रास्ता नाकाफी लगता था।
भगत सिंह और उनके साथियों ने हथियारों से भी ब्रिटिश सत्ता को चुनौती दी। ब्रिटिश सत्ता के जालिम प्रतिनिधियों को मौत के घाट उतारा या उतारने की कोशिश की। इसे उन्होंने छिपाया भी नहीं। बदले में ब्रिटिश सत्ता ने उन लोगों को सजाए मौत ( फांसी) दी, जिसे उन लोगों ने सहर्ष स्वीकार किया। हम में से अधिकांश इस बात के लिए भी भगत सिंह को याद करते हैं, उनके साहस, बहादुरी की प्रशंसा करते हैं।
ऐसा नहीं है कि भगत सिंह के साथ ही यह विरासत खत्म हो गई, इसके वारिस नहीं हुए। बाकायदा कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के नेतृत्व में आजाद भारत में भारतीय राजसत्ता के खिलाफ हथियार जनयुद्ध लड़ा गया, तेलंगाना हथियारबंद जनयुद्ध (1946 से 1951 तक) इसकी मिसाल है। जिसमें सैकड़ों नहीं हजारों किसान, खेतिहर मजदूर और नौजवान मारे गए। बड़ी संख्या में महिलाएं इसमें शामिल थीं, जो मारी गईं, बलात्कार और हर तरह के उत्पीड़न का शिकार बनीं।
फिर नक्सलबाड़ी (1967) सबको याद है, हजारों आदिवासी, किसान और नौजवान हथियारबंद तरीके से भारतीय राजसत्ता के खिलाफ संघर्ष में उतर पड़े, बहुत सारे मारे गए। महाश्वेती देवी के उपन्यास ‘हजार चौरासीवें की मां’ सबको याद ही होगा। नक्सलबाड़ी के बाद भोजपुर-सहार का क्रांतिकारी सशस्त्र संघर्ष ( 1970 का दशक) हिंदी पट्टी को याद ही होगा।
भारत सरकार कहती है कि ऐसे लोग आज भी देश के कई सारे हिस्से में हथियारबंद तरीके से भारतीय राजसत्ता के खिलाफ जनयुद्ध छेड़े हुए हैं, विशेषकर आदिवासी इलाकों में, जिसमें छत्तीसगढ़ भी शामिल हैं। ऐसे लोगों को भारतीय राज्यसत्ता ने ‘माओवादी’ नाम दे रखा है।
पहले भारतीय राजसत्ता ऐसे लोगों को ‘कम्युनिस्ट’ कहती थी। यही नाम देकर ऐसे लोगों को तेलंगाना में बड़े पैमाने पर मारा गया था। फिर इन ‘कम्युनिस्टों’ के अगुवा लोगों ने कहा कि वे भारतीय राज्यसत्ता के सारे कानूनों-नियमों को स्वीकार करते हैं और हथियारबंद संघर्ष का त्याग करते हैं। फिर बहुत सारे ‘कम्युनिस्ट’ भारतीय शासक वर्गों के भाई-बंद हो गए।
फिर राजसत्ता को जनयुद्ध या हथियाबंद तरीके से चुनौती देने वालों को ‘नक्सली’ कहा गया। फिर नक्सलियों के सफाए का अभियान चला। चुन-चुनकर उनकी हत्याएं की गईं। फिर कल जो नक्सली थे, उनके एक बड़े हिस्से ने कहा कि हम यह सब छोड़ रहे हैं। फिर इनका एक बड़ा हिस्सा भारतीय शासक वर्ग का भाईबंद हो गया।
फिर कुछ लोग सामने आए, जिनके बारे में कहा जा रहा है कि भारत सरकार के खिलाफ हथियारबंद जनयुद्ध छेड़े हुए हैं, जिन्हें आज ‘माओवादी’ नाम दिया गया है। जिनको तथाकथित महान और दया के सागर तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा कहा और आज लोकतंत्र और जनहित के महान पैरोकार चिदंबरम ने जिनके सफाए की निर्मम योजना बनाई। इसी माओवादी होने के संदेह या सच या झूठ के नाम 2025 मार्च तक करीब 100 लोगों को भारत सरकार के गृहमंत्री अमित शाह ने मार गिराने का दावा किया है और कहा कि 31 मार्च 2026 इस तरह के सभी लोगों का सफाया कर दिया जाएगा। नरेंद्र मोदी सरकार और उनके गृहमंत्री इसको अपनी सबसे बड़ी उपलब्धियों में एक मानते हैं। माने भी क्यों नहीं, उनके गुरू गोलवलकर ने तीन मुख्य दुश्मन सफाए के लिए चिह्नित किए थे- कम्युनिस्ट, मुसलमान और ईसाई।
जिसे भी भारत सरकार माओवादी के नाम पर मारती है या जेल भेजती है, मैं उन्हें भगत सिंह का वारिस ही मानता हूं। उनकी शहादत मुझे भगत सिंह की शहादत जैसा ही दर्द देता है, आक्रोश से भर देता है। यदि आदिवासी के रूप में अपने हितों के लिए संघर्ष कर रहे थे या गैर-आदिवासी के रूप में आदिवासियों के हितों के लिए संघर्ष कर रहे थे, उनके संघर्ष और उनकी शहादत को सलाम करता हूं। चाहे उनके संघर्ष का तरीका जो रहा हो, था तो भगत सिंह वाला तरीका ही। ये कौन लोग हैं, क्या करते हैं, क्यों करते हैं, किस के लिए करते हैं, कैसे करते हैं और किस तरह के लोग हैं, इसका विस्तृत दस्तावेज हमारे समय की महान साहसी लेखिका अरुंधती रॉय ने अपने किताब ‘वाकिंग विथ द कॉमरेड’ में प्रस्तुत करने का साहस किया था, उनके बीच जाकर उनके बीच रहकर।
मैं ऐसे लोगों को भगत सिंह की परंपरा का वारिस मानता हूं, ऐसे लोग गोरे अंग्रेजों की जगह आज के भारतीय शासक वर्ग को काले अंग्रेज के रूप में देखते हैं। उन्होंने कहा था कि इरविन की जगह तेजबहादुर, पुरुषोत्तमदा या ठाकुर दास के आ जाने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन पर कब्जा करने वाले के रूप में। जैसे कभी तेलंगाना के समय सीपीआई देखती थी, नक्सलबाड़ी के समय सीपीआई (एमएल) देखती थी। भोजपुर-सहार आंदोलन के समय सीपीआई (एमएल-लिबरेशन) देखती थी।
हम में से बहुत सारे लोग जाने-अनजाने दोहरे मानदंड रखते हैं, उनकी बातों का लब्बो-लुआब यह होता है कि मैं भगत सिंह के विचारों और तरीकों के साथ हूं, जैसे भगत सिंह रूस की क्रांति की तरह भारत में एक क्रांति का स्वप्न देखते थे, वही स्वप्न मेरा भी है। लेकिन तेलंगाना के हजारों भगत सिंह के साथ नहीं हूं। कुछ कहते हैं, मैं तेलंगाना के भगत सिंह के साथ हूं, लेकिन नक्सलबाड़ी के हजारों भगत सिंह के साथ नहीं हूं। कुछ कहते हैं, में नक्सलबाड़ी वाले भगत सिंह के तो साथ हूं, लेकिन भोजपुर और सहार के सैकड़ों भगत सिंह के साथ नहीं हूं, कुछ कहते हैं, मैं भोजपुर और सहार वाले भगत सिंह के तो साथ हूं, उन्हें मानता हूं, लेकिन आंध्रा, झारखंड और छत्तीसगढ़ के हजारों भगत सिंह के साथ नहीं हूं।
जैसे भगत सिंह के समय में भगत सिंह के साथ खड़ा होना बहुतों के लिए मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन सा था, वैसे ही तेलंगाना, नक्सलबाड़ी, भोजपुर और आज के भगत सिंह के साथ खड़ा होना भी बहुतों के लिए मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन सा रहा है और है। जिसमें मैं खुद भी शामिल हूं।
फिर यह सवाल बेकार सा है कि क्यों उस समय लोग भगत सिंह के साथ खड़े नहीं हुए, वे क्यों भगत सिंह के साथ खड़े नहीं हुए, उन्होंने भगत सिंह के पक्ष में वकालत क्यों नहीं की, उन्होंने भगत सिंह के पक्ष में क्यों नहीं बोला, क्यों नहीं लिखा। वही मुश्किलें उनके सामने भी थीं, जो हमारे सामने हैं।
सच यह है कि भगत सिंह के समय में भगत सिंह के साथ खड़ा होने की जो मुश्किलें थीं, वही और कुछ मामलों में उससे ज्यादा अपने समय या आज के भगत सिंह जैसे लोगों के साथ खड़ा होने में हैं, हम इन मुश्किलों का सामना नहीं कर पाते, फिर अपने समय के भगत सिंह जैसे लोगों को ‘उग्रपंथी’ ‘अतिवादी’ या वामपंथी कम्युनिज्म के ‘बचकाना मर्ज’ का शिकार कह देते हैं।
अतीत के क्रांतिकारियों या उपन्यासों के पावेल (गोर्की के मां का नायक), भगत सिंह या चे ग्वेरा जैसे लोगों के का जै-जैकारा या इंकलाब जिंदाबाद कह कर या शहादत को सलाम करना बहुत आसान है, क्योंकि खुद के क्रांतिकारी होने की फिलिंग आती है, महान होने की फीलिंग आती है, जिंदा होने की फिलिंग आती है। यह सब करते हुए हममें से अधिकांश लोग अपने समय के भगत सिंह या उनके वारिसों से मुंह मोड़े रहते हैं, क्योंकि उनके साथ खड़ा होना खतरे से खाली नहीं। इसके लिए हम कभी लाइन, कभी कार्यनीति, कभी आज की जरूरत आदि का अपने सामने पर्दा डाल लेते हैं, यह पर्दा हमें सच का सामना करने से बचाता है।
(डॉ. सिद्धार्थ लेखक और पत्रकार हैं।)
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