Friday, March 29, 2024

माकपा के वैचारिक व राजनीतिक अंतर्विरोध: आलोचनात्मक विवेचना

पश्चिम बंगाल में सत्ता से बेदखल होने के बाद से माकपा का क्षरण लगातार जारी है।  जो माकपा तीन दशकों से भी ज्यादा समय तक 51-55 प्रतिशत तक जनसमर्थन/मतों को हासिल करते हुए वाममोर्चा सरकार बनाती चली आई थी, जो (2011-2015-2021 तक) मत प्रतिशत घटकर क्रमशः 42%, 22%, और 4.1% तक रह गया है। जबकि, इसके ठीक उलट, तृणमूल कांग्रेस ने माकपा की जगह हथिया लिया है। और मजदूरवर्ग का सबसे बड़ा वर्गशत्रु भाजपा ने 37.5 प्रतिशत मतों को प्राप्त कर राज्य में विपक्ष की हैसियत हासिल कर ली है।

त्रिपुरा में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और राहुल गांधी की कांग्रेस को निगल कर भाजपा मोटी तगड़ी हुई। लेकिन, पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, कांग्रेस पार्टी के अलावा माकपा के परम्परागत समर्थकों के बड़े हिस्से को मिलाकर भाजपा तगड़ी हुई है। माकपा से जुड़े छात्र संगठन एसएफआई के राष्ट्रीय महासचिव और राज्यसभा सांसद ब्रतिनसेन गुप्ता समेत माकपा के कई दिग्गज सांसद और विधायक (जिनमें आठ मौजूदा माकपा विधायकों ने भाजपा से टिकट प्राप्त कर इसी साल के मार्च-अप्रैल महीने में विधानसभा चुनाव लड़ा था) समेत माकपा के दो-तिहाई समर्थकों व कार्यकर्ताओं ने या तो ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस या फिर भाजपा का रूख किया। 2019 के लोकसभा चुनाव में तकरीबन 16 प्रतिशत माकपा समर्थकों ने भाजपा के पक्ष में मतदान किया था। माकपा से जनता के मोहभंग / क्षरण की प्रक्रिया अब भी निरंतर जारी है। इसके बावजूद, माकपा यह तय ही नहीं कर पा रही है कि, ‘जनता के बीच अपनी खोयी हुई ‘राजनीतिक साख’ पुनः अर्जित करने के लिए उसकी आगे की रणनीति क्या होगी?

पार्टी सम्मेलनों में माकपा के शीर्ष नेतृत्व ने अपने वैचारिक और सांगठनिक कमियों को कई मौके पर तो कबूला है, किन्तु; उसका यह कबूलनामा भी तब अंतर्विरोधी/ विरोधाभासी बन जाता है जब वे खुली बातचीत में अपने बचाव में कुतर्क गढ़ने लगते हैं। केरल के कोझिकोड में माकपा के 20वें अखिल भारतीय सम्मेलन में सीताराम येचुरी ने जो सैद्धांतिक दस्तावेज रखा था, उसमें दो बातें महत्वपूर्ण रूप से रेखांकित थीं:

एक, “माकपा अपने जनाधार के लगातार सिमटते जाने के कारणों पर पार्टी के भीतर ईमानदारी से बहस करने से अब भी बचती चली आ रही है, और दूसरे अन्य गैर-जरूरी ‘अप्रसांगिक मुद्दों’ पर ही विमर्श करने में व्यस्त है।”

दो, “माकपा अपनी पार्टी के भीतर अंदरूनी सुधार के लिए जरूरी कदम उठाने का (जिनमें “पार्टी का दुरुस्तीकरण अभियान” भी शामिल है), फैसला तो किया, लेकिन, इस तरह के कदम बढ़ाने से पहले माकपा ने शीर्ष से लेकर निचली इकाईयों तक अपनी खामियों/कमजोरियों को ईमानदारी से स्वीकार करने का ‘स्वस्थ-मानस’ अब भी पार्टी नेतृत्व विकसित नहीं कर पाया है।“

जिस पश्चिम बंगाल में तीन दशकों से ज्यादा समय तक माकपा के नेतृत्व में “वाममोर्चा  सरकार जनहितकारी नीतियों की वजह से टिकी रही थी,” उसी माकपा के पाँव पश्चिम बंगाल की जमीन पर डगमगा रहे हैं और कुछ इलाकों से तो अब पूरी तरह उखड़ चुके हैं। ज्योति बसु से सत्ता हस्तांतरण के बाद बुद्धदेव भट्टाचार्य की सरकार ने बीते दस सालों में राज्य में औद्योगीकरण, विकास व नए रोजगार के अवसर सृजन करने के नाम पर उसी बाजारवादी रास्ते पर कदम बढ़ा दिए थे, जिस बाजारवादी रास्ते को माकपा मुखरता के साथ विरोध कर रही थी। 1990-95 की नरसिम्हाराव सरकार में बतौर वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने (1929-33 के विश्वव्यापी “आर्थिक महानमंदी” और उसके परिणामस्वरूप “द्वितीय विश्वयुद्ध” के बाद पश्चिम की उपनिवेशवादी-साम्राज्यवादी जंजीर को तोड़कर आजाद हुए) तीसरी, विकासशील देशों द्वारा खारिज किये जा चुके ‘आर्थिक उदारीकरण’ की ‘क्लासिकल (स्मिथ-रिकार्डो का) आर्थिक सिद्धांत व 1980 के दशक में “रीगन-थैचर की उदारवादी आर्थिक नीतियों” को अपनाया था, जिसका माकपा ने भले ही सैद्धांतिक रूप से विरोध जारी रखा, लेकिन, व्यवहार में उसने उन्हीं नीतियों का अनुकरण किया। जाहिर है, उसका भयंकर परिणाम बुद्धदेव भट्टाचार्य की वाममोर्चा सरकार ने भुगता।

माकपा ने न सिर्फ अपने कोझिकोड अखिल भारतीय सम्मेलन में, बल्कि, उसके बाद विजयवाड़ा में लगातार आयोजित हुए दोनों अखिल भारतीय सम्मेलनों में ईमानदारी से स्वीकार ही नहीं किया कि उसके जमीनी स्तर से लेकर शीर्ष पार्टी काडरों /कार्यकर्ताओं और नेताओं तक के “विचार और आचरण” में पिछले एक-दो दशकों में बहुत भारी गिरावट आई है।

हालांकि, माकपा के विचार व आचरण में गिरावट की शुरूआत ज्योति बसु – हरकिशन सिंह सुरजीत के कार्यकाल में ही दिखना शुरू हो गया था। दिल्ली में रहते हुए माकपा का केन्द्रीय दफ्तर ए के गोपालन भवन में पोलित-ब्यूरो का आचरण देखकर कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता था जैसे मानो ये शोषित-उत्पीड़ित मजदूरवर्ग का राजनीतिक प्रतिनिधि नहीं, बल्कि, दिल्ली के गोलमार्केट स्थित (रोम के) पोप का चर्च है। ज्योति बसु – नृपेन चक्रवर्ती प्रकरण में जब माकपा पोलित ब्यूरो और केन्द्रीय कमेटी ने ज्योति बसु की हिमायत में नृपेन चक्रवर्ती के खिलाफ अनर्गल घटिया इल्जामात लगाकर राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी कतारों के बीच दुष्प्रचार अभियान चलाना शुरू किया था… उस वक्त भी मैंने सुरजीत को पत्र लिखकर अपनी गहरी आपत्तियाँ दर्ज करायी थी और नृपेन चक्रवर्ती द्वारा ज्योति बसु सरकार के खिलाफ लगाये गए छह गंभीर आरोपों पर फौरन कार्रवाई करने का अनुरोध किया था। इन छह गंभीर आरोपों में से चार आरोप बेहद महत्वपूर्ण थे:

एक, ज्योति बसु की वाममोर्चा सरकार ने पश्चिम बंगाल में पिछड़ी जातियों के लिए सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण को व्यावहारिक रूप से लागू नहीं किया।

दो, प्रशासकीय सरकारी तंत्रों और माकपा के संगठन के भीतर नेतृत्वकारी भूमिका निभाने के लिए आदिवासियों, दलितों, महिलाओं, सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग/समुदाय और धार्मिक अल्पसंख्यकों को उनके संख्यानुपात में प्रतिनिधित्व / भागीदारी सुनिश्चित नहीं किया। इन समुदायों के प्रति माकपा की घोर पक्षपातपूर्ण उदासीनता की वजह से ही जंगल महल के इलाके में आदिवासियों और मतुआ समाज के बीच पहले माओवादियों ने अपनी पकड़ मजबूत कर इस पूरे इलाके को “स्वतंत्र क्षेत्र” घोषित किया था। बाद में बुद्धदेव सरकार के खिलाफ नंदीग्राम और सिंगूर में शुभेन्दु अधिकारी परिवार के नेतृत्व में ‘तृणमूल-कांग्रेस, माओवादी, भाजपा, और कांग्रेस ने एकसाथ मिलकर “महाजोट गठबंधन” बनाया और कथित किसान आंदोलन के बहाने 34 साल की वाममोर्चा सरकार को सत्ता से बेदखल किया।

ठीक इसी मुद्दे पर मेरी माकपा नेत्री वृंदा करात और पुष्पेंद्र ग्रेवाल से बिट्ठल भाई पटेल हाउस के जनवादी महिला समिति कार्यालय के 28-29 नंबर कमरे में गर्मागर्मी बहस हुई थी। वृंदा करात ने ज्योति बसु की वाममोर्चा सरकार के बचाव में माकपा पोलित-ब्यूरो का पक्ष रखते हुए मुझे समझाने का भरसक किन्तु; असफल प्रयास किया। रात्रि के आठ बजे जनवादी महिला समिति कार्यालय से बाहर निकलते समय पहले से ही लिफ्ट के पास खड़े भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी के समक्ष ज्योति बसु के मसले पर वृंदा करात से हल्की-फुलकी गर्मागर्मी के साथ बातें यहीं पर खत्म कर दी गईं और पार्टी ने नृपेन चक्रवर्ती के खिलाफ अपना अभियान बंद कर दिया। आज के हालात देखकर ए के गोपालन भवन की तीसरी मंजिल के बंद कमरे में कभी ‘आईने के सामने ‘नग्न’ होकर इस दूसरी पीढ़ी के नेताओं को खुद को निहारना चाहिए, वे क्या कर रहे हैं?

पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर-प्रदेश जैसे राज्यों के माकपा नेताओं को अब भी हालांकि शर्म / हया/ लज्जा आती होगी कि कैसे वे कबूल करें कि धीरे-धीरे जनता से वे काफी दूर होते चले गए हैं। बिहार में हरकिशन सिंह सुरजीत का सबसे चहेता (नमूना) केन्द्रीय कमेटी सदस्य सुबोध रॉय हुआ करता था जिसे लालू यादव से स्पेशल गुजारिश कर उसे भागलपुर से सांसद भी बनाया गया था। इससे पहले वह लालू प्रसाद की ही कृपा से बिहार विधान परिषद सदस्य भी नियुक्त किए जा चुके थे। सुरजीत का यह बेजोड़ नमूना सुबोध रॉय संसदीय भटकाव का शिकार होकर बाद में नीतीश कुमार के साथ कुर्मी-कुर्मी का टिक जोड़ने जदयू में भाग गया और 2020 तक विधायक बना रहा। यह शख्स पार्टी के निचले स्तर के किसी कार्यकर्ता की बात कभी ठीक से सुनना पसंद नहीं करता था। जनता के बीच माकपा नेताओं की कार्यशैली सबसे घटिया दर्जे की रही है। इसलिए, माकपा से यह उम्मीद करना भी बेमानी है कि, निकट भविष्य में वह अपनी हार और नाकामियों का ईमानदारी से जांच-पड़ताल कर ठोस आलोचनात्मक विशलेषण करेगी और उससे बाहर निकल पाने का ठोस प्रयास करेगी।  

माकपा का अपनी कमजोरियों को लगातार छुपाने और जमीनी स्तर पर ‘वर्ग-संघर्ष’ में किसी भी तरह का जोखिम न उठाने की प्रवृत्ति के चलते न सिर्फ देश के लाखों-करोड़ों शोषित-उत्पीड़ित भूमिहीन खेतिहर दलित-आदिवासी मजदूर आज भी शोषक-शासकवर्ग द्वारा दी जा रही सजा को भुगतने को अभिशप्त हैं। बल्कि, इससे देश की मजदूर राजनीति का भी बड़ा भारी नुकसान हो रहा है।

आजादी के बाद भारत में माकपा ने ‘बहुदलीय संसदीय लोकतान्त्रिक प्रणाली’ को अपनाया है, और राष्ट्रीय स्तर पर शासक-शोषकवर्ग (सामंतों-पूँजीपतियों) के प्रमुख राजनीतिक प्रतिनिधियों: भाजपा और कांग्रेस को क्रमशः अपना वर्गशत्रु नंबर 1 और 2 मान कर उसके बीच की राजनीतिक प्रतिस्पर्धा और अंतर्विरोध का इस्तेमाल करते हुए छोटे-छोटे अन्य उदारवादी सामंती-पूंजीवादी दलों के मोर्चे/गठबंधन के साथ राजनीतिक सहयोग करते हुए “केंद्र (दिल्ली) में एक कमजोर सरकार बनाए रखकर राज्यों में जनता के जनवादी आंदोलन को विकसित करते हुए जनवादी सरकार का गठन कर राज्यों की तरफ से घेरने की रणनीति के जरिए देश के मौजूदा (वर्गीय) राजनीतिक ‘शक्ति संतुलन को मजदूरवर्ग के पक्ष में झुकाने का रास्ता अख्तियार किया गया था, जो अब यह रणनीति विफल हो चुकी दिखाई देती है।“

दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में अप्रैल 7-11, 2005 को आयोजित हुए अखिल भारतीय सम्मेलन ने माकपा को कांग्रेस की मनमोहन सरकार को बाहर से समर्थन देने के बावजूद उसके जनविरोधी आर्थिक उदारवादी नीतियों के खिलाफ कठोर/सख्त रवैया अपनाने की हिदायत दिया था। माकपा का यह स्पष्ट रूख ‘भाजपा और कांग्रेस’ की समान आर्थिक उदारीकरण की जनविरोधी नीतियों की मुखालफत करना था। ठीक यही वजह है की आज भी जब दिल्ली की गद्दी पर 2014 से ही घोर दक्षिणपंथी सांप्रदायिक फासीवादी आरएसएस-भाजपा की मोदी सरकार काबिज है, इस सरकार के खिलाफ कांग्रेस के साथ मिलकर राष्ट्रीय मोर्चा बनाने को माकपा इच्छुक नहीं है। जहां तक अन्य छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों के साथ राज्यों के स्तर पर माकपा के सहयोग का सवाल है, इस मसले पर भी माकपा उन छोटे दलों की राजनीतिक अवसरवादिता (मतलब सांप्रदायिक भाजपा के साथ नरम रूख अपनाने) और उसके नेताओं के भ्रष्टाचार में संलिप्तता को देखते हुए बहुत अधिक उत्साहित नजर नहीं आती।

जाहिर है, परिस्थितिगत ‘पूंजीवादी दलों के साथ माकपा के व्यावहारिक ‘सहयोग, समझौता और संघर्ष’ के मिश्रित घालमेल से न सिर्फ पार्टी काडरों में, बल्कि जनता के हल्कों में भी माकपा के राजनैतिक व वैचारिक अंतर्द्वंद्ध के बारे में भ्रम फैला हुआ है। उदाहरण के लिए बिहार में राजद और जदयू, उत्तर-प्रदेश में सपा और बसपा और उड़ीसा के नवीन पटनायक के साथ माकपा के रिश्ते बहुत स्पष्ट नहीं रहे हैं। हालांकि, पूंजीवादी दलों के संपर्क में आने से उसके गुण-दोष, कमजोरियों व बुराईयों के छींटें भी माकपा के काडरों / कार्यकर्ताओं/ नेताओं पर पड़ते हैं। इसी का परिणाम है की आज हालात कुछ ऐसे हो गए हैं कि, माकपा की ‘वैचारिक लाइन’ और जनता के बीच उसके ‘आचरण’ करने के मामले में अन्य पूंजीवादी पार्टियों के साथ बुनियादी फर्क कर पाना भी बहुत मुश्किल हो गया है।

हालांकि, कई ऐसे उदाहरण भी मौजूद हैं जहाँ व्यक्तिवादी-अवसरवादी टुटपुंजिया पूंजीवादी दलों के नेताओं और उसकी सरकारों की अनेकों ‘जन-कल्याणकारी’ योजनाओं और जनता के बीच नियमित संपर्कों और उनके नेताओं के विनम्र आचरण व व्यवहार करने के तौर तरीके तो माकपा नेताओं से कहीं अधिक बेहतर हैं। माकपा को ऐसे दलों और नेताओं से प्रतिस्पर्धा /प्रतियोगिता करने में आगे निकलना होगा। बहरहाल, एक मजदूरवर्ग की पार्टी माकपा में लाखों-करोड़ों मेहनतकश गरीब मजदूरों की जगह “मध्यवर्गीय” जमातों ने अपना प्रभाव जमा लिया है। जाहिर है, माकपा के भीतर मध्यवर्गीय जमावड़े से पार्टी संशोधनवाद और अवसरवादिता का शिकार होती चली गई है।

अलबत्ता, “माकपा के भीतर क्रांतिकारी-लफ्फाजियों का एक बड़ा समूह/जमावड़ा मौजूद है जो मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, स्टालिन, हो ची मिन्ह, चेग्वारा, फिदेल कास्त्रो, माओत्से तुंग, भगत सिंह की तस्वीरें तो लगा रखा है और कुछ नेताओं ने उनके जैसी दाढ़ियाँ भी बढ़ा रखी हैं, लेकिन, उन महान क्रांतिकारियों के विचारों, उनके महान आदर्शों, उनके महान त्याग व बलिदानों और उनके जैसे आचरणों को अपने व्यक्तिगत जीवन में उतारने से अक्सर वे कतराते रहे हैं। वे अक्सर बातें तो फ्रांस की क्रांति, रूसी बोलशेविक-क्रांति, क्यूबा की क्रांति, वियतनाम और चीन की क्रांति की करते रहते हैं.., परंतु भारत की संसदीय प्रणाली में किसी जोड़-तोड़ के जरिए विधायक/सांसद बन जाना चाहते हैं और फिर विधायकी/सांसदी के वेतन-भत्ते-पेंशन से अपने और अपने परिवार के आर्थिक भविष्य को अधिक से अधिक सुरक्षित बना लेना चाहते हैं।“ 

इस संसदीय सत्ता-संघर्ष में माकपा और वामदलों के अलावा दर्जनों क्षेत्रीय दलों और राष्ट्रीय दलों के बीच प्रतियोगिता जारी है, और उसके बीच रहते हुए माकपा को अपने लिए जगह/ठिकाना तलाशना है। समाजवादी क्रांति से पहले के चरण “जनवादी क्रांति” के कार्यभार व रणनीति अब कहीं भी जमीन पर दिखाई नहीं देती सिवाय पार्टी सम्मेलनों में नेताओं द्वारा बड़ी-बड़ी डींगें हाँकने के। जनवादी-क्रांति सम्पन्न करने के लिए जमीनी स्तर पर “वर्गीय-संघर्षों” को निरंतर तीखा किए जाने के जरिए मेहनतकशों की “वर्गीय चेतना” का विकास करने और फिर “वर्गीय शक्ति-संतुलन” को मजदूरवर्ग के पक्ष में झुकाने के लिए जो दृढ़/प्रतिबद्ध भौतिक शक्तियां माकपा के भीतर मौजूद होना चाहिए था, वो नहीं है। मौजूदा परिस्थितियों में राष्ट्रीय स्तर पर जनता के बीच “वैचारिक व राजनीतिक साख” के साथ उन दर्जनों अवसरवादी दलों के बीच माकपा की अलग से शिनाख्त कर पाना अब मुश्किल होता जा रहा है। माकपा के वजूद के लिए यह एक बड़ा संकट है जो दिनों-दिन अब और अधिक गहराता ही जा रहा है।

जारी….

(अखिलेश चंद्र प्रभाकर तीसरी दुनिया सामाजिक नेटवर्क्स के निदेशक हैं। और एक दौर में माकपा से भी जुड़े रहे हैं।) 

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