स्वीडन में बस गए पाकिस्तान मूल के प्रो इश्तियाक अहमद कुछ ऐसे विरले इतिहासकारों में से हैं जिन्होंने भारत के विभाजन के पीछे की राजनीति और इससे जुड़े किरदारों की भूमिका को सही संदर्भ में पेश किया है। लाहौर में जन्मे और पले-बढ़े इश्तियाक अहमद ने पाकिस्तान के जन्मदाता माने जाने वाले मुहम्मद अली जिन्ना पर अत्यंत महत्वपूर्ण किताब लिखी है। यह उन पर लिखी गई अब तक की सबसे प्रामाणिक किताब मानी जाती है। वह लाहौर तथा स्टाकहोम के विश्वविद्यालयों में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर रहे हैं।
वह भारत और पाकिस्तान के बीच अमन के पक्के हिमायती हैं। प्रो. अहमद पर लाहौर के सांस्कृतिक माहौल का पूरा असर है। वह महफिलों में शिरकत करते हैं, शायरी तथा संगीत का आनंद लेते हैं। वह खुद भी गजल गाते हैं। बालीवुड में गजल के बादशाह माने जाने वाले संगीतकार मदन मोहन की बनाई धुनें उन्हें बेहद पसंद हैं। वह फख्र से बताते हैं कि मदन मोहन अविभजित हिंदुस्तान के पाकिस्तान वाले हिस्से से थे।
प्रो. इश्तियाक अहमद से वरिष्ठ पत्रकार अनिल सिन्हा की खास बातचीत
सवाल- भारत और पाकिस्तान के आपस के रिश्ते बद से बदतर हो चुके हैं। आप भारतीय उपमहाद्वीप की राजनीति को गहरे समझते हैं। आपकी राय में तत्काल कौन से कदम उठाए जाएं कि उनके बीच रिश्ते में सुधार हो?
प्रो. इश्तियाक अहमद- मुझे लगता है कि पहले तो दोनों मुल्क एक दूसरे पर संदेह करना छोड़ दें और भरोसा दिलाएं कि वे एक दूसरे की सेक्योरिटी में कोई खलल नहीं डाल रहे हैं। मसलन भारत का आरोप है कि पाकिस्तान कश्मीर में आतंकवाद को प्रोत्साहित करता है। इसी तरह पाकिस्तान का कहना है कि भारत बलूचिस्तान में गड़बड़ी करने वालों की मदद करता है। दोनों मुल्कों के लिए जरूरी है कि वे एक दूसरे को भरोसा दिलाएं कि वे पड़ोसी मुल्क की सुरक्षा को नुकसान पैदा करने वाले तत्वों को सीधा या परोक्ष समर्थन नहीं देते हैं।
सवाल- पाकिस्तान के मुताबिक भारत और पाकिस्तान के बीच झगडे़ की जड़ में कश्मीर का मसला है और इसे सुलझाए बगैर यह झगड़ा मिट नहीं सकता। क्या आपको कश्मीर समस्या का कोई हल दिखाई देता है?
प्रो. इश्तियाक अहमद- मेरी राय में, अगर दोनों मुल्क तय कर लें तो कश्मीर का मसला हल हो सकता है। उन्हें मौजूदा जमीनी हकीकत को मानना चाहिए। सीमा को अंतरराष्ट्रीय सीमा के रूप में स्वीकार कर लिया जाए। दोनों ओर के मंदिर-मस्जिदों को नागरिकों के लिए खोल दिया जाए। आवाजाही आसान बना दिया जाए।
वैसे कश्मीर की समस्या को जिस तरह से पेश किया जा रहा है वैसा है नहीं। यह ठीक भारत-पाक विभाजन के समय उपजी है। असलियत तो यही है कि इंडिया ने जिन्ना के सामने पेशकश की थी कि हैदराबाद में वह दखल नहीं दें और कश्मीर पाकिस्तान में शामिल कर लें। लेकिन जिन्ना ने इसे ठुकरा दिया। वह हैदराबाद को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे।
सवाल- भारत-पाकिस्तान के रिश्तों का आप क्या भविष्य देखते हैं? आप काफी आशावादी किस्म के इंसान हैं जिसे दक्षिण एशिया के बेहतर भविष्य में भरोसा है।
प्रो. इश्तियाक अहमद- हमारे सामने यूरोप का उदाहरण है। जर्मनी, फ्रांस और इंग्लैंड ने आपस में कई लड़ाइयां लड़ीं। कोई सोच भी नहीं सकता था कि वे कभी इकट्ठा आएंगे। लेकिन उन्होंने यूरोपीय यूनियन बनाया। फिर ये लोग क्यों नहीं बना सकते? दोनों के बीच तिजारत शुरू होनी चाहिए। इससे पाकिस्तान को तो फायदा होगा ही, हिदुस्तान को भी फायदा होगा। अगर युद्ध से कश्मीर की समस्या के हल की बात कोई भी पक्ष सोचता हो तो यह नामुमकिन है। दोनों के पास परमाणु बम हैं।
सवाल- कुछ उत्साही लोग ऐसे भी हैं जो यह मानते हैं कि बंटवारा गलत था। आपने भी लिखा है कि मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की मांग अतार्किक है। आपने कहा है कि 25 प्रतिशत आबादी के लिए अलग देश मांगने का कोई तार्किक बुनियाद मुस्लिम लीग के पास नहीं था। बंटवारे को गलत माननें वालों का एक तबका ऐसा भी है जो सोचता है कि इसे खत्म किया जा सकता है। यानि, दोनों मुल्क एक हो सकते हैं। क्या आपको यह मुमकिन लगता है?
प्रो. इश्तियाक अहमद- भविष्य में दोनों एक हो सकते हैं। लेकिन निकट भविष्य में तो यह मुमकिन नहीं है। आपस का झगड़ा खत्म हो जाए और रिश्ते सामान्य हो जाएं, अभी के लिए यही सोचना चाहिए।
सवाल- भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के पीछे मुस्लिम लीग और हिंदू-मुसलमान के बीच सांप्रदायिक विभाजन मुख्य वजहें थीं। इसमें हिंदू महासभा और आरएसएस जैसे संगठनों ने भी बराबर की भूमिका निभाई। लेकिन क्या इतने से ही यह संभव था?
प्रो. इश्तियाक अहमद- बिलकुल नहीं। यह सच है कि जिन्ना पूरी तरह बंटवारे के पक्ष में थे और उन्हें ब्रिटिश सरकार आगे बढ़ा रही थी। वायसराय लिनलिथगो ने स्वीकार भी किया है कि उन्हें आगे बढ़ाने में उनकी व्यक्तिगत दिलचस्पी थी। हिंदू महासभा नेता सावरकर भी अंग्रेजों के पक्ष में थे। जब सेकेंड वर्ल्ड वार में जिन्ना ने मुसलमानों की ओर से मदद की पेशकश की तो सावरकर ने भी यही पेशकश हिंदुओं की ओर से कर दी। वैसे उन्होंने इसके पीछे अलग वजह बताई।
उन्होंने कहा कि फौज में मुसलमानों की भागीदारी बहुत ज्यादा है। इसे दुरुस्त करने के लिए फौज में ज्यादा से ज्यादा हिंदुओं को भर्ती होना चाहिए। उन्होंने दावा किया कि फौज में मुसलमान 70 परसेंट हैं। लेकिन उनका दावा गलत था। फौज में सिर्फ 30 से 40 परसेंट मुसलमान थे। वर्ल्ड वार के लिए दोनों की मदद बहुत महत्वपूर्ण थी। ब्रिटिश इंडिया की फौज बहुत बड़ी थी।
सवाल- फिर बंटवारे की असली वजह क्या थी?
प्रो. इश्तियाक अहमद- ब्रिटिश। उन्होंने मुस्लिम लीग की मांग को आधार बना कर देश को बांट दिया। वे समाजवाद, साम्यवाद तथा क्षेत्र में सोवियत रूस के असर को रोकने के लिए पाकिस्तान चाहते थे, लिहाजा हिंदुस्तान को दो टुकड़ों में बांट दिया।
सवाल- यह एक आम धारणा है कि बंटवारे को सभी मुसलमानों का समर्थन हासिल था। इसमें कितनी सच्चाई है?
प्रो. इश्तियाक अहमद- इसमें बिलुकल सच्चाई नहीं है। मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा इसके खिलाफ था। कई संगठन तथा शख्सियतों ने इसका पूरी ताकत से विरोध किया, जिसमें मौलाना मदनी जैसे धार्मिक नेता शामिल थे। संगठनों में जमायत-ए-उलेमा-ए-हिंद, मजलिस-ए-अहरार, खाकसार पार्टी, खुदाई खिदमतगार जैसे कई नाम लिए जा सकते हैं। शख्सियतों में सिंध के नेता अल्लाबख्श, मौलाना आजाद और अब्दुल गफ्फार खान जैसे लीडर शामिल हैं।
सवाल- बंटवारे के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार बताने और उसकी राजनीतिक गलतियों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने वाले लोग भी हैं। इसमें कितनी सच्चाई है?
प्रो. इश्तियाक अहमद- यह मुस्लिम लीग का प्रोपेगंडा था। 1937 की कांग्रेस मिनिस्ट्री के बारे में उसने जो आरोप लगाए थे, उसे अग्रेंज गर्वनरों ने भी बेबुनियाद बताया था। लीग का कहना था कि कांग्रेस राज में मुसलमानों पर अत्याचार हुए। लीग को इस प्रोपेगंडा में कामयाबी भी मिली। यह भी सच नहीं है कि कांग्रेस ने बंटवारा टालने की कोशिश नहीं की। सच्चाई यह है कि जिन्ना ने कांग्रेस के हर ऑफर को ठुकरा दिया। जिन्ना ने तो साफ कहा था कि वह अब खुल कर कम्युनल कार्ड खेलेंगे।
(अनिल सिन्हा वरिष्ठ पत्रकार हैं)