Friday, April 19, 2024

भूटानी शरणार्थी: स्वदेश वापसी की आस में ‘शिविरों’ में तैयार हो गई एक नई पीढ़ी

(भूटान की जेलों में राजनीतिक बंदियों की संख्या कितनी है, यह पता करना बहुत मुश्किल है। भूटान सरकार इस बारे में कोई जानकारी नहीं देती पर ह्यूमन राइट्स वाच नामक संस्था ने भूटान की जेलों में बंद 37 राजनीतिक बंदियों के बारे में जानकारी जुटायी है जिनमें से 24 को आजीवन कारावास और शेष को 15 से 43 वर्ष की सजा मिली है। पिछले माह 13 मार्च को जारी अपनी रिपोर्ट में इस अंतर्राष्ट्रीय संस्था ने बताया है कि इनमें से अधिकांश ल्होत्सम्पा (नेपाली मूल के भूटानी नागरिक) हैं जिन्हें नागरिकता कानून के खिलाफ 1990 में चले आंदोलन के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया था। इनकी संख्या 32 है। शेष सारचोप समुदाय के हैं और वे ‘द्रुक नेशनल कांग्रेस’ (डीएनसी) के सदस्य हैं। नागरिकता कानून तथा शाही सरकार की अन्य दमनकारी नीतियों का विरोध करने की वजह से 1 लाख से भी अधिक नागरिकों को देश निकाला की सजा भुगतनी पड़ी और लगभग दो दशकों तक बदहाली की जिंदगी जीने के बाद अमेरिका और यूरोप के देशों में जा कर बसना पड़ा। भूटानी राजतंत्र के इस कुकृत्य में किस तरह दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र भारत ने साथ दिया, इस पर रोशनी डालती रिपोर्ट का दूसरा भाग)

शरणार्थियों को जब किसी तीसरे देश में बसाने की अमेरिकी योजना सामने आयी उस समय भी भारत की चुप्पी ने लोगों को हैरानी में डाल दिया। अमेरिका के अलावा आस्ट्रेलिया, कनाडा, डेनमार्क, नीदरलैंड्स, न्यूजीलैंड और नॉर्वे ने इन्हें अपने यहां बसाने की जिम्मेदारी ली। शरणार्थियों का मानना था कि जिन देशों ने अपने यहां इतने बड़े पैमाने पर लोगों को बसाने की उदारता दिखायी है, वे सभी अगर चाहते तो भूटान नरेश पर दबाव डाल कर इस समस्या का समाधान ढूंढ सकते थे।

इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसे बहुत सारे लोग इस अमेरिकी प्रस्ताव से सहमत थे जिन्होंने भूटान की धरती को कभी देखा ही नहीं या जो देश से निष्कासित किये जाने के समय इतने छोटे थे कि उनकी स्मृतियों में भूटान है ही नहीं। लेकिन व्यापक समुदाय ने इसका विरोध किया। टेकनाथ रिजाल ने तो साफ शब्दों में कहा कि हम इस गुलामी के प्रस्ताव को किसी भी हालत में स्वीकार नहीं करेंगे। उन्होंने इसे अमेरिकी साजिश का एक और नमूना बताया।

दरअसल तमाम प्रलोभनों के बावजूद लोग पश्चिमी देशों में जाकर बसने की बजाय अपने ही देश में तंगहाली में जिंदगी गुजारने के पक्षधर थे। यह मानसिकता केवल बुजुर्गों में नहीं बल्कि उन नौजवानों में भी थी जो शांति मार्च के जरिये जबरन भूटान की सीमा में प्रवेश करने के अभियान में लगे थे।

क्या यह सचमुच अमेरिकी साजिश का एक और नमूना था? शरणार्थी शिविरों की हालत का जायजा लेने के लिए भूटान सॉलिडारिटी सहित विभिन्न संगठनों के अध्ययन दलों की रिपोर्ट को देखें तो पता चलता है कि इन शिविरों में रहने वाले युवकों के अंदर भूटान सरकार और भारत सरकार दोनों के प्रति कितना गुस्सा पनप रहा था। यह गुस्सा शुरुआती दिनों में भूटान के राजा के प्रति था लेकिन समय बीतने के साथ और खासतौर पर इनके शांतिमार्च के भारत द्वारा किये गये हिंसात्मक दमन के बाद खलनायक के तौर पर राजा का स्थान भारत सरकार ने ले लिया था।

पिछले 16 वर्षों के दौरान शरणार्थी शिविरों में एक नई पीढ़ी विकसित हो चुकी थी। 17 से 35 वर्ष की आयुवर्ग के लोगों की संख्या तकरीबन 40 हजार थी। चूंकि शिविरों में बसे शरणार्थी मुख्य रूप से ल्होत्सम्पा थे इसलिए नेपाल की घटनाओं पर वे बारीकी से नजर रखते थे। वे देख रहे थे कि माओवादियों के नेतृत्व में चले 10 वर्षों के सशस्त्र संघर्ष ने राजशाही को लगभग समाप्त कर दिया। वे यह देख रहे थे कि उनके शांतिपूर्ण संघर्ष का कोई नतीजा नहीं निकल रहा है।

भूटानी शरणार्थियों के बीच यह विचार दिनोंदिन जोर पकड़ता जा रहा था कि अब सशस्त्र संघर्ष के जरिये ही भूटान के निरंकुश राजतंत्र को झुकाया जा सकता है। काठमांडो से प्रकाशित दैनिक अखबार ‘कांतिपुर’ ने 7 नवंबर 1996 को एक समाचार भी प्रकाशित किया था कि भूटान में एक ऐसी कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हो चुका है जो सशस्त्र संघर्ष में विश्वास करती है और यह पार्टी देश के अंदर तथा शरणार्थियों के बीच गुप्त रूप से सक्रिय है। ‘कांतिपुर’ में प्रकाशित समाचार में भूटान कम्युनिस्ट पार्टी की केंद्रीय समिति के सदस्य नवीन ने यह बताते हुए कि भूटान का निरंकुश राजतंत्र उन्हें हथियार उठाने के लिए मजबूर कर रहा है, कहा कि हमारी पार्टी द्वारा राजशाही के खिलाफ आंदोलन की तैयारियों को देखकर ही अमेरिका ने शरणार्थियों की एक बड़ी तादाद को यहां से हटाने का षडयंत्र तैयार किया है।

वाशिंगटन के मौजूदा प्रस्ताव का मकसद जल्द से जल्द शरणार्थी शिविरों को समाप्त करना और भूटान नरेश को राहत पहुंचाना है। यही अमेरिका के दूरगामी हित में है। हिमालय में बसे देशों में पैर जमाकर ‘भारत पर निगरानी रखने तथा चीन को घेरने’ की अमेरिकी साजिश का यह अगला पड़ाव होगा।

27 दिसंबर 2006 को भूटान के विदेशमंत्री ने नेशनल एसेंबली में शरणार्थी शिविरों में माओवादी तत्वों और विचारों की पैठ हो जाने का समाचार देते हुए कहा कि ऐसी हालत में राजनीति से पूरी तरह ओतप्रोत ऐसे लोगों को “भूटान में प्रवेश की अनुमति देने का मतलब ‘रेडीमेड आतंकवादियों’ का आयात करना है जो हिंसा, आतंक और अस्थिरता का वही खेल खेलेंगे जो उन्होंने नेपाल में खेला है।”

उपरोक्त घटनाओं की पृष्ठभूमि में देखें तो निश्चय ही अमेरिका की उदारता और मानवीयता के पीछे किसी गहरी साजिश की पुष्टि होती है। दरअसल नेपाल में अपनी नीतियों की प्रारंभिक विफलता के बाद अमेरिका ने अपना रुख भूटान की ओर मोड़ लिया। उसकी लाख कोशिशों के बावजूद नेपाल में राजतंत्र को बचाया नहीं जा सका और वहां के माओवादी सत्ता के करीब पहुंचते चले गये।

यह भी अनायास नहीं था कि भूटान नरेश जिग्मे सिंगे वांग्चुक ने अचानक 15 दिसंबर 2006 को अपने ज्येष्ठ पुत्र जिग्मे खेसर वांग्चुक (वर्तमान नरेश) को सत्ता की बागडोर पूरी तरह सौंप दी जबकि पूर्व घोषित कार्यक्रम के अनुसार यह सत्ता परिवर्तन 2008 में होना था। इसने सबको हैरानी में डाल दिया। भूटान नरेश ने समय से पूर्व सत्ता की बागडोर सौंपने के पीछे के कारणों का खुलासा भी नहीं किया। वैसे, युवराज खेसर अमेरिका के काफी करीब माने जाते हैं और यह भी चर्चा थी कि नये संविधान का मसौदा युवराज खेसर की ही देखरेख में अमेरिकी विशेषज्ञों ने तैयार किया था ताकि राजशाही को थोड़ा मानवीय रूप दिया जा सके।

दिसंबर 2006 में भारत के चर्चित और प्रतिष्ठित पत्रकार कुलदीप नय्यर की मुलाकात नेपाल स्थित अमेरिकी राजदूत जेम्स एफ. मोरियार्टी से हुई। एक समाचार एजेंसी के अनुसार नय्यर ने जानना चाहा कि शिविरों में शरणार्थी जीवन बिता रहे भूटानियों को उनके देश भूटान भेजने की बजाय अमेरिका ने क्यों इतनी बड़ी संख्या में इन्हें अपने देश ले जाने का प्रस्ताव रखा? जवाब में मोरियार्टी ने कहा कि “शरणार्थी शिविरों में आतंकवादी गतिविधियां देखने को मिली हैं। इसका असर भारत के उत्तर पूर्व के हिस्से पर पड़ेगा। हम भारत को मदद पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं।”

भूटान के शासकों की धूर्तता और पाखंड का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि उसने अपने ‘सकल राष्ट्रीय आनंद’ (ग्रॉस नेशनल हैपीनेस) की अवधारणा को सारी दुनिया में जोरशोर से प्रसारित किया और यह बताना चाहा कि धरती पर अगर कहीं कोई स्वर्ग है तो वह भूटान है। जिस देश की 1/6 आबादी को न्यूनतम मानव अधिकारों की मांग करने की सजा के तौर पर भीषण दमन और उत्पीड़न का शिकार बनाते हुए देश से बाहर खदेड़ दिया गया हो, उनकी जमीनों और बागानों पर कब्जा कर लिया गया हो उस देश को ‘सकल राष्ट्रीय आनंद’ वाले देश के रूप में प्रचारित करने से बड़ा पाखंड और क्या हो सकता है! नेपाली पत्रकार सी के लाल और अनुराग आचार्य ने ठीक ही इसे ‘ग्रॉस नेशनल मिजरी’ और ‘ग्रॉस नेशनल शेम’ कहा है।

दिसंबर 2022 अमेरिका

मार्च 1998 में भाजपा नेता अटलबिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री बने और गृहमंत्री का पद लाल कृष्ण आडवाणी ने संभाला। इससे पहले एक बार और वाजपेयी को प्रधानमंत्री बनने का सौभाग्य मिला था लेकिन इस पद पर वह 16 मई 1996 से 1 जून 1996 तक (सोलह दिन) ही रहे लेकिन इस बार उनके पास अच्छा खासा बहुमत था। यह एनडीए की सरकार थी जिसके संयोजक जार्ज फर्नांडीज थे जो इस सरकार में रक्षा मंत्री बन गये थे। स्वाभाविक है कि भूटानी शरणार्थियों का नेतृत्व जो लोग कर रहे थे उन्हें इस सरकार से काफी उम्मीद थी। इसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि नेतृत्वकारी वर्ग का बहुत बड़ा हिस्सा न केवल हिंदू था बल्कि काफी हद तक हिंदुत्ववादी मानसिकता से भी ग्रस्त था।

भाजपा के सत्ता में आते ही उसे लगा कि अब शरणार्थी समस्या का समाधान हो जायेगा। इनके नेतागण भाजपा के शीर्ष नेताओं से लेकर विश्व हिंदू परिषद के अध्यक्ष अशोक सिंघल से भी कई बार मिले। वैसे भी दक्षिणी भूटान की हिंदू आबादी को प्रताड़ित किये जाने की खबरें काफी पहले से इन लोगों को मिल रही थीं। 1996 में भाजपा की सरकार बनने के पांच दिन बाद ही 21 मई को विश्व हिंदू परिषद का एक प्रतिनिधिमंडल राजधानी थिम्पू में भूटान नरेश से मिला लेकिन इसने शरणार्थियों की समस्या पर कोई बातचीत नहीं की। प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व विहिप (विश्व हिन्दू परिषद) के कार्यकारी अध्यक्ष अशोक सिंघल कर रहे थे और इसमें संगठन के उपाध्यक्ष श्रीशचंद दीक्षित और आचार्य गिरिराज किशोर शामिल थे।

1990 में भी विहिप का प्रतिनिधिमंडल भूटान नरेश से मिला था। प्रतिनिधिमंडल को यह जानकारी मिली थी कि दक्षिणी भूटान के कुछ इलाकों में चल रही संस्कृत पाठशालाओं को खत्म कर उन्हें सेना की बैरकों का रूप दे दिया गया है। ऐसे अनेक गांवों के नाम बदल दिये गये हैं जिनसे संस्कृत अथवा हिंदू संस्कृति की गंध आती थी। लामीधारा गांव में एक संस्कृत पाठशाला का अस्तित्व था जिसका अब कहीं नाम निशान भी नहीं था। लामीधारा का नाम बदलकर मंडेय गांव कर दिया गया और यहां से अधिकांश नेपाली मूल के भूटानियों को बाहर निकाल दिया गया। अशोक सिंघल इन्हीं मुद्दों पर भूटान नरेश से बातचीत करना चाहते थे लेकिन वह कुछ कहते इससे पहले ही शाही सरकार की ओर से राजा ने अयोध्या के प्रस्तावित राम मंदिर के लिए चांदी की एक अलंकृत ईंट उन्हें भेंट की। प्रतिनिधिमंडल के सदस्य अपनी शिकायत दर्ज कराये बिना गदगद भाव से वापस आ गए। 1996 में भी इस टीम ने भूटान नरेश से मिलने की केवल औपचारिकता पूरी की।

अपने निधन से कुछ माह पूर्व 9 सितंबर 2015 को अशोक सिंघल ने अमेरिका के वर्सेस्टर (मेसाच्यूसेट्स) में ‘हिंदू सनातन सेवा समाज’ के एक समारोह में हिस्सा लिया जिसका आयोजन अमेरिका में बसे भूटानी शरणार्थियों ने किया था। उसमें उन्होंने अपने संबोधन में कहा-‘‘नेपालीभाषी भूटानी लोगों को उनके मूल देश से इसलिए निकाल बाहर किया गया क्योंकि वे हिंदू धर्म का पालन कर रहे थे।’’ इसके बाद उन्होंने नेपाल स्थित शरणार्थी शिविरों में शरणार्थियों की जो कठिनाइयां देखी थीं उनका वर्णन किया और उनकी इस बात के लिए प्रशंसा की कि ‘कठिनाइयों के बावजूद उन्होंने अपनी संस्कृति को बचाये रखा और हिंदू धर्म के मार्ग पर चलते रहे।’

किसी ने उनसे नहीं पूछा कि इन शरणार्थियों की मदद भारत सरकार ने क्यों नहीं की जबकि 1998 से 2004 तक यानी छः वर्ष से भी अधिक समय तक उनके ही विचारों पर चलने वाली वाजपेयी सरकार का अस्तित्व था। दरअसल भारत के हिंदूवादी नेताओं की दिलचस्पी राजा तक ही सीमित थी जिसकी वजह से ‘दुश्मन कम्युनिस्ट चीन से भारत बचा हुआ है।’

2008 तक शरणार्थियों की समस्या लगभग समाप्त हो गयी। शिविरों में बमुश्किल 6-7 हजार बचे रहे और अन्य सभी विदेशों में बस गये। एक भी शरणार्थी भूटान सरकार द्वारा ही बनायी गयी उस श्रेणी में नहीं आया जिस श्रेणी का नाम ‘वास्तविक भूटानी’ दिया गया था।

शरणार्थियों के समर्थन में प्रदर्शन


2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार आयी और इसके गृहमंत्री अमित शाह ने बड़े जोशखरोश के साथ भारत के नागरिकता बिल में संशोधन का ऐलान किया जिसके तहत पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के हिंदू, बौद्ध, सिख धर्म के लोगों को भारत में नागरिकता दी जायेगी। इसमें भी भूटान का कहीं उल्लेख नहीं है जबकि एक लाख से अधिक हिंदुओं को भूटान के राजा ने जबरन देश से बाहर निकाल दिया, उनकी नागरिकता समाप्त कर दी और उन्हें विदेशों में जाकर शरण लेनी पड़ी। हिंदुओं के हितों की रक्षा करने के मोदी-शाह के पाखंड का यहां पूरी तरह पर्दाफाश होता है।

दरअसल इस ‘हिंदू हित रक्षा’ के पीछे मुसलमानों के प्रति नफरत वाला एजेंडा काम करता है। यह देखा जाता है कि इस ‘हित रक्षा’ में किस हद तक मुसलमानों की भर्त्सना की जा सकती है। अगर भूटान के इन असहाय नागरिकों को प्रताड़ित करने वाली सत्ता किसी मुस्लिम शासन व्यवस्था वाली रही होती तब इन्हें अपने यहां रखने का फायदा भी मिलता। जाहिर सी बात है कि भूटानी नागरिकों के हिंदू होने से कोई सरोकार नहीं है-असली सरोकार इससे है कि उनसे इन हिंदुत्वादियों के मुस्लिम विरोधी एजेंडा को मदद मिलती है या नहीं।

ताज़ा आंकड़ों के अनुसार अब तक 1,13,000 शरणार्थी अमेरिका तथा अन्य छ: देशों में बसाये जा चुके हैं। शरणार्थी शिविरों में अभी भी 6 से 8 हजार शरणार्थी इस उम्मीद में पड़े हैं कि शायद उनकी स्वदेश वापसी हो सके। उन्हें अभी भी भारत से उम्मीद है कि वह कम से कम एक बार भूटान सरकार से इसके लिए अनुरोध कर दे।

रिपोर्ट का पहला भाग पढ़ने के लिए नीचे की लिंक को क्लिक करें…

भूटानी शरणार्थी और भारत की आपराधिक उदासीनता

(आनंद स्वरूप वर्मा वरिष्ठ लेखक और पत्रकार हैं)

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