यह सुप्रीम कोर्ट की शुचिता का सवाल है, बेंच हंटिंग का नहीं योर ऑनर!

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आम तौर पर देखा जाता है कि देश भर के उच्च न्यायालयों में किसी न्यायाधीश के यहां से मुकदमा ट्रांसफर कराने के लिए उसके रिश्तेदार का वकालतनामा वादकारी या उसके वकील लगवा देते हैं तो संबंधित न्यायाधीश स्वत: अपने को सुनवाई से अलग कर लेता है। उच्चतम न्यायालय में यह टेक्टिस नहीं चलती, यहां वादकारी के वकील किसी मामले में यदि किसी न्यायाधीश पर अविश्वास जताते हैं तो वह न्यायाधीश न्याय की मर्यादा रखने के लिए पीठ से हट जाता रहा है। पिछले कुछ समय से कई मामलों में गंभीर विवाद के बावजूद कई न्यायाधीश स्वयं तो हटते नहीं, वादकारी के आग्रह पर भी सुनवाई से नहीं हटते।

अपनी पसंद की बेंच के लिए तो वादकारियों पर बेंच फिक्सिंग, बेंच हंटिंग जैसे जुमलों का इस्तेमाल होता है लेकिन किसी न्यायाधीश के विरोध के बावजूद अपनी निजी रुचि के मामले सुनने की जिद के लिए कोई जुमला अभी तक इजाद नहीं हुआ है, क्योंकि उच्चतम न्यायालय को संविधान का संरक्षक और माननीय न्यायाधीशों को राग, द्वेष, पक्षपात से उपर माना जाता रहा है। यह बेंच हंटिंग का नहीं बल्कि सुप्रीमकोर्ट की शुचिता का सवाल है।

ऐसे में भूमि अधि‍ग्रहण में उचि‍त मुआवजा एवं पारदर्शि‍ता का अधि‍कार, सुधार तथा पुनर्वास अधिनि‍यम, 2013 की धारा 24 (2) की व्याख्या संबंधित मामलों की सुनवाई के लिए संविधान पीठ की अगुवाई कर रहे जस्टिस अरुण मिश्रा के सुनवाई से खुद को अलग न करने से गलत परंपरा कायम हुई है, ऐसा विधिक क्षेत्रों में माना जा रहा है। यही नहीं इस मामले में जिस तरह पीठ ने टिप्पणियां की हैं उससे उच्चतम न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की शुचिता पर भी प्रकारांतर से सवाल उठ रहा है।

अब प्रश्न है कि यदि इस मामले की संविधान पीठ से जस्टिस अरुण मिश्रा अलग हो जाते तो किसी अन्य वरिष्ठ न्यायाधीश की अध्यक्षता में नई संविधान पीठ बनती तो क्या उसे बेंच फिक्सिंग या बेंच हंटिंग कहा जा सकता था? इसका जवाब है नहीं, क्योंकि मास्टर ऑफ़ रोस्टर चीफ जस्टिस ही इस नई बेंच को गठित करते। बेंच फिक्सिंग तो रजिस्ट्री से होती है, यहां पैसे देकर वादकारी अपनी मनपसंद बेंच में अपना मुकदमा सुनवाई के लिए लगवाते हैं और बेंच हंटिंग तो तब होती जब किसी विशेष न्यायाधीश के समक्ष मुकदमा जाने पर वादकारी अपना मुकदमा वापस ले लेते हैं या तब तक मुकदमा दाखिल नहीं करते जब तक लिबरल बेंच नहीं आ जाती, जैसा अक्सर उच्च न्यायालयों में देखने को मिलता है।    

भूमि अधिग्रहण कानून के प्रावधानों को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई न करने पर जस्टिस अरुण मिश्रा ने कहा कि यह और कुछ नहीं बल्कि अपनी पसंद की पीठ चुनने का हथकंडा है और अगर इसे स्वीकार कर लिया गया तो यह संस्थान को नष्ट कर देगा। उन्होंने ने यह भी कहा कि यदि वे सुनवाई से हटते हैं तो यह इतिहास का सबसे काला अध्याय होगा, क्योंकि न्यायपालिका को नियंत्रित करने के लिए उस पर हमला किया जा रहा है। जस्टिस अरुण मिश्रा ने कहा कि सुनवाई से अलग हुआ तो भावी पीढ़ियां माफ नहीं करेंगी, सुनवाई से न हटने का फैसला न्याय के हित में है।

अब जब इस तरह के तर्क उच्चतम न्यायालय में एक वरिष्ठ न्यायाधीश की तरफ से दिए जा रहे हैं तो यह सवाल उठाना लाजमी है कि एक चीफ जस्टिस और 34 अन्य न्यायाधीश में से वे न्यायाधीश कौन से या कौन कौन हैं जिनकी अध्यक्षता में यदि संविधान पीठ गठित हो जाती तो यह न्यायपालिका के लिए काला अध्याय बन जाती। या उससे उच्चतम न्यायालय जैसा संस्थान नष्ट हो जाता या न्यायपालिका नियंत्रित हो जाती। इस तर्क के आधार पर क्या यह माना जाए कि अयोध्या भूमि विवाद में चीफ जस्टिस की जिस संविधान पीठ ने सुनवाई की है उसकी शुचिता पर प्रश्नचिंह है?    

जस्टिस अरुण मिश्रा ने कहा कि किसी भी मुकदमेबाज द्वारा जज को सुनवाई से हटने के लिए या बेंच चुनने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता और यह संबंधित न्यायाधीश को फैसला करना है कि वह केस को सुने या नहीं। जज के सुनवाई से अलग करने के लिए लंबी शर्मिंदगी वाली दलीलों को कारण नहीं होना चाहिए। अगर मैं सुनवाई से अलग होता हूं तो यह कर्तव्य का अपमान होगा, सिस्टम और अन्य जज या भविष्य में जो बेंच में आएंगे, उनके साथ अन्याय होगा। यह केवल न्यायपालिका के हित के लिए है जिसने मुझे सुनवाई से न हटने के लिए मजबूर किया है। संविधान पीठ में शामिल एनी जज जस्टिस विनीत सरन, जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस एस रवींद्र भट ने जस्टिस मिश्रा के साथ सहमति व्यक्त की और कहा कि हम उनके तर्क और निष्कर्ष के साथ सहमत होकर यह कहते हैं कि कोई भी कानूनी सिद्धांत या आदर्श वर्तमान बेंच में उनकी भागीदारी को नहीं रोकता जो संदर्भ को सुनने के लिए बनी है।

यह मामला इसलिए उठा है क्योंकि उच्चतम न्यायालय की दो पीठों ने इस कानून को लेकर अलग-अलग फैसले दिए थे। इसके बाद दोनों ही फैसलों और इस कानून के प्रावधानों की व्याख्या के लिए संविधान पीठ का गठन किया गया था। जस्टिस अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली एक पीठ ने कहा था कि अगर सरकारी एजेंसियों द्वारा भूमि का अधिग्रहण किया जाता है तो उसे इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता है कि किसानों ने निर्धारित पांच साल के भीतर मुआवजा नहीं लिया है। जबकि 2014 में एक दूसरी पीठ ने कहा था कि अगर पांच साल के भीतर किसान मुआवजा नहीं लेते हैं तो उनकी जमीन का अधिग्रहण रद्द माना जाएगा। जब इस मामले की सुनवाई के लिए जस्टिस अरुण मिश्रा की अध्यक्षता में संविधान पीठ का गठन हुआ तो किसान संगठनों ने पीठ में जस्टिस अरुण मिश्रा के रहने पर आपत्ति की और उनसे सुनवाई से अलग हो जाने को कहा।

किसान संगठनों की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता श्याम दीवान ने कहा कि किसी न्यायाधीश को पक्षपात की किसी भी आशंका को खत्म करना चाहिए, अन्यथा जनता का भरोसा खत्म होगा और सुनवाई से अलग होने का उनका अनुरोध और कुछ नहीं बल्कि संस्थान की ईमानदारी को कायम रखना है। दीवान ने विभिन्न निर्णयों का उल्लेख किया और कहा कि जब किसी न्यायाधीश के सुनवाई से अलग होने की मांग की जाती है तो उसे अनावश्यक संवेदनशील नहीं होना चाहिए, इसे व्यक्तिगत रूप से नहीं लेना चाहिए। उन्होंने कहा कि यहां हम भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धारा 24 की व्याख्या पर विचार कर रहे हैं। यह पीठ जिस विस्तृत निर्णय पर विचार कर रही है, वह उक्त न्यायाधीश द्वारा दिया गया है और इसमें झुकाव का तत्व है। दीवान ने कहा कि मुद्दा यह है कि क्या यह सही है अगर किसी न्यायाधीश ने किसी मुद्दे पर निर्णय लिया है और फिर उस मुद्दे को एक बड़ी पीठ को सौंपा जाता है, तो क्या न्यायाधीश को उस बड़ी पीठ का हिस्सा होना चाहिए?

इसके पूर्व वर्ष 2017 में उच्चतम न्यायालय में मेडिकल एडमिशन घोटाले के मामले में हाई वोल्टेज ड्रामा हुआ था। इसमें तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा से सुनवाई से अलग होने के लिए वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने कहा था, लेकिन जस्टिस दीपक मिश्रा ने अलग होने से इंकार कर दिया था। इस मामले में सुनवाई के दौरान जस्टिस जे चेलमेश्वर और एस अब्दुल नज़ीर की बेंच ने पांच जजों की संविधान पीठ के हवाले करने का आदेश दिया था। कथित रिश्वतखोरी के इस मामले में उड़ीसा हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त जज जस्टिस इशरत मसरूर कुद्दुसी पर आरोप थे। चीफ़ जस्टिस दीपक मिश्रा पर भी सवाल उठे थे, जिसकी वजह से उन्होंने जस्टिस चेलमेश्वर की बेंच के फैसले पर पुनर्विचार के लिए पांच जजों की एक पीठ गठित की। इस पीठ ने संवैधानिक बेंच बनाए जाने के आदेश को रद्द कर दिया था।

इस मामले में ‘कैंपेन फॉर जूडिशियल एकाउन्टैबिलिटी’ एनजीओ की ओर से पेश हुए वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने कहा था कि चीफ जस्टिस को इस मामले की सुनवाई से खुद को अलग कर लेना चाहिए, क्योंकि सीबीआई की एफ़आईआर में उनका भी नाम शामिल है। कुछ अन्य वकीलों ने जस्टिस चेलमेश्वर के उस आदेश का हवाला दिया था, जिसमें निर्देश दिया गया था कि पांच जजों की बेंच में उच्चतम न्यायालय के सबसे वरिष्ठ जज शामिल किए जाने चाहिए। इस पर बेंच के सदस्य जस्टिस अरुण मिश्रा ने कहा था कि क्या इससे हमारे ऊपर सवाल नहीं खड़ा हो रहा है कि केवल पांच वरिष्ठ जजों को ही मामले की सुनवाई करनी चाहिए। क्या हम योग्य नहीं हैं? जस्टिस मिश्रा, जो कि उच्चतम न्यायालय के पांच सबसे वरिष्ठ जजों में शामिल नहीं है,  उन्होंने कहा था कि आप व्यवस्था में मौजूद हरेक व्यक्ति की ईमानदारी पर शक कर रहे हैं।

अब इसे महज संयोग कहा जाए कि भूमि अधि‍ग्रहण में उचि‍त मुआवजा एवं पारदर्शि‍ता का अधि‍कार, सुधार तथा पुनर्वास अधिनि‍यम, 2013 की धारा 24 (2) की व्याख्या के लिए जो संविधान पीठ का गठन हुआ है उसमें भी सबसे वरिष्ठ जज शामिल नहीं हैं।

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