इस चुनाव में सामने आई है जो असल कहानी

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जब 2013 में जब नरेंद्र मोदी ने भारतीय जनता पार्टी का नेतृत्व अपने हाथ में लिया और असाधारण आक्रामक अंदाज में चुनाव अभियान छेड़ा, तो कुछ पर्यवेक्षकों ने उसे ‘भारतीय राजनीति का रॉकफेलर क्षण’ कहा था। उनका तात्पर्य 20वीं सदी के आरंभिक दो दशकों में अमेरिका में हुई सियासी परिघटना से था, जिसमें संभवतः पहली बार कॉरपोरेट सेक्टर ने राजनीति में अपना निर्णायक हाथ दिखाया था।

जॉन डी. रॉकफेलर वो कारोबारी थे, जो अमेरिकी डॉलर के हिसाब से दुनिया के इतिहास में सबसे पहले अरबपति बने। रॉकफेलर ने उस उस दौर में कच्चे तेल के कारोबार में कदम रखा था, जब दुनिया में अभी ये ईंधन प्रचलन में आ रहा था। उन्होंने स्टैंडर्ड ऑयल कंपनी की स्थापना की और इसमें बढ़ते मुनाफे के साथ अरबपति बने। लेकिन यह इस कहानी का एक पहलू है। उसका दूसरा पहलू राजनेताओं के साथ मिलीभगत से अमेरिकी राजनीति पर उनका बना गहरा प्रभाव था।

1880 और 1890 के दशकों में तेल कारोबार पर रॉकफेलर समूह का एकाधिकार कायम होने लगा था। तब अमेरिकी सीनेट में तेल कारोबार पर मोनोपॉली रोकने के लिए एक बिल लाया गया था। रॉकफेलर ने इसका उपाय 1900 के राष्ट्रपति चुनाव में एक उम्मीदवार को स्पॉन्सर करके निकाला। उन्होंने थियोडोर डी. रुजवेल्ट के चुनाव अभियान की फंडिंग का जिम्मा उठाया। रुजवेल्ट जीत गए और 1901 से 1909 तक (1904 में पुननिर्वाचन के साथ) अमेरिका के राष्ट्रपति रहे। इस दौर में रॉकफेलर का कारोबार तेजी से फूलता-फलता चला गया।

रॉकफेलर घराने ने कारोबार, राजनीति, मीडिया और समाज को प्रभावित करने के लिए अनेक संस्थान बनाए। उनमें से ही एक रॉकफेलर कैपिटल मैनेजमेंट है। आजकल इस संस्था की इंटरनेशनल बिजनेस शाखा के प्रमुख जाने-माने निवेशक रुचिर शर्मा हैं। शर्मा ब्रिटेन के मशहूर अखबार फाइनेंशियल टाइम्स में एक नियमित कॉलम भी लिखते हैं। उनका दावा है कि पिछले 25 साल में भारत में हुए 32 चुनावों के समय उन्होंने संबंधित स्थानों का दौरा किया है। लोकसभा चुनाव के समय वे विभिन्न राज्यों का दौरा करते हैं।

एक टीवी चैनल को दिए लंबे इंटरव्यू (#ConclavePopUp | Democracy on the Road: Mapping Markets and the Mandate (youtube.com)) में उन्होंने बताया कि इस बार उन्होंने दक्षिण में आंध्र प्रदेश से पश्चिम में महाराष्ट्र तक की यात्रा की है। उन्होंने बताया कि उनका तरीका यह होता है कि यात्राओं के दौरान वे रैलियों में जाते हैं (जिसे उन्होंने सबसे निरर्थक कार्य बताया), स्थानीय पत्रकारों से मिलते हैं, लोगों से बात करते हैं, और स्थानीय कारोबारियों एवं रसूखदार लोगों के लिए डिनर आयोजित करते हैं। इस तरह वे भांपने की कोशिश करते हैं कि जमीनी स्तर पर सूरत क्या है और चुनावी हवा का रुख किस तरफ है। फिर उन्होंने स्पष्ट किया कि यह सब वे एक (अंतरराष्ट्रीय) निवेशक की निगाह से करते हैं- और मार्केट के लिए करते हैं।

अपनी ताजा यात्रा के बारे में उन्होंने अपना निष्कर्ष बताया कि इस बार उन्हें कोई सिर्फ हीट वेब दिखा- कोई अन्य वेब नहीं। बहरहाल, जो बात सबसे ज्यादा मायने रखती है, वो उनका यह निष्कर्ष है कि भारतीय आबादी की बहुसंख्या distress यानी कष्ट की स्थिति में है। इस सिलसिले में उनका पूरा बयान औसत आमदनी घटने, महंगाई की मार और रोजगार के अभाव की खबरों की पुष्टि करता है। साथ ही उन्होंने कहा कि (जिस समय यह हुआ है), उसी समय आबादी के एक छोटे हिस्से के पास अकूत धन इकट्ठा हुआ है। शर्मा ने कहा कि नरेंद्र मोदी के शासनकाल में ‘भारत में जो धन उत्पन्न हुआ है’, उससे वे अत्यंत खुश हैं, लेकिन इससे बढ़ी गैर-बराबरी चिंता पैदा करती है।

अपने इस अनुभव के आधार पर ही उन्होंने आम चुनाव के परिणाम के बारे में अपना अनुमान बताया। उन्होंने कहा कि शेयर बाजार और सट्टा बाजार में आम तौर पर मौजूदा चुनाव को फ्रोज़ेन इलेक्शन माना जा रहा है। इस शब्द का मतलब है कि वहां स्थितियों में ज्यादा परिवर्तन की संभावना नहीं देखी जा रही है। यानी कमोबेस 2019 जैसा जनादेश उभरने का यकीन इन बाजारों में है। मगर शर्मा ने आगाह किया कि इन बाजारों को जैसी उम्मीद है, भारतीय जनता पार्टी का प्रदर्शन उससे काफी कमजोर रह सकता है।

इस बीच जिस एक इंटरव्यू (Prashant Kishor Bristles at Reminder of Earlier Wrong Predictions, says BJP Will Win 300+ seats (youtube.com)) को लेकर सोशल मीडिया पर खूब गरमी पैदा हुई है। वह वेबसाइट द वायर पर चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर के साथ प्रसारित हुई बातचीत है। इंटरव्यू करण थापर ने लिया। इस इंटरव्यू का चार या पांच मिनट का एक हिस्सा जबरदस्त वायरल हुआ है। यह हिस्सा हिमाचल प्रदेश विधानसभा के पिछले चुनाव के बारे में की गई प्रशांत किशोर के एक पूर्व टिप्पणी से संबंधित है। इस हिस्से को आधार बना कर किशोर ने लोकसभा चुनाव के परिणाम के बारे में जो पूर्वानुमान लगाया है, उसकी साख पर प्रहार किया गया है।

बहरहाल, इस बहस में बिना गए, यहां हम उसी इंटरव्यू के एक दूसरे हिस्से का जिक्र कर रहे हैं। दरअसल, इस हिस्से में किशोर ने जो कहा, वह हाल के महीनों में लगभग हर लंबे इंटरव्यू में उन्होंने उसे कहा है। वो बात जमीनी स्तर पर बिगड़ती माली हालत से संबंधित है। बात यह है कि देश के बहुसंख्यक लोग दुर्दशा में है। किशोर की राय है कि हाल के वर्षों में भारत के 60 फीसदी लोगों की आर्थिक स्थिति बिगड़ती चली गई है।

बल्कि एक इंटरव्यू (Indian Express Adda: What Prashant Kishor Forecasts For Lok Sabha Elections 2024 – YouTube) में तो इंटरव्यू ले रहे व्यक्ति ने जब यह कहा कि नरेंद्र मोदी के दौर में अर्थव्यवस्था बेहतर प्रदर्शन कर रही है, तो किशोर ने तुरंत उस बात को काटते हुए कहा था कि आम लोगों की अर्थव्यवस्था बदहाल है। उन्होंने उन तमाम समस्याओं का जिक्र किया, जिनकी अर्थव्यवस्था पर गंभीर बहस के दौरान अक्सर चर्चा आती है। केंद्र सरकार की तरफ से आंकड़े गढ़ कर इस असली सूरत को ढकने की कोशिश की गई है। बेशक इस प्रयास के प्रभाव में मीडिया मालिक और कर्मियों का एक बड़ा हिस्सा आ गया है, जैसाकि इस चर्चा में सवाल पूछने वाले मीडिया मालिक के रुख से जाहिर हुआ।

बहरहाल, उपरोक्त ये दोनों टिप्पणियां अनुभवजन्य (empirical) हैं। मगर इसी आम चुनाव के दौरान आम जन की दुर्दशा की कहानी सर्वे आंकड़ों से भी सामने आई है। सीएसडीएस लोकनीति सर्वेक्षण की रिपोर्ट अप्रैल के मध्य में- यानी मतदान के पहले चरण से ठीक पहले जारी हुई थी। उस रिपोर्ट का सार बताते हुए सीएसडीएस-लोकनीति के सर्वेक्षण विश्लेषकों लिखा था- “दो खास बिंदु उभरकर सामने आए हैं। एक- मतदाता उन आर्थिक मुसीबतों से अवगत हैं, जिनका उन्हें सामना करना पड़ रहा है। देश की सकल अर्थव्यवस्था (macro economy) से जुड़े संकेतों का इस्तेमाल कर यह साबित करने की कोशिश की जा रही है कि अर्थव्यवस्था का हाल बेहतर है। लेकिन अपने अनुभव के आधार पर मतदाता अपनी आर्थिक स्थिति को लेकर चिंतित हैं। प्री-पोल सर्वे से जो दूसरा पहलू साफ तौर पर उभरकर सामने आया, वह वर्ग विभाजन है।” (ऐसा क्यों? बढ़ती मुश्किलों के बावजूद मोदी पर ही दांव!  – जनचौक (janchowk.com))

दरअसल, भारतीय आम चुनाव के बारे में देशी-विदेशी मीडिया में छपी शायद ही ऐसी कोई गंभीर रिपोर्ट होगी, जिसमें मोदी राज में बढ़ी गैर-बराबरी और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों की बढ़ती जा रही मुश्किलों का उल्लेख ना हुआ हो। इन बदहाली के कारणों में मोदी के सरकार के कुछ फैसलों का जिक्र भी अक्सर हुआ है। मसलन, नोटबंदी, जीएसटी, कोरोना महामारी के दौरान अनियोजित लॉकडाउन, कॉरपोरेट टैक्स में भारी छूट, पूंजीपतियों की कर्ज माफी, कृषि क्षेत्र की उपेक्षा, और जन-कल्याण योजनाओं के बजट में लगातार गिरावट का उल्लेख इन रिपोर्टों में हुआ है।

यह आम चुनाव तक आते-आते प्रधानमंत्री मोदी और उनकी पार्टी ने सीधे जन-कल्याण की अवधारणा को अपने निशाने पर ले लिया। अब यह स्पष्ट हो चुका है कि कल्याणकारी कार्यों पर खर्च को रेवड़ी बांटना कहना और इसके जरिए जन-कल्याण की धारणा पर प्रहार करना उनकी एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा था। वह बात तब और स्पष्ट हो गई, जब प्रधानमंत्री मोदी, भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा और पार्टी के प्रवक्ताओं ने उत्तराधिकार कर और धन कर (वेल्थ टैक्स) पर संदर्भविहीन हमला शुरू कर दिया। एक इंटरव्यू में तो मोदी ने साफ-साफ कहा कि उनकी राय में ‘धन निर्माताओं’ (यानी धनी वर्ग) का सम्मान होना चाहिए। यानी उन पर क्रोनी कैपिटलिज्म जैसे इल्जाम नहीं मढ़े जाने चाहिए।

रुचिर शर्मा ने जिस कष्ट का उल्लेख किया है, वह प्रधानमंत्री की उपरोक्त सोच पर आधारित नीतियों का सीधा परिणाम है। शर्मा चूंकि निवेशक की नजर से सोचते हैं और हालात का मार्केट की नजर से विश्लेषण करते हैं, इसलिए जाहिर है, वे इंटरव्यू में कष्टकर स्थितियों के कारणों के बारे में आम तजुर्बे से गलत साबित हो चुकी बातें कहते सुने गए। इसके बावजूद उन्होंने कहा कि ये स्थितियां टिकाऊ ग्रोथ के लिए जोखिम पैदा कर सकती हैं। शर्मा की यह चेतावनी अखबारों की सुर्खियों में भी आई है कि अन्य देशों की तरह भारत भी अपनी “ग्रोथ स्टोरी” को लेकर निश्चिंत नहीं रह सकता। कनाडा, जर्मनी, चिली आदि जैसे देशों का जिक्र करते हुए उन्होंने आगाह किया कि कुछ वर्ष पहले तक उन देशों का ग्रोथ एक आकर्षक कहानी था, लेकिन बात बिगड़ते देर नहीं लगी।

यहां हमने शर्मा, किशोर, या सीएसडीएस-लोक नीति के सर्वे का जिक्र एक नमूने यानी सैंपल के तौर पर किया है। इसलिए कि इनमें से एक व्यक्ति- यानी शर्मा टॉप इन्वेस्टर हैं, दूसरे- यानी किशोर इलीट सियासत का हिस्सा हैं, जिनका राजनीति को कंपनी प्रबंधन (management) की तरह संचालित करने की संस्कृति को भारत ले आने में एक बड़ा योगदान है, और तीसरी वह संस्था है, जिसका भारत में चुनाव पूर्व एवं चुनाव उपरांत राजनीतिक पहलुओं के साथ व्यापक सामाजिक-आर्थिक सर्वे करने का रिकॉर्ड अब खासा लंबा हो चुका है। हर सर्वे की तरह सीएसडीएस-लोकनीति के आंकड़ों पर भी सवाल खड़े किए जा सकते हैं, मगर हकीकत यह है कि भारत में मतदान से इतर चुनाव से संबंधित लोगों की अन्य सोच का अंदाजा पाने का कोई बेहतर स्रोत हमारे पास मौजूद नहीं है।

अगर ये तीनों सैंपल- चाहे अपने अनुभव के आधार पर या अपने सर्वे आंकड़ों के आधार पर- एक ही बात कह रहे हों, तो उसे अवश्य ही गंभीरता से लिया जाएगा। बेशक, इन तीनों ने कोई नई बात नहीं बताई है। जो लोग भारत में सामाजिक-आर्थिक घटनाओं और रुझानों पर नज़र रखते हैं, उनके पास पहले से भारत में फैल रहे distress की पर्याप्त जानकारी है। लेकिन यहां विचारणीय मुद्दा मौजूदा चुनाव की रियल स्टोरी का है। यानी वह वास्तविक और दूरगामी महत्त्व कहानी क्या है, जिस पर दलों की जीत-हार की चिंता के बीच भी चुनावी चर्चा के दौरान रोशनी पड़ी है? गौरतलब यह है कि सत्ता पक्ष की तरफ से इस कहानी पर परदा डालने खूब कोशिशें हुई हैं। हिंदू-मुस्लिम के नैरेटिव से यह लगातार प्रयास हुआ है कि बात इस ओर ना जाए।

मगर जब कभी और कहीं भी गंभीर चर्चा हुई है, तब ध्यान उस ओर गया ही है। विपक्षी नेताओं ने चुनाव प्रचार के दौरान भी महंगाई, बेरोजगारी और आम जन की दुर्दशा को अपने नैरेटिव में शामिल किया है। मगर एक धारणा यह है कि जो भी विपक्ष में रहता है, वह ऐसी बातें कहता ही है।

बहरहाल, अब इस बात को सिर्फ विपक्ष नहीं, बल्कि निवेशक भी कह कर रहे हैं। वे निवेशक हकीकत से आंख नहीं चुरा पा रहे हैं, जिनका भारतीय बाजार में दीर्घकालिक हित है। वे इस हाल के परिणामस्वरूप संभावित अस्थिरता से चिंतित हैं। और उन इलीट विश्लेषकों के लिए भी इसे नजरअंदाज करना संभव नहीं हुआ है, जिनका इस मुकाम पर अभी सीधा राजनीतिक हित सत्ताधारी दल से नहीं जुड़ा हुआ है।

तो अब यह देखना है कि क्या यह स्थिति की कोई बड़ी भूमिका चुनाव परिणाम तय करने में होती है? सवाल इसलिए अधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि, जैसाकि सीएसडीएस-लोकनीति के विश्लेषकों ने कहा है, आम मतदाता अपनी बढ़ती जा रही दुर्दशा से भलिभांति परिचित हैं। सवाल यह है कि क्या वोट डालते वक्त उनका निर्णय इस दुर्दशा से प्रभावित हुआ है? यह जानने के लिए फिलहाल हमें चार जून तक इंतजार करना होगा।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)

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