आज से 18वीं लोक सभा का सत्र शुरू होगा और 26 जून को इसके स्पीकर का चुनाव होगा।लोकसभा के स्पीकर के चुनाव को मोदी के अतीत के अपराधों ने संसदीय जनतंत्र के जीवन के लिए बेहद महत्वपूर्ण बना दिया है क्योंकि संसद और विधायिकाओं के इन पदों के बल पर उसने ऐसे तमाम अपराधपूर्ण काम किए हैं, जिन्हें जनतंत्र मात्र को जीते जी मार डालने की साज़िशें कहा जा सकता है।
लोक सभा में ओम बिरला नामक शख़्स तो सांसदों की ज़ुबान बंद करने के लिए इतना कुख्यात है कि वह न सिर्फ़ विपक्ष के सांसदों को बोलने से रोकता है, व्यापक पैमाने पर उनको सदन से सामूहिक रूप से बाहर करता है, बल्कि जघन्यता की हर सीमा को लांघ कर लोक सभा के रेकर्ड तक से विपक्ष के वक्तव्यों को उड़ाने काम किया ताकि भविष्य में उनकी कहीं कोई हदीस ही न रहे। राज्य सभा में भी अध्यक्ष धनखड़ और उपाध्यक्ष हरिवंश भी जोकरों की तरह इसी ओम बिरला की हरकतों के नकलची बने हुए थे।
विधानसभाओं में भी राज्य सरकारों को गिराने और विधायकों की घोड़ामंडी सजाने वाले ऑपरेशन लोटस का एक प्रमुख चरित्र वहाँ का स्पीकर हुआ करता था।
इन सबके चलते ही मोदी ने नोटबंदी से लेकर ग़लत जीएसटी, रफाएल की ख़रीद, चुनावी बाण्ड और नग्नता के साथ अडानी और अंबानी की तिजोरियाँ भरने के जो असंख्य अपराधपूर्ण, भ्रष्ट कारनामें किए, उनसे राष्ट्र को लगे सदमों को संसद और विधानसभाओं के मंचों पर दर्ज तक करना संभव नहीं हो पाया है।
किसी भी सदमे का तात्पर्य ही यही होता है कि उसके कारण अनायास ही किसी के भी मन-मस्तिष्क में उसके दुखों की याद ताज़ा हो जाती है। मनुष्य और समाज उन सदमों से उभर कर भी उनसे शिक्षा लेते हुए हमेशा अपने को उन्नत करता है। सामाजिक सदमों का अर्थ ही यही होता है कि उनके दुखों को सार्वजनिक रूप में इस प्रकार से रखा जाए ताकि उन्हें हमेशा याद किया जा सके, वे समाज के काम में आ सकें। ऐसे समृद्ध परिप्रेक्ष्य से ही भारत को मोदी शासन के उस आधारभूत सदमे से बचाया जा सकेगा जो हमारे राष्ट्र की पहचान को ही तहस-नहस करके भी उसे ही मान्यता दिलाता है।
पर यदि किन्हीं भी उपायों से इन सदमे जैसी घटनाओं को विचार का विषय ही नहीं बनने दिया जाता है, उन्हें सामूहिक स्मृतियों से ही लुप्त करने की चलन शुरू हो जाती है, तो वे घटनाएं सामूहिक स्मृतियों में बिल्कुल विकृत होकर दूसरा ही रूप ले लेती है। उनसे सही शिक्षा के बजाय अजीबोग़रीब क़िस्म की सामाजिक बीमारियां पैदा होने लगती है।
हम सब जानते हैं कि मोदी ने सत्य को दफ़नाने और सामूहिक स्मृतियों के विकृतिकरण के इस काम में अब तक संसद के दोनों सदनों के अध्यक्षों के अलावा न्यायपालिका का भी भरपूर इस्तेमाल किया है।
उनकी इन करतूतों का ही फल है कि समाज में आज झूठ, क्रूरता, असहिष्णुता, भ्रष्टाचार आदि की तरह की तमाम लाइलाज बीमारियों ने इस प्रकार घर कर लिया है कि वे सामाजिक नैतिकता का हिस्सा बनती जा रही है। व्यापम और शिक्षा माफिया के अभी चल रहे पेपर लीक की तरह के कांडों को भी मोदी और उसकी सत्य को विकृत करने की इन तमाम करतूतों से जोड़ कर देखा जाना चाहिए।
हाल में हमने अपनी एक फ़ेसबुक पोस्ट में लिखा था कि “स्पीकर के रूप में ओम बिरला की भूमिका संसदीय जनतंत्र को शूली पर चढ़ाने वाले जल्लाद से कम नहीं होगी। इसीलिए उनके पुनर्चुनाव का हर संभव विरोध किया जाना चाहिए।”
आज जब संसद का अधिवेशन शुरू हो रहा है, ओम बिरला, जगदीप धनखड़ और हरिवंश नारायण सिंह सरीखे जन-विरोधी तत्वों से संसदीय कार्रवाइयों को जितना बचाया जा सकेगा, हमारे संसदीय जनतंत्र के स्वास्थ्य के लिए उतना ही बेहतर होगा।
(अरुण माहेश्वरी आलोचक और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
+ There are no comments
Add yours