जंगबंदी, हथियारों का व्यापार और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण: एक चिंतन

भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्षविराम की ख़बरें सामने आ रही हैं, जिसके पीछे अमेरिका की मध्यस्थता को निर्णायक माना जा रहा है। हालाँकि यह पूर्ण युद्ध नहीं था, पर हालात उस दिशा में बढ़ सकते थे। इस घटनाक्रम के तीन प्रमुख पहलुओं पर ध्यान देना ज़रूरी है।

पहला, यह संघर्षविराम दोनों देशों की आपसी कोशिश से नहीं, बल्कि अमेरिका के हस्तक्षेप से संभव हुआ। दूसरा, पाकिस्तान को IMF से भारी आर्थिक सहायता मिली है, वहीं भारत को अमेरिका से 131 मिलियन डॉलर की सैन्य मदद घोषित हुई है-हालाँकि “सहायता” शब्द भ्रामक है, क्योंकि असल में यह एक सैन्य खरीद-फरोख्त है, जिसमें लाभ हथियार कंपनियों को होगा। तीसरा, सवाल उठता है कि क्या यह तनाव व हथियारों की खरीद वास्तव में आतंकवाद से निपटने की नीति है, या वैश्विक हथियार बाज़ार के हितों की पूर्ति?

22 अप्रैल 2025 को पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहराया, और पाकिस्तानी आतंकी संगठन ने हमले की जिम्मेदारी भी ली। इसके बाद दोनों देशों में सैन्य कार्रवाई और जवाबी हमले हुए। दोनों ओर जानमाल का नुकसान हुआ, परन्तु इस पूरे घटनाक्रम की पूरी सच्चाई सामने नहीं आ सकी है-मीडिया की भूमिका भी इसमें संदेह के घेरे में है। एक ओर जहाँ पक्षपाती मीडिया ने प्रचार में कोई कसर नहीं छोड़ी, वहीं स्वतंत्र आवाज़ों को दबाने की कोशिशें भी स्पष्ट रही हैं।

मुख्य प्रश्न यह है कि क्या भारत इस हमले के बाद आतंकवादी ठिकानों को इस हद तक नष्ट कर सका है कि भविष्य में इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो? इसका स्पष्ट उत्तर कहीं नहीं दिखाई देता। अगर इसका उत्तर नहीं है, तो फिर भारत ने इस सैन्य कार्रवाई से क्या हासिल किया?

इस संदर्भ में यह सवाल भी उठता है कि क्या आतंकी हमला और उसके बाद की प्रतिक्रिया हथियारों की खरीद का बहाना मात्र थी? अगर हथियार ही खरीदने थे तो शांति में भी खरीदे जा सकते थे। यानि ये सवाल भी एक संशय में ही ख़त्म होता है.

हमले के पीछे आतंकी मंशा भी संदेह के घेरे में है। रिपोर्ट्स के अनुसार, आतंकियों ने धर्म पूछकर केवल हिन्दुओं की हत्या की। इस घटना के तुरंत बाद मुख्यधारा की मीडिया ने “धर्म पूछकर मारा जाति पूछकर नहीं” के नैरेटिव को प्रचारित करना शुरू कर दिया, जिससे देश के कई हिस्सों से मुस्लिम समुदाय पर हमलों की खबरें आईं। यह साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण उस राजनीति को लाभ पहुँचाता दिखता है, जिसके लिए चुनावों से ठीक पहले धार्मिक तनाव एक साधन बन चुका है।

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या आतंकियों का उद्देश्य भारत में साम्प्रदायिक माहौल बिगाड़ना था? संभवतः नहीं, क्योंकि भारत में पहले से ही तनावपूर्ण सामाजिक माहौल मौजूद है, जिसमें मीडिया, सोशल मीडिया और राज्य की कार्रवाइयों की भूमिका किसी से छुपी नहीं है।

साथ ही यह भी विचारणीय है कि आतंकियों को इतना सुरक्षित और सुसज्जित “स्पेस” कैसे मिला? उनके पास जो हथियार थे, वे सामान्य हथियार नहीं बल्कि अमेरिकी सेना के बताए जा रहे हैं-संभव है कि ये अफगानिस्तान से प्राप्त हुए हों। ऐसे में सवाल उठता है कि भारत की सुरक्षा व्यवस्था की खामियाँ कहाँ थीं? इस बारे में अभी तक कोई ठोस जानकारी सामने नहीं आई है. 

कश्मीर जैसे संवेदनशील क्षेत्र में, हमले के समय सुरक्षा व्यवस्था का कमजोर होना और आतंकियों का निर्बाध रूप से हमला करना-यह सब संदेह पैदा करता है। उन्हें किसने भीतर से सहयोग दिया? यह प्रश्न भी अनुत्तरित है, जैसा कि आज तक पुलवामा हमले के कई पहलू अस्पष्ट बने हुए हैं।

इस पूरी श्रृंखला में एक बात स्पष्ट है-इस हमले का उद्देश्य, उसके पीछे के तत्व, और इसके बाद की अंतरराष्ट्रीय कूटनीति सबकुछ रहस्य के पर्दे में हैं। परन्तु अनुमान यह ज़रूर लगाते हैं कि इस समूची प्रक्रिया में सामरिक, राजनीतिक और आर्थिक हित गहराई से जुड़े हैं।

अंततः एक गंभीर प्रश्न उभरता है-क्यों पिछले कुछ वर्षों में हर अहम चुनाव से ठीक पहले देश में आतंकी घटनाएँ होती हैं, और इनका राजनीतिक लाभ किसे मिलता है?

उपरोक्त सवालों के जवाब शायद कभी न मिलें, लेकिन इतना निश्चित है कि आम आदमी की ज़िन्दगी, उसकी सुरक्षा और बुनियादी ज़रूरतें राजसत्ता की प्राथमिकता में नहीं हैं। राजसत्ता बाज़ार की व्यवस्थापक बन कर रह गयी है और बाज़ार को केवल लाभ दिखता है-और इंसान बाज़ार के लिए बस संसाधन बनकर रह गया है। परंतु यह भी सच है कि इंसान यदि चाहे, तो बाज़ार का कलपुर्जा बनने से इनकार कर सकता है।

(सलमान अरशद स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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