नई दिल्ली। दिल्ली विश्वविद्यालय के विभिन्न कोर्सों के पाठ्यक्रम में बदलाव किए गए हैं और अन्य पाठ्यक्रमों में बदलाव हो चुके हैं या बदलाव की प्रक्रिया चल रही है। विश्वविद्यालय के कुछ शिक्षकों ने इस बदलाव पर चिंता व्यक्त की है, तो अधिकांश शिक्षक मौन है। दरअसल, बदलाव का विरोध करने वालों का तर्क है कि यह बदलाव अकादमिक जरुरतों के हिसाब से नहीं बल्कि मौजूदा सत्ता के इशारे पर राजनीतिक जरूरतों के लिहाज से किया जा रहा है।
शैक्षणिक मामलों पर विश्वविद्यालय की सर्वोच्च निर्णय लेने वाली संस्था, डीयू की अकादमिक परिषद (Academic Council) ने 26 मई को नए चार वर्षीय स्नातक कार्यक्रम (four-year undergraduate programme -एफवाईयूपी) के तहत चौथे और पांचवें सेमेस्टर के लिए संशोधित इतिहास पाठ्यक्रम को मंजूरी दे दी। दिल्ली विश्वविद्यालय की कार्यकारी परिषद (Executive Council) ने 9 जून को इस बदलाव पर मुहर लगा दी।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 के आधार पर पाठ्यक्रम समीक्षा करते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय ने इतिहास के स्नातक पाठ्यक्रम में ‘ब्राह्मणीकरण’ का संदर्भ हटा दिया गया, असमानता पर एक पेपर वापस ले लिया गया और मातृसत्तात्मक दृष्टिकोण वाले पाठ को पितृसत्ता इकाई से संबद्ध कर दिया गया। डीयू के पाठ्यक्रमों में ये किए गए हालिया बदलावों में से एक हैं।
डीयू के साउथ कैंपस के निदेशक और अकादमिक मामलों की स्थायी समिति के सदस्य श्री प्रकाश सिंह ने मीडिया को बताया कि संशोधन का उद्देश्य पाठ्यक्रम को एनईपी के सुझावों के साथ संरेखित करना है।
‘ब्राह्मणीकरण’ शब्द हटा दिया गया
चौथे सेमेस्टर में ‘धर्म और धार्मिकता’ शीर्षक वाले सामान्य वैकल्पिक (generic elective)(जिसे ‘भारतीय उपमहाद्वीप में धार्मिक परंपराएं’ नाम दिया गया है) में ‘प्रारंभिक मध्ययुगीन काल में ब्राह्मणीकरण के दृष्टिकोण’ नामक एक अध्याय शामिल था। उप-शीर्षक में ‘ब्राह्मणीकरण’ शब्द को अब ‘शैव’, ‘शाक्त’ और ‘वैष्णव’ से बदल दिया गया है। घटक का शीर्षक अब ‘प्रारंभिक मध्ययुगीन युग में शैव, शाक्त और वैष्णव के प्रति दृष्टिकोण’ कर दिया गया है।
इसी तरह, पांचवें सेमेस्टर के पेपर ‘भारतीय इतिहास में महिलाएं’ के तहत एक इकाई के शीर्षक से ‘ब्राह्मणवादी’ शब्द को हटा दिया गया है। इस इकाई का नाम पहले ‘ब्राह्मणवादी पितृसत्ता पर आधारित पितृसत्ता का विकास’ था और अब इसका नाम ‘प्रारंभिक भारत में पितृसत्ता का विकास’ रखा गया है।
सामान्य वैकल्पिक (जीई) एक अंतःविषय पाठ्यक्रम है जो बीए (ऑनर्स), बीए प्रोग्राम, बीकॉम (ऑनर्स), साथ ही बीएससी (ऑनर्स) करने वाले छात्रों को पेश किया जाता है। छात्रों को अनिवार्य रूप से पाठ्यक्रमों के समूह में से जीई का चयन करना होगा। उपर्युक्त जीई इतिहास विभाग द्वारा प्रस्तावित जीई में से है।
इस बदलाव के पीछे के तर्क को समझाते हुए, इतिहास विभाग के एक शिक्षक, जिन्होंने पहचान बताने से इनकार कर दिया, ने कहा कि “ब्राह्मणीकरण और ब्राह्मणवादी शब्द ऐसे नहीं थे जो वे (विश्वविद्यालय) चाहते थे। उनका मानना है कि ये ऐसे शब्द नहीं हैं जिनका उपयोग कोई ऐतिहासिक शोध में कर सकता है। इसलिए इसे और अधिक वर्णनात्मक बनाने के लिए इसे बदल दिया गया है।”
हालांकि, डीयू के कुछ प्रोफेसरों ने बदलावों पर चिंता जताई है। जीसस एंड मैरी कॉलेज की सहायक प्रोफेसर माया जॉन ने कहा कि “संघ-भाजापा समर्थित शिक्षाविदों ने स्पष्ट रूप से एक ऐसे विश्व दृष्टिकोण को पुन: प्रस्तुत करने का दायित्व अपने ऊपर ले लिया है जिसके लिए सामाजिक व्यवस्था की कुछ हठधर्मी समझ और भारत के प्राचीन अतीत की गौरवशाली धारणा के प्रति पूर्ण अधीनता और आलोचना रहित पालन की आवश्यकता होती है। परिणामस्वरूप, उन्होंने इतिहास के पेपर से ब्राह्मणीकरण जैसी शब्दावली को हटाने की मांग की है क्योंकि यह शब्द दमनकारी जाति पदानुक्रम और ब्राह्मणों के वर्चस्व की ओर इशारा करता है।”
असमानता एवं भेदभाव
‘असमानता और भेदभाव’ शीर्षक वाला वैकल्पिक विषय, जिसे चौथे सेमेस्टर में पांच वर्षों से अधिक समय से पढ़ाया जा रहा था, हटा दिया गया है। यह पेपर वर्ण, जाति, वर्ग, लिंग और समय के साथ उनकी निरंतरताओं और परिवर्तनों से संबंधित था। पुराने पाठ्यक्रम दस्तावेज़ में कहा गया है, “यह गंभीर रूप से राजनीतिक लामबंदी से जुड़ा है जो लोकतांत्रिक राजनीति के युग में सामाजिक न्याय और असमानताओं के सवालों के आधार पर होता है।”
मई में अकादमिक मामलों की स्थायी समिति की बैठक में विभाग के शिक्षकों ने इस बदलाव का विरोध किया था। हालांकि, पेपर को हटाने का आदेश 26 मई को अकादमिक परिषद द्वारा पारित किया गया था।
मातृसत्तात्मक दृष्टिकोण सम्मिलित
वैकल्पिक विषय ‘भारतीय इतिहास में महिलाएं’ के तहत उन इकाइयों में मातृसत्ता पर नए दृष्टिकोण पेश किए गए हैं जो मूल रूप से पितृसत्ता पर केंद्रित थे।
एक अन्य इतिहास प्रोफेसर के अनुसार, जिन्होंने पहचान बताने से भी इनकार कर दिया, “इसके पीछे तर्क यह स्वीकार करना था कि पितृसत्ता के अलावा अन्य रूप भी मौजूद हैं। इसलिए, हम मातृसत्ता को भी शामिल करने पर सहमत हुए।”
पांचवें सेमेस्टर में ‘1500 ईसा पूर्व तक भारतीय इतिहास में लिंग’ शीर्षक वाले अनुशासन विशिष्ट वैकल्पिक (या डीएसई) में इसी तरह के बदलाव पेश किए गए हैं।
डीएसई बीए (ऑनर्स) इतिहास के छात्रों के लिए एक वैकल्पिक पेशकश है। उपरोक्त अनुशासन-विशिष्ट ऐच्छिक के तहत, जिस इकाई में पहले ‘पितृसत्ता की उत्पत्ति और संरचनाओं को समझना’ पर सामग्री थी, उसे अब ‘पितृसत्ता और मातृसत्ता की संरचनाओं को समझना’ में संशोधित किया गया है।
शैक्षणिक गतिविधियों की डीन रत्ना बाली के अनुसार, बदलावों के पीछे का विचार छात्रों को “एकाधिक दृष्टिकोण” प्रदान करना था। बाली 26 मई को एसी की बैठक में विशेष आमंत्रित सदस्य थीं, जिसने बदले हुए पाठ्यक्रम को मंजूरी दी थी।
बाली ने कहा कि “छात्रों को केवल एक ही दृष्टिकोण से अवगत नहीं कराया जाना चाहिए। भारतीय समाज में भी मातृसत्तात्मक और पितृसत्तात्मक व्यवस्थाएं हैं। इसका उद्देश्य छात्रों को कई दृष्टिकोण प्रदान करना है। यह समझ स्थायी समिति और अकादमिक परिषद दोनों में एकमत है, क्योंकि हम छात्रों को विकल्प देने में विश्वास करते हैं।”
पाठ्यक्रम में अन्य परिवर्तन
अन्य परिवर्तनों के अलावा, ‘भारतीय कला और वास्तुकला’ नामक कौशल संवर्धन पाठ्यक्रम को चौथे सेमेस्टर से हटा दिया गया है। इसने छात्रों को यह बताया कि पश्चिम में भारतीय कला को कैसे देखा जाता है और अन्य संरचनाओं के अलावा जामा मस्जिद, हुमायूं का मकबरा, स्तूप और मठ वास्तुकला, बृहदेश्वर और खजुराहो मंदिर परिसर जैसे विभिन्न धार्मिक स्थलों पर चर्चा की गई।
उन्होंने कहा कि “विश्वविद्यालय के अनुसार, पाठ्यक्रम में ये बदलाव हर तीन साल में होने चाहिए। उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि जो पढ़ाया जा रहा है वह समग्र, समावेशी, प्रतिनिधि है और वैचारिक रूप से भरा हुआ नहीं है।”
इतिहास की प्रोफेसर और सामाजिक विज्ञान संकाय की डीन सीमा बावा ने बदलावों पर कोई टिप्पणी नहीं की। इतिहास के शिक्षकों के अनुसार, पेपर को इस आधार पर हटा दिया गया था कि यह ‘कौशल पाठ्यक्रम’ की परिभाषा में फिट नहीं बैठता था।
(इंडियन एक्सप्रेस और मीडिया रिपोर्टस पर आधारित।)
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