EWS Quota: सुप्रीम कोर्ट ने गरीब सवर्णों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण को सही ठहराया

Estimated read time 2 min read

सुप्रीम कोर्ट ने सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों (ईडब्लूएस) को 10 प्रतिशत आरक्षण को सही ठहराया है। सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने 10% ईडब्लूएस कोटा को 3-1 से सही ठहराया। जस्टिस दिनेश माहेश्वरी, जस्टिस बेला एम त्रिवेदी और जस्टिस जेबी पारदीवाला ने सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को 10 प्रतिशत आरक्षण के पक्ष में फैसला सुनाया। वहीं चीफ जस्टिस  यू यू ललित और जस्टिस एस रवींद्र भट ने असहमति जताते हुए इसे संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन माना है।जस्टिस भट ने कहा कि ईडब्लूएस कोटे से एससी, एसटी और ओबीसी को बाहर रखना अन्याय है।

जस्टिस दिनेश माहेश्वरी, जस्टिस बेला एम त्रिवेदी और जस्टिस जेबी पारदीवाला के बहुमत के अनुसार, आर्थिक मानदंडों के आधार पर आरक्षण संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन नहीं करता है। यह भी माना है कि ईडब्ल्यूएस आरक्षण 50% आरक्षण की सीमा का उल्लंघन संविधान के बुनियादी ढांचे का उल्लंघन नहीं करता है।

अपने असहमति वाले फैसले में जस्टिस एस रवींद्र भट ने कहा कि आर्थिक मानदंडों पर आरक्षण उल्लंघन नहीं है। हालांकि, एससी/एसटी/ओबीसी के गरीबों को आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों से बाहर करके (इस आधार पर कि उन्हें लाभ मिला है), 103वां संशोधन संवैधानिक रूप से भेदभाव के निषिद्ध रूपों का अभ्यास करता है। हमारा संविधान बहिष्कार की अनुमति नहीं देता है और यह संशोधन सामाजिक न्याय के ताने-बाने को कमजोर करता है और इस तरह बुनियादी ढांचे को कमजोर करता है। चीफ जस्टिस यूयू ललित ने कहा मैं जस्टिस रवींद्र भट के विचारों से पूरी तरह से सहमत हूं।

जस्टिस एस रवींद्र भट ने कहा कि आबादी का एक बड़ा हिस्सा एससी/ एसटी/ ओबीसी का है। उनमें बहुत से लोग गरीब हैं। इसलिए 103वां संशोधन गलत है। जस्टिस एस रविंद्र भट ने 50 प्रतिशत से ऊपर आरक्षण देने को भी गलत माना है. उन्होंने 50 प्रतिशत से ऊपर आरक्षण देने को भी गलत माना है।

जस्टिस एस रवींद्र भट ने कहा कि यह संशोधन हमें यह विश्वास करने के लिए भ्रमित कर रहा है कि सामाजिक और पिछड़े वर्ग का लाभ पाने वालों को किसी तरह बेहतर स्थिति में रखा गया है। इस अदालत ने कहा है कि 16(1) और (4) समान समानता सिद्धांत के पहलू हैं। एसईबीसी के गरीबों को बाहर करने का लक्षण वर्णन गलत है। जिसे लाभ के रूप में वर्णित किया गया है उसे मुफ्त पास के रूप में नहीं समझा जा सकता है, यह एक प्रतिपूरक तंत्र है जिसकी भरपाई की जा सकती है।

जस्टिस भट ने आरक्षण के मामलों में 50% की सीमा के उल्लंघन के खिलाफ भी राय व्यक्त की। उन्होंने कहा कि 50% के उल्लंघन की अनुमति देने से विभाजन होगा। समानता के अधिकार का नियम आरक्षण का अधिकार बन जाएगा।

जस्टिस माहेश्वरी के बहुमत के फैसले ने कहा कि आरक्षण राज्य द्वारा सकारात्मक कार्रवाई का एक साधन है ताकि सभी समावेशी दृष्टिकोण सुनिश्चित किया जा सके। यह न केवल सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को शामिल करने के लिए एक साधन है। ईडब्ल्यूएस के लिए आरक्षण 50% की उच्चतम सीमा के कारण बुनियादी ढांचे का उल्लंघन नहीं करता है।

जस्टिस त्रिवेदी ने कहा कि राज्य ईडब्ल्यूएस की उन्नति के लिए संशोधन लेकर आया है। संशोधन को ईडब्ल्यूएस वर्ग के लाभ के लिए संसद द्वारा एक सकारात्मक कार्रवाई के रूप में माना जाना चाहिए। इसे अनुचित वर्गीकरण नहीं कहा जा सकता है। ईडब्ल्यूएस को अलग वर्ग के रूप में मानना उचित वर्गीकरण होगा। असमानों के साथ समान व्यवहार नहीं किया जा सकता। असमानों के साथ समान व्यवहार करना संविधान के तहत समानता का उल्लंघन करता है। संशोधन ईडब्ल्यूएस का एक अलग वर्ग बनाता है। एसईबीसी के बहिष्कार को भेदभावपूर्ण या संविधान का उल्लंघन नहीं कहा जा सकता है।

याचिकाओं ने संविधान (103वां) संशोधन अधिनियम 2019 की वैधता को चुनौती दी थी। जनवरी 2019 में संसद द्वारा पारित संशोधन के माध्यम से संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में खंड (6) को सम्मिलित करके नौकरियों और शिक्षा में आर्थिक आरक्षण प्रदान करने का प्रस्ताव किया गया था।

नव सम्मिलित अनुच्छेद 15(6) ने राज्य को शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण सहित नागरिकों के किसी भी आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग की उन्नति के लिए विशेष प्रावधान करने में सक्षम बनाया। इसमें कहा गया है कि इस तरह का आरक्षण अनुच्छेद 30 (1) के तहत आने वाले अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों को छोड़कर निजी संस्थानों सहित किसी भी शैक्षणिक संस्थान में किया जा सकता है, चाहे वह सहायता प्राप्त हो या गैर-सहायता प्राप्त।

इसमें कहा गया है कि आरक्षण की ऊपरी सीमा दस प्रतिशत होगी, जो मौजूदा आरक्षण के अतिरिक्त होगी। तत्कालीन सीजेआई एसए बोबडे, जस्टिस आर सुभाष रेड्डी और जस्टिस बीआर गवई की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने यह 5 अगस्त, 2020 को मामलों को संविधान पीठ को भेज दिया था।

दरअसल, 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले एनडीए सरकार ने सामान्य वर्ग के लोगों को आर्थिक आधार पर 10% आरक्षण देने के लिए संविधान में 103वां संशोधन किया किया था। कानूनन, आरक्षण की सीमा 50% से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। अभी देशभर में एससी, एसटी और ओबीसी वर्ग को जो आरक्षण मिलता है, वो 50% सीमा के भीतर ही है।

केंद्र की ओर से पेश तत्कालीन अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने सुनवाई के दौरान कहा था कि आरक्षण के 50% बैरियर को सरकार ने नहीं तोड़ा। उन्होंने कहा था- 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने ही फैसला दिया था कि 50% से ज्यादा आरक्षण नहीं दिया जाना चाहिए ताकि बाकी 50% जगह सामान्य वर्ग के लोगों के लिए बची रहे। यह आरक्षण 50% में आने वाले सामान्य वर्ग के लोगों के लिए ही है। यह बाकी के 50% वाले ब्लॉक को डिस्टर्ब नहीं करता है।

याचियों के वकीलों की दलील थी कि सवर्णों को आरक्षण देना संविधान के सीने में छुरा घोंपने जैसा है। हालांकि सुप्रीमकोर्ट  इस बात से सहमत नहीं दिखा था। तब पीठ  ने कहा था कि इस बात की जांच की जाएगी कि ये सही है या गलत। सितंबर में इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट में तीखी बहस हुई। इस दौरान संविधान, जाति, सामाजिक न्याय जैसे शब्दों का भी जिक्र हुआ।

(जे.पी.सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी विषयों के जानकार हैं।)

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author