संसद के भीतर पहली बार बीजद सांसद सरकार के खिलाफ मुंह खोलेंगे

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“अब पछताय होत का, जब चिड़िया चुग गई खेत” यह कहावत बीजू जनता दल (बीजद) के ऊपर पूरी तरह से फिट बैठ रही है। 1996 से ओडिशा राज्य विधानसभा में एकछत्र राज करने वाले बीजद के पांव के नीचे से कार्पेट खींचने वाली भाजपा ने नवीन बाबू को जो घाव दिए हैं, वह संभवतः ताउम्र उनके लिए ताजे रहने वाले हैं। आमतौर पर नवीन पटनायक की छवि बेहद शालीन राजनेता की मानी जाती है, जिन्होंने सत्तारूढ़ एनडीए और विपक्षी गठबंधन के साथ समान दूरी (equidistance) की एक ऐसी नई सैद्धांतिकी का नमूना देश के सामने पेश किया था, उसने बीजद के राजनीतिक-चारित्रिक पतन को लंबे समय से देश की निगाह में ढांप रखा था।

आज जब बीजद औंधे मुंह गिरी पड़ी है, एकछत्र राज करने वाले नवीन बाबू के पास जमीनी स्तर पर मजबूत कार्यकर्ताओं और नेताओं का अकाल पड़ा हुआ है, वे जरुर आज अपने उन दिनों को याद कर रहे होंगे, जब उन्होंने संगठन में किसी अन्य को आगे बढ़ने का मौका नहीं दिया। समान दूरी बनाये रखने के सिद्धांत को आगे रख, केंद्र की मोदी सरकार को पूरे दस वर्ष तक राज्य सभा में ऑक्सीजन देने का काम किया, और बदले में देश के ऊपर एक से बढ़कर एक जनविरोधी कानूनों की झड़ी लगाने का मार्ग प्रशस्त किया।

लेकिन एक और कहावत है कि, जिनके घर शीशे के होते हैं, वे पत्थर नहीं मारते। नवीन बाबू ने खुद पत्थर नहीं मारे, लेकिन मारने वालों का साथ बखूबी हर मौके पर दिया। उन्हें क्या पता था कि एक दिन उनका अपना घर भी इसी आग में जल जायेगा। और जलाया भी किसने? जिनके साथ दिन के उजाले में समान दूरी का रोना रोते थे, उन्हीं ने आज उन्हें लूट लिया है।

नवीन बाबू ने कबूतर की मानिंद आंखें बंद की हुई थीं

ओडिशा में 2024 लोकसभा और विधान सभा के चुनाव एक साथ हुए। चुनाव से ठीक पहले ओडिशा को लेकर तरह-तरह की चर्चाओं का बाजार गर्म रहा। लंबे समय तक राजनीतिक गलियारे और खबरों की दुनिया में बीजू जनता दल और भारतीय जनता पार्टी के बीच चुनावी गठबंधन की जोरदार चर्चा रही। एकबारगी तो ऐसा लगने लगा कि गठबंधन दो-चार दिनों के भीतर ही औपचारिक तौर पर घोषित होने वाला है।

लेकिन ओडिशा में राज्य भाजपा के कार्यकर्ता इससे पूरी तरह से नाराज थे। उनका साफ़ कहना था कि इसका सीधा लाभ कांग्रेस को मिल सकता है। लेकिन मोदी तो अपने लिए तीसरे कार्यकाल की राह तैयार करने पर लगे हुए थे। आख़िरकार राज्य भाजपा के भारी विरोध को देखते हुए, और पूर्व आईएएस अधिकारी पांडियन के खिलाफ ओडिशा अस्मिता के नारे को मिल रही जोरदार सफलता ने भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को अपने रुख में बदलाव करने के लिए मजबूर कर दिया।

निश्चित रूप से ओडिशा में आम लोग देख पा रहे थे कि पिछले कई वर्षों से बीजद-बीजेपी पक्ष-विपक्ष वाला लुकाछिपी का खेल खेलकर प्रदेश की जनता की आँख में धूल झोंक रही हैं। कुछ लोकलुभावन नीतियों और खेलकूद में देश की प्रतिभाओं को आवश्यक सहारा देने के अलावा नवीन बाबू ने कोई उल्लेखनीय काम नहीं किये। 15 वर्ष पूर्व धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर भाजपा से दूरी बनाकर जो बीजेडी एनडीए गठबंधन से अलग होकर राज्य में अपने दम पर बड़े पैमाने पर जनादेश हासिल करती आ रही थी, असल में पिछले एक दशक से भी अधिक समय से उसने राज्य के अमूल्य संसाधनों के ऊपर कॉर्पोरेट के कब्जे के लिए सारे नियमों की धज्जियां उड़ाकर रख दी थीं। धर्मनिरपेक्षता का मुलम्मा ओढ़े नवीन पटनायक असल में ओडिशा में उसी लूट के सिलसिले को जारी रखे हुए थे, जिसे भाजपा की राज्य सरकारें होते देने के लिए अभिशप्त हैं।

लेकिन यह सच्चाई दिनोंदिन साफ़ होती जा रही थी। राज्य कांग्रेस के नेता इसे लिवइन रिलेशनशिप की संज्ञा दे रहे थे, और यह रिश्ता लंबे समय तक चलता तो इससे दोनों दलों को भारी नुकसान होता। भाजपा ने ऐन मौके पर भांजी मार उसी वी के पांडियन को निशाने पर लेकर ओडिशा अस्मिता के नारे पर चुनाव जीत लिया, जिनके साथ अगस्त 2023 तक देश के गृह मंत्री अमित शाह बैठक कर रहे थे। आज ओडिशा में वी के पांडियन का कोई नामलेवा नहीं है, लेकिन इसी के साथ बीजू जनता दल और नवीन पटनायक का राजनीतिक कैरियर भी अस्ताचल हो चुका है।

आम चुनावों की अंतिम घोषणा से ठीक पहले बीजद-बीजेपी के बीच चल रही बातचीत टूट गई। लेकिन लगता है नवीन बाबू केंद्र पर किये गये अपने अहसानों की वजह से पूरी तरह से आश्वस्त थे कि एक बार फिर से राज्य की सत्ता में वापसी करने में उन्हें खास अड़चन नहीं आने वाली है। शायद यही वजह है कि राज्य सभा के सांसद पद के लिए चुनाव में बीजेडी ने केंद्रीय रेल मंत्री अश्वनी वैष्णव को ओडिसा से जिताकर पूरे देश को आश्वस्त कर दिया था कि वे भाजपा के कितने करीब हैं।

नवीन पटनायक ने भाजपा के उस उम्मीदवार की जीत को सुनिश्चित कराने में एड़ी चोटी का जोर लगा दिया, जिसके कार्यकाल में पिछले वर्ष ही ओडिसा के बालासोर में भीषणतम रेल हादसा हुआ था। नवीन पटनायक ऐसा कर पाने में इसलिए समर्थ थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि ओडिसा की जनता उनके जेब में है। उन्हें भरोसा था कि विधान सभा में उनकी पार्टी ही एक बार फिर से जीत का सेहरा बांधेगी, और लोकसभा में यदि भाजपा के उम्मीदवार ज्यादा बड़ी संख्या में जीतते हैं तो पीएम नरेंद्र मोदी का भला हो जायेगा। लेकिन इस पटकथा के भीतर भी एक पटकथा लिखी जा रही थी।

लोकसभा में तो बीजू जनता दल का सूपड़ा ही साफ हो चुका है, उसकी तुलना में कांग्रेस 13% वोट शेयर के साथ एक सीट पर जीत हासिलकर अपने पिछले प्रदर्शन की बराबरी करने पर कामयाब रही। भाजपा ने 2019 लोकसभा चुनाव के मुकाबले 7% ज्यादा वोट हासिलकर राज्य की 21 सीटों में से 20 पर कब्जा जमा लिया है। उसे इस चुनाव में 45.34% मत हासिल हुए हैं, जबकि बीजेडी 37.55% मत हासिल करने के बावजूद अपने सभी 12 लोकसभा सीटों को गंवा बैठी। ये सभी सीटें अपने नाम कर भाजपा ने 2019 चुनाव में हासिल 8 लोकसभा सीटों को बढ़ाकर 20 तक पहुंचा दिया है।

जहां तक विधानसभा चुनाव का प्रश्न है, उसने तो चुनावी विश्लेषकों तक को चकरा दिया है। 147 सीटों वाली ओडिसा विधान सभा के भीतर 2019 में 112 सीटें जीतने वाली बीजू जनता दल के हाथ में इस बार मात्र 51 सीटें ही आ सकी हैं। दूसरी तरफ 23 सीट वाली भाजपा अब 78+1 निर्दलीय के बल पर 79 विधानसभा सीट जीतकर पहली बार ओडिशा में अपनी सरकार बना चुकी है। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि वोट प्रतिशत के मामले में इस बार भी बीजद अव्वल रही। 40.22% वोट शेयर के साथ राज्य में बीजद आज भी सबसे बड़े जनाधार वाला दल है, जबकि भाजपा के खाते में भी लगभग उतने ही वोट, 40.07% आये हैं। बीजद को 4.49% मतों का नुकसान 61 विधानसभा सीटों का नुकसान कर गया, उधर 7.58% वोट प्रतिशत के उछाल ने भाजपा की झोली में 2019 की तुलना में 56 अतिरिक्त सीटें प्रदान कर दीं। कांग्रेस के मत प्रतिशत में भी 2।86% गिरावट दर्ज हुई, लेकिन वह अपने पिछले प्रदर्शन 9 सीट को बढ़ाकर 14 तक लाने में कामयाब रही है।

लोकसभा और विधानसभा के आंकड़ों पर गौर करें तो हम पाते हैं कि बीजद के मत प्रतिशत में विधानसभा की तुलना में लोकसभा चुनाव में अपेक्षाकृत अधिक गिरावट आई है। इसका अर्थ है कि कहीं न कहीं बीजद के समर्थक आधार के बीच यह धारणा अंत तक बनी हुई थी कि विधान सभा में नवीन बाबू को वोट करना है, वहीं लोकसभा में भाजपा के पक्ष में वोट कर सकते हैं। लोकसभा चुनाव को तो असल में नवीन पटनायक मार्का राजनीति ने दोयम दर्जे की चीज बना डाला था। उन्होंने आम मतदाताओं के दिमाग में ‘कोई होई नृप, हमें का हानि’ वाली उक्ति बिठा दी थी। यही कारण है कि आज ‘माया मिली न राम’ वाली हालत में नवीन पटनायक अब नए सिरे से खुद को एक बार फिर से संभालने की कोशिश करते दिख रहे हैं।

राज्य सभा में बीजद का संख्या बल निर्णायक साबित होगा

अब उन्हें अपने उन 9 राज्य सभा सांसदों का महत्व समझ आने लगा है, जिन्हें नवीन बाबू ने अभी तक साइलेंट मोड में बनाये रखा था। ये सांसद अभी तक भाजपा के हिंदुत्ववादी एजेंडे को ऊपरी सदन में पारित कराने के लिए बेहद अहम साबित हुआ करते थे। लेकिन लंबे समय से अस्वस्थ चल रहे नवीन पटनायक, जिन्हें मुंह में सोने के चम्मच के साथ सत्ता मिली हो, आज बुरी तरह से जख्मी भी हैं। ओडिशा में भी कांग्रेस के परंपरागत जनाधार के मुकाबले क्षेत्रीय राजनीति को आगे बढ़ाकर नवीन पटनायक ने लंबे अर्से तक अपनी सत्ता कायम की। पीएम नरेंद्र मोदी की तरह उन्होंने भी अयोध्या में भव्य राम मंदिर की तर्ज पर जगन्नाथ मंदिर के लिए राजकीय कोष को जमकर लुटाया। भाजपा के खिलाफ लामबंद इंडिया गठबंधन ने जहां उत्तर प्रदेश सहित अन्य उत्तर भारतीय राज्यों में भाजपा की हवा निकालने का काम किया, यही काम भाजपा ने बीजद के साथ कर दिखाया।

बहुत कुछ खोने के बाद नींद से जागी बीजू जनता दल के लिए दोबारा अपनी प्रतिष्ठा को हासिल करना एक बेहद कड़ी चुनौती है। हम सभी इस तथ्य से परिचित हैं कि जिन भी क्षेत्रीय पार्टियों के साथ भाजपा ने गठबंधन बनाया, वे सभी कमोबेश आज के दिन हाशिये पर खड़ी हैं। वो चाहे तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक हो, या असम में असम गण परिषद या पंजाब में शिरोमणि अकाली दल, आंध्र प्रदेश में टीडीपी और वाईएसआरसीपी, बिहार में लोजपा, कश्मीर में पीडीपी अथवा बिहार में जेडीयू रही हो। इनमें शिवसेना (उद्धव) और नितीश कुमार की जेडीयू ही किसी तरह खुद को प्रासंगिक बनाये रखने में कामयाब रही हैं। लेकिन इसके लिए उन्हें यह श्रेय यूपीए या इंडिया गठबंधन और ऐन मौके पर भाजपा से रिश्ता छुड़ा लेने के अपने राजनैतिक चातुर्य को देना चाहिए।

कड़वे घूंट पीने के बाद अब बीजेडी ने फैसला लिया है कि वह ओडिसा से संबंधित मुद्दों पर राज्य सभा के भीतर सरकार के खिलाफ आलोचनात्मक और हमलावर रुख अपनाएगी। नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ आलोचनात्मक रुख अपनाने की बात कहते हुए भी बीजद कांग्रेस से अपनी दूरी बनाये रखना चाहती है। संभवतः हर क्षेत्रीय दल के साथ यह दुविधा रहती है, क्योंकि उन सभी का जन्म केंद्र या राज्य में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोलकर ही हुआ था, और वे आज भी यह मानकर चलती हैं कि यदि कभी कांग्रेस ने फिर से करवट ली तो वह अपने जनाधार को हासिल करने के लिए उन्हीं के समर्थक आधार को अपने भीतर समाहित कर सकती है, जिसे छीनकर ही वे अभी तक एक क्षेत्रीय ताकत बने हुए थे।

बीजू जनता दल के सभी 9 राज्य सभा सांसदों के साथ नवीन पटनायक ने कल सोमवार को भुवनेश्वर में बैठक की और संसद में किन मुद्दों को हाईलाइट करना है, पर विचार किया गया। इसमें ओडिसा के लिए विशेष राज्य का दर्जा, राष्ट्रीय राजमार्ग का अधूरा काम जल्द से जल्द पूरा करने, विभिन्न योजनाओं के तहत गरीबों के लिए आवास योजना, ब्लॉक स्तर पर एक केंद्रीय विद्यालय, अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए एकलव्य आवास योजना और बालासोर, संभलपुर एवं कोरापुट जिलों में एम्स अस्पतालों के निर्माण जैसे मुद्दों को शामिल किया गया है।

नवीन पटनायक का सबक एनडीए में शामिल जेडीयू, टीडीपी सहित तमाम छोटे-बड़े दलों को संभवतः सबसे अधिक सता रहा होगा। यही वजह है कि भाजपा-संघ की ओर से एक बार फिर से शिवसेना (उद्धव) गुट को चारा डालने की कोशिश औंधे मुंह गिरी है। उधर एनडीए में शामिल जेडीयू, टीडीपी, शिवसेना (शिंदे) और एनसीपी (अजित पवार) सभी किस हद तक चौकन्ना हैं, यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा।

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)

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