वाराणसी। बादलों ने जैसे ही बनारस की छतों पर दस्तक दी, शहर के कोनों में घुटनों तक भरा पानी जैसे यह चीख-चीखकर कहने लगा, “काश ! काशी के बदन पर अरबों रुपये की साज-सज्जा नहीं, थोड़ा सा मरहम ही लगा दिया गया होता।” प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र वाराणसी, जिसे बीते 11 सालों में आधुनिक काया देने के नाम पर खंगाल डाला गया, वही काशी आज फिर पानी-पानी है। काशी की गलियों में अब श्रद्धा नहीं, पानी बहता है और मोदी के स्वच्छता मॉडल में डूबता हुआ बनारस पूछ रहा है कि क्या यही विकास है?
बारिश आई… पर गई नहीं। जैसे बदन पर सूखने को जगह न हो और भीतर तक नमी भर गई हो। सिर्फ एक दिन की झमाझम बारिश ने जिस तरीके से बनारस की गली-गली को जलीय श्मशान में तब्दील कर दिया है वह ना सिर्फ व्यवस्थागत विफलता है, बल्कि उस ‘विकास’ की पोल है, जिसका ढोल बीते एक दशक से बजाया जा रहा है। बारिश के चलते बनारस का पारा दिन के 36 डिग्री के मुकाबले 28 डिग्री तक आ गया। मौसम विभाग के अनुमान के मुताबिक, करीब 25 मिलीमीटर से अधिक बारिश हुई है।

दावा था कि बनारस अब स्मार्ट सिटी बन चुकी है और यह शहर क्योटो बनने की राह पर है। ज़रा सरैया, बजरडीहा या निबुरिया मुहल्ले चलिए। वहां पानी सड़कों पर नहीं, घरों में घुसा हुआ है। इन इलाकों के लोग नाव ढूंढ़ रहे हैं और मुहल्लों की गलियां नालों में तब्दील हो चुकी हैं। इतनी तेज बारिश हुई कि शहर में गिरजाघर, अंधरापुल, भदऊ चुंगी, गुरुबाग, लक्सा, हुकुलगंज, ट्रॉमा सेंटर के गेट के बाहर, मंडुवाडीह सहित अन्य जगहों पर सड़क पर पानी भर गया। पुलिस लाइन, जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी कार्यालय, पुलिस क्लब, पुलिस ग्राउंड जैसे सरकारी दफ्तरों तक पानी की गिरफ्त में आ गए हैं।
इन हालातों में यह समझना मुश्किल नहीं कि ग़रीब और मज़दूर मोहल्लों की स्थिति क्या होगी? इस शहर में जहां नक़्शे पर ज़रूरतें नहीं, सिर्फ योजनाएं बनी हैं, वहां नतीजे यही होते हैं कि पानी में डूबी उम्मीदें और गीली बिस्तरों पर कांपती ज़िंदगियां।
हर बारिश में डूब जाता है भरोसा
बनारस का कोनिया, सरैया, नक्खीघाट, बजरडीहा, जियाउल उलूम, मजूरूलूम, पीलीकोठी और डोमरी मोहल्ला बारिश होते ही पानी से लबालब भर गया। ये मुहल्ले सिर्फ नाम नहीं, बनारस के उस श्रमशील जीवन की पहचान हैं, जो चुपचाप अपनी सांसों में एक पूरी सभ्यता को ज़िंदा रखता है। यहां की तंग गलियों में न रौशनी पूरी पहुंचती है और न सरकारी योजनाएं, लेकिन यहीं से निकलती हैं वे रेशमी डोरियां जो बनारस की शान कहलाती हैं बनारसी साड़ियां। इन गलियों में बसी बुनकरों की दुनिया ने बनारस को न केवल एक पहचान दी, बल्कि भारत के वस्त्र-शिल्प को विश्व पटल पर चमकाया। मगर आज इन रचनात्मक हाथों में रचनात्मकता नहीं, निराशा का पानी भरा है।
बारिश आई नहीं कि ये मोहल्ले डूबने लगते हैं। करघे थम जाते हैं, धागे भीग जाते हैं और बुनकरों की उम्मीदें गलियों के पानी में बहने लगती हैं। जहां एक समय करघों की संगीत जैसी आवाज़ें दिन-रात गूंजा करती थीं, वहां अब सन्नाटा पसरा है। व्यापारी नेता बदरूद्दीन अहमद का दर्द शब्दों में फूटता है, “हर साल हल्की सी बारिश में सरैया और बजरडीहा के दर्जनों मोहल्ले डूब जाते हैं। यह सिर्फ जलभराव नहीं, यह एक सभ्यता की आत्मा को डुबाने का सिलसिला है। बरसात की हर बूंद जैसे बनारस के ज़ख्मों को कुरेदती है। गंगा किनारे की यह नगरी जो कभी मोक्ष का द्वार थी, आज नर्क जैसा एहसास देती है।”

वे सवाल उठाते हैं, “क्या यही है मोदी का स्मार्ट बनारस? क्या यही है क्योटो बनने का दावा?” उनकी आवाज़ में सिर्फ नाराज़गी नहीं, एक गहरी मायूसी है। वह बताते हैं, “इस बार हालात बहुत बदतर हैं। करोड़ों रुपए पानी में बह गए, लेकिन नाले वही जाम हैं, सीवर वही उफनते हुए। पानी सिर्फ घरों में नहीं घुसा, बुनकरों के चूल्हे, उनके करघे, उनकी सांसों में उतर गया है।”
पीलीकोठी से सरैया तक करीब तीन किलोमीटर लंबी एक ऐसी पट्टी है जो जीवित संग्रहालय है। इस इलाके में हर घर में करघें हैं और हर करघे में एक दर्दनाक कहानी है। एक उम्मीद है और एक सपना भी। कुछ देर की बारिश ने बुनकरों की उम्मीद को धुंधला कर दिया है। यह वही हिस्सा है जहां बनारस की आत्मा बसती है। लेकिन आत्मा की किसी को परवाह नहीं, सिर्फ चेहरे पर कॉस्मेटिक सर्जरी हो रही है। बनारस की सड़कें चमक रही हैं, दीवारें रंगी जा रही हैं, लेकिन असल ज़िंदगी अंदर से सड़ रही है।
बुनकर नेता इदरीश अंसारी की आंखों में पानी है, लेकिन यह बारिश का नहीं, बेबसी का पानी है। वे कहते हैं, “हमारे यहां मशीनें ज़मीन पर लगी होती हैं। जैसे ही पानी घुसता है, सारा काम बंद हो जाता है। फिर सबकुछ नए सिरे से शुरू करना पड़ता है, जैसे कभी कुछ था ही नहीं। हर बार हम वहीं लौट आते हैं जहां से चले थे।”
बारिश बनारस के बुनकरों के लिए ऋतु नहीं, एक बड़ी त्रासदी है। हर बूंद उनके रोज़गार पर प्रहार करती है। वे जानते हैं कि इस शहर को देखने वाले आंखों में सिर्फ घाटों की तस्वीर है, गलियों की नहीं। उन्हें सिर्फ यही सुनने को मिलता है किक “काम हो जाएगा”, “योजना बन रही है”, “प्रस्ताव भेजा गया है”, लेकिन नतीजा? सिर्फ गीले बिस्तर, बंद करघे और खाली रसोई।

स्थिति सिर्फ बुनकर बस्तियों तक सीमित नहीं है। उत्तर रेलवे की एईएन कॉलोनी हो या सिगरा स्थित रेलकर्मियों की बस्ती, वहां भी लोग घरों से टुल्लू पंप से पानी निकालते दिखते हैं। इन बस्तियों के बच्चे बारिश को त्योहार नहीं, कैद समझते हैं। घरों में पानी भरने से स्कूल छूट जाता है और खेलना बंद हो जाता है और बीमारियां घरों में घुस आती हैं। यह वो सच है जो मंदिरों और मठों के शहर से अलग, मेहनतकशों का बनारस है। यह वो बनारस है जो विकास के नारों से दूर हकीकत के कीचड़ में फंसा हुआ है। जब-जब बारिश आती है तब यह बनारस चुपचाप एक बार फिर खुद को समेटने की कोशिश करता है ताकि उम्मीदों के गीले धागों से इस शहर को फिर से बुना जा सके।
बरसात बोलती है, सरकार नहीं
सवाल सिर्फ इतना नहीं है कि बनारस में हर साल बारिश के साथ पानी भर जाता है। असली सवाल यह है कि जब अरबों रुपये स्वच्छता, सीवर, ड्रेनेज और स्मार्ट सिटी के नाम पर खर्च किए गए तो हालात अब तक क्यों नहीं बदले? क्यों हर साल वही गलियां जलभराव में डूब जाती हैं, वही घरों में पानी घुसता है, वही बुनकरों के करघे बंद हो जाते हैं और वही लोग उम्मीदों के साथ मायूसी भी पीते हैं?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब साल 2014 में बनारस से सांसद बने थे, तब उन्होंने कहा था कि वे आए नहीं हैं, उन्हें मां गंगा ने बुलाया है। उस वक्त ऐसा लगा था कि अब इस शहर का चेहरा बदलेगा और इस शहर को वह इज़्ज़त और सुविधाएं मिलेंगी जिनका वह सदियों से हक़दार है।
बनारस में कुछ बदलाव जरूर नज़र भी आए। सड़कें बनीं, घाट चमकाए गए, गलियों की दीवारें रंगी गईं, फसाड लाइटें लगीं और विश्वनाथ कॉरिडोर जैसी परियोजनाओं ने शहर को एक नई चमक दी। पर्यटक आए, औरतें वीडियो बनाने लगीं, सोशल मीडिया पर ‘नया बनारस’ दिखने लगा। लेकिन जो दिखा, वह सिर्फ गोदौलिया-चौक और मैदागिन इलाके का बनारस था। असली बनारस अब भी उन्हीं तंग गलियों में बसता है जहां बारिश के साथ ही नाले उफनने लगते हैं, सीवर उलटने लगते हैं और गलियों में कीचड़ का साम्राज्य फैल जाता है। जहां बुनकरों के करघे मशीनों में भरे पानी से चुप हो जाते हैं और जहां जिंदगी हर बारिश के साथ दो कदम पीछे लौट जाती है।
बनारस के लोग अब मौसम विभाग की वेबसाइट नहीं देखते। वे आसमान की ओर देखकर तय करते हैं कि आज बच्चों को स्कूल भेजा जाए या नहीं। दुकानें खोली जाएं या नहीं। करघे चलेंगे या पानी में भीगकर फिर हफ्तों ठप हो जाएंगे। बारिश अब बच्चों के लिए त्योहार नहीं रही। बुजुर्ग अब बारिश की गड़गड़ाहट को ईश्वर की नहीं, त्रासदी की आहट मानते हैं। सरैया के बुनकर सद्दाम कहते हैं, ” साहब अब बादलों से डर लगता है।”
दरअसल, सद्दाम का यह डर सिर्फ पानी का नहीं है। यह उस बेपरवाही का डर है जो वर्षों से सिस्टम के भीतर पलती रही है। करोड़ों खर्च करने के बावजूद न नाले साफ हुए, न सीवर सुधरे। पानी सिर्फ गलियों में नहीं घुसा, लोगों के जीवन में घुस आया है। बनारस के लोग अब विकास के नारों पर नहीं, कीचड़ में लथपथ गलियों पर भरोसा करते हैं। हर साल बारिश आती है और उनके सपनों को बहा ले जाती है। बच्चे किताबों के बजाय बाल्टी उठाते हैं और औरतें झाड़ू-पोंछे के बीच भविष्य की चिंता में घुलती रहती हैं।
सद्दान सवाल उठाते हैं, “सवाल ड्रेनेज का नहीं, सवाल नीयत का है। क्या यह शहर सिर्फ उन लोगों के लिए संवारा गया है जो इसे सेल्फी में कैद करते हैं? क्या बनारस की आत्मा अब सिर्फ घाटों तक सीमित रह गई है और उसकी जड़ों को हम यूं ही कीचड़ में सड़ने देंगे? बनारस अब विकास की चकाचौंध से नहीं, बारिश की सच्चाई से खुद को पहचानता है। और जब तक यह सच्चाई नहीं बदलेगी, तब तक यह सवाल गूंजता रहेगा कि क्या यही है स्मार्ट बनारस और क्या यही है मोदी का क्योटो?”
घाव भरते नहीं, कुरेद दिए जाते हैं
बनारस अब बारिश से नहीं, बल्कि उस बेपरवाह व्यवस्था से डरता है जो इसके दिल में सीवर और नालों की जगह सिर्फ घोषणाओं और शिलान्यास की मिट्टी भरती रही। ये वही शहर है जो एक ओर गंगा की गोद में पलता है और दूसरी ओर जेम्स प्रिंसेप के बनाए ढाई सौ साल पुराने नाले पर टिका है, जिसे अब कोई पहचानता तक नहीं। इस शहर को ‘स्मार्ट सिटी’ कहने वालों की आंखों में कभी सरैया, बजरडीहा, कोनिया, नक्खीघाट की गलियां नहीं उतरीं। अगर उतरी होतीं तो विकास की परिभाषा में करघों की आहें और जलभराव की पीड़ा भी शामिल होती।
सरैया क्षेत्र के संघर्षशील कारीगर इदरीश अंसारी बुनकरों की आवाज़ को सरकार तक पहुंचाने वाले उन चंद लोगों में से हैं, जो खुद भी करघे पर बैठते हैं और साथ ही मंच पर भी बोलते हैं। वह कहते हैं, “बनारस शहर में कहीं पक्की नालियों को बनाकर कुछ ही महीनों में फिर तोड़ दिया गया। कहीं सड़कों पर इंटरलॉकिंग ईंटें बिछाई गईं, फिर उन्हीं पर गैस पाइप डालने के लिए खुदाई शुरू हो गई। बनारस के लोगों के हिस्से में विकास नहीं आया। आया सिर्फ गड्ढों का सिलसिला, जो हर साल बढ़ता गया। इस शहर को जैसे बार-बार जख्मी किया गया। एक घाव भरता नहीं कि दूसरा कुरेद दिया जाता है।”
बनारस में जल निकासी के लिए साल 2009 में एक योजना बनी थी-स्टार्म वाटर ड्रेनेज सिस्टम। कहा गया था कि इससे बरसात में जलजमाव की समस्या खत्म हो जाएगी। उस समय करीब 253 करोड़ खर्च हुए, जिससे बनारस शहर में 76 किलोमीटर लंबी पाइपलाइन बिछाई गई। लेकिन नतीजा क्या निकला? आज भी हर बारिश में शहर घुटनों तक डूब जाता है। ना पाइपलाइन चालू हुई, ना योजना धरातल पर उतर पाई। नगर निगम और जल निगम के बीच यह योजना ऐसे लटक गई जैसे कोई अनाथ बच्चा जिसे पालने वाला कोई नहीं।
चार साल पहले नगर निगम प्रशासन ने स्टार्म वाटर ड्रेनेज सिस्टम की जांच कराई, तो शहर के 28 इलाकों में बड़ी खामियां पाई गईं। न पाइप एक-दूसरे से जुड़ पाए थे, न नालों का कोई सिर-पैर है। सड़क बनाने वालों ने ढक्कनों को ही तारकोल में दफना दिया। वो ढक्कन जिनसे पानी भीतर जा सकता था, वो सब बंद हो गए। बारिश आई तो पानी सड़कों पर थम गया। कई इलाकों में पानी घरों में घुस गया। सरैया, बजरडीहा और पीलीकोठी इलाके के कई मुहल्लों में करघे डूब गए और बुनकरों की उम्मीदें भी।
डोमरी के बुनकर मंसूर अहमद कहते हैं, “बनारस का यह हाल सिर्फ लापरवाही का नहीं, एक क्रूर उपेक्षा का नतीजा है। पुराने नाले जिनसे कभी बरसात का पानी बहकर चला जाता था, अब वो इतिहास हो गए हैं। तालाब, झीलें, नदी-सब मिटा दिए गए। जिन जगहों पर कभी कछुए छोड़े जाते थे, ताकि पानी साफ रहे, वहां अब कंक्रीट की कॉलोनियां खड़ी हैं। रानी भवानी के बनवाए तालाब हों या शंकुलधारा की झील, अब वहां बस अतिक्रमण और गंदगी है। यही कारण है कि पानी अब बहता नहीं, ठहरता है। बनारस लोगों के जीवन में, उनकी आंखों में।”
बनारस शहर के बीचों-बीच बहती अस्सी नदी अब कहां है? इसे कोई नहीं जानता। लोग बताते हैं कि यह नदी कभी कोनिया तक जाती थी, जिससे आधे शहर का पानी गंगा में चला जाता था और लोग महफूज रहते थे। मौजूदा समय में अस्सी नदी के रास्ते पर अवैध निर्माण है, कब्जे हैं और एक गुमनाम मृत्यु है। शाही नाला, जिसे एक समय में हाथी दौड़ सकता था, उसकी सफाई के लिए जापानी कंपनी से काम कराया गया, लेकिन नाले का नक्शा किसी के पास नहीं है। सफाई करने वाले मजदूर भाग गए और आज तक वो काम पूरा नहीं हुआ। गोदौलिया पर रोपवे के निर्माण के वक्त जब खोदाई हुई तो अचानक शाही नाला निकल आया तब नौकरशाही को पता चला की वो नाला उधर से गुजरता है।
जख्म पुराने, पर साजिश नई
बनारस के वरिष्ठ पत्रकार विनय मौर्य कहते हैं, “बनारस शहर की ड्रेनेज व्यवस्था को जेम्स प्रिंसेप के बनाए नाले के भरोसे छोड़ दिया गया है तो यह बात चुभती है। आज़ादी के 78 साल बाद भी यह शहर अगर दो सौ साल पुराने नाले पर टिका है तो इससे बड़ा दुर्भाग्य कुछ नहीं हो सकता। मुख्यमंत्री आते हैं, बारिश में भीगती गलियां देखते हैं, अफसरों को फटकार लगाते हैं, फिर चले जाते हैं। फिर वही ढाक के तीन पात। न कोई सुधार, न कोई जवाबदेही। और इस सबके बीच बनारस का आम आदमी हर बारिश में अपने घर से पानी निकालते हुए यही सोचता है कि क्या इसी दिन के लिए हमने इतना सहा? क्या हमारे हिस्से में सिर्फ कीचड़, गड्ढे और बहते नाले ही आएंगे? “
विनय यह भी कहते हैं, “बनारस अब थक चुका है। उसे रोशनी नहीं चाहिए और राहत भी। उसे भाषण नहीं, समाधान चाहिए। ये शहर सिर्फ प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र नहीं, पूरे देश की आत्मा है और जब आत्मा डूबने लगे तो सजावट से फर्क नहीं पड़ता। काश… कोई इस शहर की पीड़ा को सुने। काश… कोई इसकी भीगी गलियों से होकर गुज़रे, जहां नाली के पानी में सिर्फ बदबू नहीं, बल्कि एक पूरी सभ्यता का घुटता हुआ कराह है।”
बनारस कभी सिर्फ मंदिरों का शहर नहीं था। यह तालाबों, झीलों, घाटों और कुंडों का शहर था। यहां की हर गली, हर मोड़ किसी पुराने जलस्रोत की कहानी कहती थी। बारिश होती थी, तो पानी बहकर इन झीलों और तालाबों में समा जाता था। गली-मोहल्ले कभी यूं डूबते नहीं थे, जैसे आज डूबते हैं। आज जो बनारस चार दिन की बारिश में घुटनों तक पानी में फंस जाता है, वह कभी पानी को अपने में समेटने वाला विशाल पात्र था।
बेनियाबाग की झील अब इतिहास है। लहुराबीर, नईसड़क और बेनिया के मोहल्लों का पानी गलियों से बहकर इस झील तक पहुंचता था और कुछ ही घंटों में शहर फिर से सांस लेने लगता था। लेकिन अब सब कुछ बदल गया है। शहर की बनावट वही है, पर उसका स्वरूप तहस-नहस कर दिया गया है। गलियों की ढलान अब गंगा की ओर नहीं बहती, बल्कि ठहर जाती है-दुकानों के अंदर, घरों के आंगन में, स्कूलों की सीढ़ियों पर। जलजमाव अब प्राकृतिक नहीं, बल्कि योजनागत अपराध है।
गोदौलिया से दशाश्वमेध तक जाने वाला मार्ग कभी बनारस की आत्मा से जुड़ा रास्ता हुआ करता था। यहां का हर पत्थर और हर मोड़ सैकड़ों वर्षों की यात्रा का साक्षी रहा है। आज वह मार्ग भी विकास के नाम पर घायल है। दशाश्वमेध रोड को पत्थर की पटियों से सजाया गया। नया फुटपाथ बनाया गया, पर यह नहीं सोचा गया कि पानी जाएगा कहां? बारिश आती है तो उसी फुटपाथ का पानी दुकानों में घुसता है। सड़क और फुटपाथ एक हो गए हैं। पानी के गाढ़े बहाव में फर्क मिट जाता है और उम्मीदें बह जाती हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुनाव के समय हर बार लंका से गोदौलिया मार्च निकलते हैं। वो एक बार पैदल भी चले थे। जनता के बीच, उम्मीदों के साथ। दशाश्वमेध इलाके के समाजसेवी गणेश शंकर पांडेय की एक छोटी-सी अपील करते हैं, “मोदी जी, एक बार फिर पैदल आइए। उसी पानी में चलिए जिसमें हम हर साल चलने को मजबूर हैं। जब आप इन गलियों से होकर गुजरेंगे, तब आप जान पाएंगे कि इस शहर की सबसे बड़ी पीड़ा क्या है?”
पांडेय की यह बात सीधी है, लेकिन पीड़ादायक भी। वह कहते हैं, “यह शहर सिर्फ किसी प्रधानमंत्री का चुनावी क्षेत्र नहीं है, यह उसकी आत्मा है। यहां के लोग भले बारिश दो दिन झेलते हैं, लेकिन उसका असर कई महीनों तक उनकी जिंदगी में बना रहता है। बुनकर का करघा बंद हो जाता है, दुकानदार का माल भीग जाता है, रिक्शेवाले की गाड़ी फिसल जाती है और बच्चे स्कूल नहीं जा पाते।”
गंगा प्रदूषण नियंत्रण इकाई के अफसर बताते हैं कि साल 2009 में 253 करोड़ की लागत से बनारस के लिए एक ‘स्टॉर्म वाटर ड्रेनेज सिस्टम’ बना था, लेकिन वह कभी लागू ही नहीं हुआ। नगर निगम उसे अपने अधीन लेने को तैयार नहीं है। यानी शहर के सबसे बड़े जलनिकासी प्रोजेक्ट का कोई वारिस नहीं है। जैसे एक अजन्मा बच्चा जिसकी पहचान किसी के पास नहीं।
गूंगी है व्यवस्था, बहरे हैं जवाबदार
समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता मनोज राय धूपचंडी शहर के पूर्व सभासद भी रहे। वह कहते हैं, “साल 2006 में बनारस सिटी डेवलपमेंट प्लान बना तो ‘स्टॉर्म वाटर ड्रेनेज सिस्टम’ पर करोड़ों रुपये खर्च हो गए, लेकिन न नक्शा बना और न निकासी का इंतजाम हुआ। कई साल खुदाई हुई, सड़कों का हाल बेहाल हुआ, लेकिन नतीजा-जीरो। बीजेपी सरकार ने सिर्फ योजनाओं का नाम बदला, किया कुछ भी नहीं। सच यह है कि बनारस को बीजेपी ने प्रयोगशाला बना दिया है। हर बार कोई नया सपना दिखाया जाता है-कभी क्योटो, कभी स्मार्ट सिटी, लेकिन ज़मीन पर न विकास है, न संवेदना।”
धूपचंडी कहते हैं, “बीते 33 साल से नगर निगम में बीजेपी काबिज है। ड्रेनेज हो या स्ट्रीट लाइट, पेयजल हो या सीवर-हर मोर्चे पर नाकामी ही नतीजा रही। स्मार्ट सिटी के नाम पर सिर्फ दीवारों पर रंग हुआ है और शहर की रगों में बहता दर्द तो अब भी वहीं का वहीं है। बनारस, जिसे अब दुनिया “क्योटो” कहती है, उसके दिल में आज भी पीड़ा है। गंगा किनारे खड़ा यह शहर अपनी आत्मा को हर दिन भीगते हुए देख रहा है। बारिश से डरता नहीं था बनारस, क्योंकि उसके पास तालाब थे, झीलें थीं, खुला आसमान था। अब ये सब सिर्फ शब्द रह गए हैं-सरकारी कागजों में, पत्रकारों की खबरों में, या बूढ़े बनारसी की यादों में।”
काशी विश्वनाथ मंदिर के पास रहने वाले पत्रकार ऋषि झिंगरन की बात और भी सीधी है। वह कहते हैं, “पीएम मोदी पिछले तीन-चार सालों से क्योटो का नाम नहीं ले रहे हैं। पहले वो लुभावनी घोषणाएं करते हैं और बाद में उनके लोग इसे चुनावी जुमला बता देते हैं। बनारस शहर का यह हाल देखकर कोई भी पूछ सकता है कि क्या यह वही बनारस है जिसे ‘स्मार्ट सिटी’ बनाने के लिए करोड़ों खर्च हुए? क्या यही वह शहर है जिसके माथे पर क्योटो का तमगा लगा है? क्या यह वही बनारस है जो पूरी दुनिया को मोक्ष का रास्ता दिखाता है जो खुद अब कीचड़ में फंसा है और हर बूंद से थर्राता है?”
“काशी कोई मामली शहर नहीं है। यह वह धरती है जहां कबीर की चेतावनी गूंजती थी, तुलसी की चौपाइयों की महक थी, और जहां गंगा सिर्फ नदी नहीं, मां थी। आज उसी काशी के कंधे पर पानी का बोझ है और आंखों में सवाल,
“इतने विकास के बाद भी क्या हमारा हक सिर्फ जलजमाव में जीना रह गया है? बनारस को सजाने की नहीं, उसके दुख को समझने की जरूरत है। यह शहर सिर्फ इमारतों से नहीं, दस्तकारों से, पंडितों से, छात्रों से, दुकानदारों से, रिक्शेवालों से और उसकी भीगी गलियों से बनता है। जब तक इन सबकी सांसों को राहत नहीं दी जाएगी, तब तक कोई भी ‘स्मार्ट सिटी’ काशी नहीं बन सकती।”
ऋषि कहते हैं, “बारिश थम जाएगी। धूप निकलेगी। सड़कें फिर सूखेंगी, लेकिन बनारसियों की आंखों की नमी जो ज़मीर में उतर गई है, वह कब सूखेगी? बनारस आज कोई जवाब नहीं मांगता। वो बस इतना चाहता है कि एक बार कोई उसकी गलियों में भी चलकर देखे जहां बारिश का पानी नहीं, उसकी आत्मा टपकती है। हमारी बातें किसी को खटक सकती हैं, लेकिन उन्हें यह याद रखना ज़रूरी है कि बनारस किसी पार्टी का नहीं, पूरे देश की धरोहर है और जब धरोहर डूबती है तो सिर्फ शहर नहीं, इतिहास भी भीगता है..!”
(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक हैं)