तकलीफ़ से पलायन एक सहज मानवीय प्रतिक्रिया है। लेकिन अगर सच ही सबसे बड़ी तकलीफ़ हो, तो उससे आंख चुराना उस दर्द को और लंबा खींच सकता है। शायद यही वजह है कि सच से सीधे नज़र मिलाना, और उससे जवाब मांगना, आज की सबसे ज़रूरी और सबसे मुश्किल ज़िम्मेदारी है।
पहलगाम की आतंकी घटना के बाद भारत द्वारा पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में की गई जवाबी कार्रवाई के तुरंत बाद, जम्मू-कश्मीर के पुंछ जिले में नियंत्रण रेखा (LoC) के पास पाकिस्तान की ओर से भारी गोलाबारी की गई। इसमें 13 लोग मारे गए, जिनमें 12 निर्दोष नागरिक और एक भारतीय सैनिक शामिल हैं। दर्जनों लोग घायल हुए हैं। मृतकों में चार बच्चे भी शामिल थे, जिनमें दो सगे भाई-बहन थे।
यह वही देश है जहां स्कूलों में ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ पढ़ाया जाता है। वही देश है जहां चार मासूम बच्चे एक युद्ध का ‘बदला’ बन गए। सवाल उठता है, इन बच्चों का कसूर क्या था?
हमने मान लिया कि पाकिस्तान ने हमला किया, हमने ‘बदला’ लिया। सरकार और सेना की प्रशंसा होना स्वाभाविक है। लेकिन क्या देश की सेवा सिर्फ़ जयघोषों से होती है? क्या यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि इस जवाबी कार्रवाई की कीमत किसने चुकाई? और क्या आगे भी चुकाते रहेंगे?
एक आम नागरिक के तौर पर हमारे पास सीमाओं के पार के सच जानने का कोई भरोसेमंद जरिया नहीं है। लेकिन एक पत्रकार के तौर पर मैंने यह ज़रूर महसूस किया है कि दुनिया में कई बार “आतंकवाद” महज़ कूटनीतिक चाल होती है, एक छिपी हुई युद्धनीति, जिसे देश खुले रूप में नहीं अपनाते, लेकिन अपने हितों के लिए अंजाम ज़रूर देते हैं।
हमें यह स्वीकार करना होगा कि जिस युद्ध की भाषा में हम आज बात कर रहे हैं, वह आम लोगों की ज़िंदगियां बर्बाद कर रही है दोनों तरफ़। भारत-पाकिस्तान के बीच दशकों से चले आ रहे संघर्षों में सबसे बड़ा नुकसान उन लोगों का हुआ है जो किसी सरकार या सेना का हिस्सा नहीं हैं, सिर्फ़ इंसान हैं।
आज हम सीमा पर लड़ रहे हैं। जंगलों में आदिवासियों से लड़ रहे हैं। अपने ही देश के पूर्वोत्तर इलाकों में सेना की तैनाती के कारण दशकों से तनाव बना हुआ है। और अब तो धर्म, जाति, भाषा और खानपान के आधार पर एक आम नागरिक भी दूसरे आम नागरिक के खिलाफ खड़ा कर दिया गया है। दलितों को पीटा जा रहा है, मुसलमानों को “पाकिस्तानी” कहकर मारा जा रहा है। क्या यह भी कोई राष्ट्रसेवा है?
देशभक्ति का अर्थ यह नहीं हो सकता कि हम अपनी सेना या सरकार से सवाल न पूछें। असली देशभक्ति वही है जो युद्ध नहीं, शांति की मांग करे, जो किसी भी कीमत पर बच्चों की लाशों को ‘साइड स्टोरी’ मानने से इनकार कर दे।
हमें यह समझने की ज़रूरत है कि हथियारों के सौदागर हमारे गुस्से और घृणा से अरबों का व्यापार कर रहे हैं। जब आधी दुनिया भूख और कुपोषण से जूझ रही है, तब हम अरबों रुपये बम और मिसाइलों पर खर्च कर रहे हैं। यह कैसी प्राथमिकता है?
जो लोग युद्ध की भाषा बोलते हैं, वे ज़्यादातर खुद युद्धक्षेत्र में नहीं होते। वे टीवी स्टूडियो में होते हैं, भाषणों में होते हैं, सोशल मीडिया पर होते हैं। लेकिन जो लोग मारे जाते हैं, वे वो होते हैं जिनके पास न ज़ुबान है न मंच। जैसे पुंछ के वो मासूम बच्चे।
हमें यह तय करना होगा कि हम क्या बनना चाहते हैं, एक समझदार राष्ट्र, या एक युद्धरत जनसमूह? क्या वाकई हमें इतनी लड़ाइयों की ज़रूरत है?
इस सवाल का जवाब हमें अपनी आत्मा से पूछना होगा। और यह तभी होगा जब हम धर्म, जाति और राष्ट्रवाद के नशे से कुछ पल के लिए बाहर निकलें और इंसान के रूप में सोचें।
डॉ. सलमान अरशद स्वतंत्र विचारक और पत्रकार हैं।)