पत्रकार देश के दुश्मन नहीं हैं

Estimated read time 1 min read

जाने-माने पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ देशद्रोह के आरोप में दर्ज प्राथमिकी से एक बात तो अवश्य साबित होती है कि ब्रिटिश राज द्वारा भारतीय दंड संहिता में इस प्रावधान को इसके गलत इस्तेमाल के लिए ही रखा गया था। विनोद दुआ के विचारों से नाराज़ भाजपा का एक पदाधिकारी शिमला के निकट एक पुलिस स्टेशन पहुंचा और तुरंत ही मीडिया के इस दिग्गज को आपराधिक न्याय के जाल में घेर लिया गया। इससे पूर्व, पूर्वोत्तर दिल्ली के दंगों की विनोद दुआ द्वारा की गई कवरेज से सम्बंधित एक शिकायत के खिलाफ दुआ को दिल्ली उच्च न्यायालय से राहत मिली थी।

यह कानून मुख्यरूप से सरकार की आलोचना को आपराधिक कृत्य मानता है। उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय ने दशकों से इस कानून से प्रभावित नागरिकों की मदद की हैं। 1962 के बाद से, सर्वोच्च न्यायालय ने सशस्त्र विद्रोह और आसन्न हिंसा जैसे अपराधों को छोड़कर राजद्रोह के दायरे को सीमित कर दिया है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कई मौकों पर स्पष्ट किया गया कि है कि असंतोष अथवा असहमति देशद्रोह नहीं हैं। फिर भी पुलिस अधिकारियों और उनके राजनीतिक आका शायद ही कभी इसकी परवाह करते हों। वास्तविकता तो यह है कि किन्ही तुच्छ आरोपों के लिए देशद्रोह के मामले में प्राथमिकी दर्ज करने की स्थिति में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अवमानना का मुकदमा दर्ज करने के पर्याप्त कारण हैं।

विनोद दुआ के वकील ने एक बेहद समझदारी पूर्ण सुझाव दिया है। उनके अनुसार जब तक नियम-पुस्तिकाओं में देशद्रोह अपराध के तौर पर कायम है तब तक राजद्रोह की शिकायतों की संपुष्टि एक निष्पक्ष समिति द्वारा की जाए जिसमें स्थानीय उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, राज्य के गृह मंत्री और विपक्ष के नेता शामिल हों। इस तरह के उपाय करके “विच हंटिंग” के शिकार आरोपियों को भी पर्याप्त सुरक्षा मिलेगी। सर्वोच्च न्यायालय को इस सुझाव पर विचार करना चाहिए।

मीडिया का काम घटनाओं का स्वतंत्र आकलन करना है परन्तु विडंबना ही है कि लोकतंत्र में यह काम देशद्रोह जैसे गंभीर आरोप को आमंत्रित कर सकता है। सत्ता में रहने वाले लोग मीडिया के महत्व को समझते हैं, लेकिन उनके मातहतों तक इस तरह के सन्देश ठीक से नहीं पहुँच पाते। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अधिक शायद ही किसी ने सूचना प्रसार में मीडिया की भूमिका की तारीफ़ की हो। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मौलिक अधिकारों की रक्षा से ही पत्रकारों द्वारा सरकारों की आलोचना करना संभव है। मीडिया का उत्पीड़न समाप्त किया जाना चाहिए।

(16 जून, 2020 को प्रकाशित ”टाइम्स ऑफ़ इंडिया” के इस संपादकीय का हिंदी अनुवाद कुमार मुकेश ने किया है।)

कुमार मुकेश।

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author