वैसे तो भाजपा आज भी यानि छठे-सातवें चरण तक आते-आते भी, बिहार में 40 में से 40 सीटें जीतने का दावा लगातार किए जा रही है। चुनाव से एक महीने पहले तक, अधिकतर चुनावी विश्लेषक और जनता का एक बड़ा हिस्सा भी यही मानकर चल रहा था कि भाजपा का वास्तव में कोई विकल्प नही है, वह कम से कम अपने पुराने प्रदर्शन को दोहराने जा रही है। पर वास्तविकता ये है कि अंतिम चरण तक आते-आते, बिहार में बाज़ी लगभग पलट चुकी है।
आज़ जब हम सातवें चरण से गुजर रहे हैं, तो बिहार, भाजपा के लिए उत्तर भारत की सबसे कमजोर कड़ी साबित होने जा रही है। और ठीक इसके विपरीत, इंडिया गठबंधन के लिए यह राज्य, आधार भूमि या और स्पष्टता से कहें तो बदलाव का केंद्र बन गई है। ऐसे में आज़ उन संकेतों, लक्षणों को समझना ज़रूरी है, जिनके चलते बिहार में इस तरह के गुणात्मक बदलाव संभव होते दिख रहे हैं।
नीतीश कुमार के कमजोर होने का मतलब
इस बार नीतीश कुमार और उनकी पार्टी अब तक के अपने इतिहास में सबसे कमजोर स्थिति में हैं। बार-बार पाला बदलने के चलते उनकी साख लगभग खत्म सी हो गई है, और उनकी पार्टी व उनका समर्थक आधार, राजनीतिक-वैचारिक दिशाहीनता से ग्रस्त दिखने लगा है। लोकसभा चुनाव से ठीक पहले जब नीतीश कुमार और उनकी पार्टी ने अचानक भाजपा से फिर हाथ मिला लिया था, तब यह माना जा रहा था कि नीतीश कुमार भले ही बेहद कमजोर हो गए हैं पर फिर भी भाजपा को इससे ताकत मिलेगी। पर अब ठीक चुनाव के बीच में आरक्षण, सामाजिक न्याय, और संविधान बहुत बड़ा मुद्दा बन गया है, जिसके चलते व्यापक बहुजन आधार, बहुत तेजी से इंडिया गठबंधन की तरफ शिफ्ट कर रहा है।
अचानक ही साख खो चुके नीतीश कुमार ने भाजपा के संकट में भारी वृद्धि कर दी है। अति पिछड़ा, महादलित व अल्पसंख्यकों का एक बड़ा हिस्सा जिसे भाजपा, नीतीश कुमार के माध्यम से हासिल कर लेना चाहती थी, वह अब भाजपा के लिए संभव ही नहीं रह गया। बल्कि इस जनाधार का बड़ा हिस्सा गठबंधन की ओर शिफ्ट होता चला जा रहा है, इसके चलते पूरे बिहार में जहां-जहां जनता दल यूनाइटेड के उम्मीदवार हैं, उनमें से अधिकतर अपनी सीट खोने जा रहे हैं, साथ ही भाजपा के उम्मीदवारों को भी कई लोकसभा सीटों पर बड़ा झटका लगने जा रहा है।
बिहार में सामाजिक न्याय के मायने
बिहार में सामाजिक न्याय, हर दौर में बेहद संवेदनशील सवाल बना रहा है। सामाजिक गरिमा, हक़ अधिकार को हासिल करने के वास्ते बिहार का इतिहास सामाजिक समूहों के आपसी टकराव व तत्कालीन सत्ता-व्यवस्था के खिलाफ अनगिनत संघर्षों से भरा पड़ा है। हम सब जानते हैं कि समग्र पिछड़े समाज के लिए आरक्षण का सुंदर फार्मूला भी सबसे पहले, तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के दौर में बिहार में ही लागू किया गया। हाल-फिलहाल के दौर को भी अगर याद करें तो 2015 के विधानसभा चुनाव के समय, मोहन भागवत के ‘आरक्षण की समीक्षा’ वाले बयान ने बिहार में कैसा भूचाल ला दिया था, ये सभी जानते हैं।
उस दौरान उस विधानसभा चुनाव में, सफाई देती रही भाजपा पर बिहार ने उन्हें बुरी तरह नकार दिया। उसी तरह, आज जब जाति जनगणना की मांग, जो राष्ट्रीय स्तर पर लगातार चर्चा में है, को मोदी सरकार ने मानने से इंकार कर दिया है, तब ठीक इसी समय बिहारी आवाम का, इस मसले पर गहरी संवेदना का ही असर है कि बिहार सरकार को अलग से जातिगत सर्वे करवाने का निर्णय लेना पड़ा, और उस निर्णय का भाजपा भी कम-से-कम खुलेआम विरोध नहीं कर पायी।
आज़ जब, सामाजिक न्याय, संविधान और आरक्षण, बीच चुनाव में, अखिल भारतीय स्तर पर, केंद्रीय चुनावी एजेंडा बन गया है, और प्रधानमंत्री मोदी और उनकी पार्टी भाजपा, संविधान खत्म करने वाली पार्टी के बतौर, जनता के बड़े हिस्से के बीच में स्थापित होती जा रही है, तब यह सवाल कि बिहारी आवाम इस प्रश्न पर कैसी प्रतिक्रिया देने जा रहा है? निश्चित तौर पर बिहार के सामाजिक अतीत और वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति व जमीनी हकीकत को देखते हुए यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि पूरे उत्तर भारत में इस मसले पर सबसे तीखी प्रतिक्रिया बिहार करने जा रहा है, यानि बिहार में भाजपा को जोर का झटका लगने वाला है।
हिंदुत्व के लिए कमजोर जमीन है बिहार
लालकृष्ण आडवाणी जब चौतरफ़ा सांप्रदायिक उन्माद फैलाते हुए बिहार पहुंचे, तो उनके उन्मादी रथ को, तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने साहसिक पहल लेते हुए रोक दिया था, जिसका समूचे देश में आश्चर्य मिश्रित स्वागत किया गया। जब आप इस जरूरी और गंभीर पहल की पड़ताल करेंगे तो पाएंगे कि यह पहल लेकर मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने, असल में उस समय के बिहारी आवाम के मूड का ही ठीक-ठीक प्रतिनिधित्व किया था। बिहार में सामाजिक अन्याय के खिलाफ संघर्ष का इतिहास अभी भी बहुत सारे मायने में वर्तमान मानस का हिस्सा बना हुआ है। इसीलिए जब भी सामाजिक अस्मिता को बाईपास कर धार्मिक अस्मिता की ओर बढ़ने की कोशिश की जाती है, असफलता हाथ लगती है।
हिंदुत्व की राजनीति को केंद्र में लाने के किसी भी प्रयास का पर्दाफाश, जल्दी ही हो जाता है, क्योंकि बिहार में खास तरह के सामाजिक अतीत के चलते, हिंदुत्ववाद और सवर्णवाद एक ही सिक्के के दो पहलू अभी भी माने जाते हैं। एक और बेहद महत्वपूर्ण बात ये है कि बिहार में उत्तर प्रदेश की तरह अयोध्या, काशी, मथुरा जैसे विवादित बना दिए गए धार्मिक केंद्र मौजूद नही हैं, जिसके जरिए धार्मिक अस्मिता के पक्ष में उत्तेजना पैदा कर सामाजिक सच्चाइयों को दबाया या भटकाया जा सके।
ऐसी ही अन्यान्य वजहों के चलते आरएसएस अभी तक बिहार में बेहद कमजोर है और भाजपा अभी भी अपने लिए स्थायी जमीन तलाश रही है। जब पूरे देश और यहां तक की बगल के राज्य, उत्तर प्रदेश में भी जब सांप्रदायिक तनाव अपने चरम पर होता है, उस समय भी बिहार अपनी सामाजिक हकीकत के चलते, उस दिशा में बेहद न्यूनतम प्रतिक्रिया व्यक्त करता रहा है, और ठीक इसके विपरीत सामाजिक न्याय के प्रश्न पर बिहार, पूरे देश के वनिस्पत ज्यादा तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करता रहा है। इस चुनाव में यही हो रहा है। देश भर में संविधान और सामाजिक न्याय केंद्रीय नैरेटिव बनता जा रहा है, और स्वाभाविक तौर बिहार अपनी परम्परा फिर से दोहराने जा रहा है। भाजपा को जोर का झटका लगने जा रहा है।
तेजस्वी का नेतृत्व, जनता के मुद्दे व ज़मीनी गठबंधन
रोजगार और सामाजिक न्याय, आज़ देशव्यापी स्तर पर बड़ा प्रश्न बन गया है, पर सबसे पहले बिहार ने, इसे व्यवहारिक घरातल पर लागू किया, जब मोदी सरकार ने जाति जनगणना कराने से इंकार कर दिया, तो बिहार में महागठबंधन ने जातिगत सर्वे को एक समय-सीमा के तहत संपन्न किया और सर्वे के आए परिणामों को ध्यान में रखते हुए आरक्षण की 50 फीसदी की सीमा को भी तोड़ दिया।
रोजगार के सवाल पर ब्रांड मोदी की विश्वसनीयता, जहां बेहद निचले स्तर पर चली गई, वहीं दूसरी तरफ़ बिहार में महागठबंधन सरकार ने बेहद कम समय में, बनिस्पत ज्यादा रोजगार देकर अपनी विश्वसनीयता को बरकरार रखा। आज जब पूरे देश में सामाजिक न्याय और रोजगार के सवाल पर, एनडीए के मुकाबले, इंडिया गठबंधन ज्यादा भरोसेमंद नज़र आ रहा है, तो इसकी एक बड़ी वजह बिहार में कम समय में ली गई जरूरी पहलकदमियां है, जिसने अखिल भारतीय स्तर पर, इंडिया गठबंधन को जरूरी आधार मुहैय्या कराया।
इंडिया गठबंधन देश भर के वनिस्पत यहां पर ज्यादा जमीनी, स्वाभाविक और परिपक्व नज़र आता है खासकर राजद का अपने घोषित जनाधार से बाहर निकल कर बड़े दायरे की पार्टी के बतौर अपने को स्थापित करना, कांग्रेस का पहली बार सामाजिक न्याय के प्रश्न को अपना केंद्रीय एजेंडा बना लेना और उसके राष्ट्रीय चरित्र का होना और लेफ्ट, खासकर माले का आंदोलनात्मक चरित्र, साथ ही ज़मीनी व भरोसेमंद होना है, और सबसे बड़ी बात कि लंबे समय से एक साथ रहते हुए आपसी केमिस्ट्री और संवाद की देह भाषा भी सहज और स्वाभाविक होती गई है।
इस दौरान एक और महत्वपूर्ण बदलाव हुआ है। तेजस्वी यादव एक गंभीर राजनेता के बतौर उभरते हुए दिखने लगे हैं। रैलियों में उनकी बात करने की शैली बेहद आकर्षित कर रही है। नीतीश कुमार पर राजनीतिक हमले तो कर रहे हैं पर उन पर व्यक्तिगत हमले करने से बचते हुए नीतीश कुमार के जनाधार को संबोधित भी कर रहे हैं, जिसका असर भी दिख रहा है। वीआइपी पार्टी से अंतिम समय में अलग से गठबंधन कर लेना भी, तेजस्वी यादव का एक स्मार्ट मूव माना जा रहा है। पहली बार राजद, तेजस्वी के नेतृत्व में एमवाई दायरे से बाहर निकलने की गंभीर कोशिश कर रही है, और इस कोशिश में तेजस्वी, लालू राज में हुई कुछ गलतियों को स्वीकार करने से भी नहीं हिचक रहे हैं।
ऐसा लगने लगा है जैसे लंबे समय बाद बिहार को अपनी पिच पर बैटिंग करने का मौका मिल रहा है, घबराहट में भाजपा बार-बार नो बॉल डाले जा रही है और इंडिया गठबंधन की तरफ से दनादन चौके-छक्के लगाए जा रहे हैं। शायद यही वज़ह है कि उत्तर भारत में भाजपा को अब सबसे बड़ा झटका बिहार में मिलने जा रहा है। और शायद इसीलिए बिहार एक बार फिर देश में हो रहे बदलाव का केंद्र बनता जा रहा है।
(मनीष शर्मा राजनीतिक कार्यकर्ता और कम्युनिस्ट फ्रंट के संयोजक हैं)
+ There are no comments
Add yours