ख़्वाजा अहमद अब्बास को भले ही फ़िल्मकार के तौर पर अंतरराष्ट्रीय पहचान मिली हो, लेकिन बुनियादी तौर पर वे एक अफ़साना निगार थे। बेहतरीन अदीब थे। उन्होंने साहित्य की लगभग सभी विधाओं कहानी, उपन्यास, नाटक, रिपोर्ताज में जमकर लिखा।
अब्बास के अफ़सानों की तादाद सौ से ऊपर है। उन्होंने अंग्रेज़ी, उर्दू और हिंदी तीनों ज़बानों में जमकर लिखा। अब्बास उर्दू में भी उतनी ही रवानी से लिखते थे, जितना कि अंग्रेज़ी में। दुनिया की तमाम भाषाओं में उनकी कहानियों के अनुवाद हुए। अब्बास के अफ़सानों में वे सब चीज़ें नज़र आती हैं, जो एक अच्छे अफ़साने में बेहद ज़रूरी हैं। सबसे पहले एक शानदार मा’नी-ख़ेज़ कथानक, किरदारों का हक़ीक़ी चरित्र-चित्रण और ऐसी क़िस्सा-गोई कि कहानी शुरू करते ही, ख़त्म होने तक पढ़ने का जी करे।
एक अहम बात और, उनकी कहानियों में कई बार ऐसे मोड़ आते हैं, जब पाठकों को लाजवाब कर देते हैं। वह एक दम हक्का-बक्का रह जाता है। कहानी संग्रह ‘नई धरती नए इंसान’ की भूमिका में अब्बास लिखते हैं, ‘‘साहित्यकार और समालोचक कहते हैं, ख़्वाजा अहमद अब्बास उपन्यास या कहानियां नहीं लिखता। वह केवल पत्रकार है। साहित्य की रचना उसके बस की बात नहीं। फ़िल्म वाले कहते हैं, ख़्वाजा अहमद अब्बास को फ़िल्म बनाना नहीं आता। उसकी फ़ीचर फ़िल्म भी डाक्यूमेंट्री होती है। वह कैमरे की मदद से पत्रकारिता करता है, क़लम की रचना नहीं। और ख़्वाजा अहमद अब्बास ख़ुद क्या कहता है? वह कहता है-‘मुझे कुछ कहना है..’ और वह मैं हर संभावित ढंग से कहने का प्रयास करता हूं। कभी कहानी के रूप में, कभी ‘ब्लिट्ज’ या ‘आख़िरी सफ़्हा’ और ‘आज़ाद क़लम’ लिखकर। कभी दूसरी पत्रिकाओं या समाचार-पत्रों के लिए लिखकर। कभी उपन्यास के रूप में, कभी डाक्यूमेंट्री फ़िल्म बनाकर। कभी-कभी स्वयं अपनी फ़िल्में डायरेक्ट करके भी।’’
ख़्वाजा अहमद अब्बास की कहानियां अपने दौर के उर्दू के चर्चित रचनाकारों कृश्न चंदर, इस्मत चुग़ताई, राजिंदर सिंह बेदी और सआदत हसन मंटो के साथ छपतीं थीं। हालांकि उनकी कहानियों में कहानीपन से ज़्यादा पत्रकारिता हावी होती थी, लेकिन फिर भी पाठक उन्हें बड़े शौक़ से पढ़ा करते थे। अब्बास का अफ़साना ‘ज़िंदगी’ पढ़ने के बाद पाठक बख़ूबी उनकी सोच के दायरे और नज़रिए तक पहुंच सकते हैं।
ख़्वाजा अहमद अब्बास के कई कहानी संग्रह प्रकाशित हुए। जिनमें ‘एक लड़की’, ‘ज़ाफ़रान के फूल’, ‘पांव में फूल’, ‘मैं कौन हूं, ‘गेहूं और गुलाब’, ‘अंधेरा-उजाला’, ‘कहते हैं जिसको इश्क़’, ‘नई धरती नए इंसान’, ‘अजंता की ओर’, ‘बीसवीं सदी के लैला मजनूं’, ‘आधा इंसान’, ‘सलमा और समुद्र’, और ‘नई साड़ी’ प्रमुख कहानी संग्रह हैं।
‘इंक़लाब’, ‘चार दिन चार राहें’, ‘सात हिंदुस्तानी’, ‘बंबई रात की बांहों में’ और ‘दिया जले सारी रात’ उनके अहम उपन्यास हैं। अब्बास मार्क्सवाद के बड़े हामी थे और इस विचार में उनकी आस्था आख़िरी समय तक रही। यही नहीं वे हमेशा मक़सदी अदब के क़ायल रहे।
ख्वाजा अहमद अब्बास के समस्त लेखन को यदि देखें, तो यह लेखन स्वछन्द, स्पष्ट और भयमुक्त दिखलाई देता है। इस बारे में ख़ुद अब्बास का कहना था कि ‘‘मेरी रचनाओं पर लोग जो चाहे लेबल लगाएं, मगर वो वही हो सकती हैं, जो मैं हूं और मैं जो भी हूं, वह जादू या चमत्कार का नतीजा नहीं है। वह एक इंसान और उसके समाज की क्रिया और प्रतिक्रिया से सृजित हुआ है।’’
यही वजह है कि अब्बास की कई कहानियां विवादों की शिकार भी हुईं। विवादों की वजह से उन्हें अदालतों के चक्कर भी काटने पड़े, लेकिन फिर भी उन्होंने अपने लेखन में समझौता नहीं किया। इस बारे में उनका साफ़-साफ़ कहना था कि ‘‘वह किसी राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित होकर नहीं, बल्कि इंसान को इंसान की तरह देखकर लिखते और संबंध गांठते हैं।’’ कहानी ‘एक इंसान की मौत’ और ‘अबाबील’ पर उनके विचारधारा की स्पष्ट छाप दिखलाई देती है। ‘लाल और पीला’, ‘एक लड़की’, ‘ज़ाफ़रान के फूल’, ‘अजंता’, ‘एक पावली चावल’ और ‘बारह बजे’ उनकी चर्चित कहानियां हैं।
ख़्वाजा अहमद अब्बास की कहानी लेखन प्रक्रिया क्या थी? ख़ुद उनकी बयानी, ‘‘जब भी कोई नया ख़याल, नया प्लॉट या फ़िल्म की कहानी का विषय ज़ेहन में आता है, तो पहले मैं उसे कहानी के रूप में लिख लेता हूं और फिर बाद में आगे विस्तार करता हूं।’’ ज़्यादातर अफ़साना निगार ऐसा ही करते हैं। कई बार ऐसी परिस्थितियां, या वाक़िया या फिर ऐसा कोई किरदार पेश आता है, जब एक ही बैठक में कहानी पूरी हो जाती है।
अब्बास के ऐसे कई अफ़साने हैं, जिन्हें पढ़कर ये एहसास होता है कि हो न हो वे ख़ुद इस वाक़िए से गुज़रे हैं। मसलन उनकी कहानी ‘मेरी मौत’ एक सच्चे वाक़िए पर आधारित है। इस वाक़िए से ख़ुद अब्बास गुज़रे थे। मुल्क का बंटवारा उन्होंने अपनी आंखों से देखा था और उसे अपनी ज़िंदगी में भोगा भी था। वे ख़ुद इस कहानी के एक किरदार थे। जब उन्होंने ये कहानी लिखी, तो उसमें थोड़ा फेर-बदल किया लेकिन जिस्म की रूह वही रही। कहानी उर्दू में थी।
यह कहानी पहले पाकिस्तान में छपी और कहानी छपते ही मक़बूल हो गई। इतनी मक़बूल कि हिंदुस्तान में बिना उनकी इजाज़त के हिंदी की एक पत्रिका ने इसका अनुवाद कर अपने यहां छाप दिया। कहानी छपी, तो यहां भी इसने तहलका मचा दिया। अपने कंटेंट और उससे भी बढ़कर इसके दिल छूते क्लाईमैक्स ने लोगों के दिलों पर बड़ा गहरा असर किया। कहानी हालांकि साम्प्रदायिक सद्भाव पर थी, लेकिन कुछ लोगों ने इसे बिना पढ़े, कट्टरपंथियों और सियासतदानों की बातों में आकर इसकी मुख़ालफ़त शुरू कर दी। यहां तक कि एक सरदारजी ने उन पर अदालत में मुक़दमा कर दिया। जिसके चक्कर में अब्बास कुछ दिन परेशान भी रहे।
एक वक़्त ऐसा भी आया, जब सुनवाई के दौरान एक दिन अब्बास का सामना, इन सरदारजी से हो गया। इस मामले में फ़ैसला आने ही वाला था। अब्बास ने जज से घंटे भर की मोहलत मांगी और सरदारजी के पास जाकर पूछा,
‘‘आपने ये कहानी पूरी पढ़ी है ?’’
सरदारजी गुस्से में आकर बोले, ‘‘अजी हम कैसे पूरी पढ़ते, पहले दो पन्ने पढ़कर ही साडा ख़ून खौल गया।’’
अब्बास ने यह सुना, तो उनसे इल्तिजा की वह उन्हें बस आधा घंटा दें और पूरी कहानी सुन लें। सरदारजी जैसे-तैसे यह कहानी सुनने को राज़ी हुए। पूरी कहानी सुनकर वे जार-जार रोने लगे और अदालत से मुक़दमा वापस ले लिया। ये कहानी है भी ऐसी कि पत्थर दिल भी पिघल जाएं।
कहानी कुछ इस तरह से है, बंटवारे का ज़ख़्म लिए शेख़ बुरहानुद्दीन और सरदारजी एक ही मुहल्ले में रहते हैं। साम्प्रदायिक दंगों ने हिंदू-मुस्लिम और मुस्लिम-सिख के बीच अविश्वास की दीवार उठा दी है। पाकिस्तान में जो अत्याचार हिंदुओं और सिखों के साथ हुआ, वह हिंदुस्तान में मुसलमानों के साथ जारी है। ज़ाहिर है ऐसे माहौल में कोई क़ौम, किसी दूसरी क़ौम पर कैसे यक़ीन करे। शेख़ बुरहानुद्दीन के मन में सरदारों के प्रति कई पूर्वाग्रह हैं। उसे इस बात का भी हमेशा खटका बना रहता है कि उसका पड़ोसी सरदारजी कभी न कभी उसके साथ दग़ा करेगा। लेकिन वह उस वक़्त हैरान रह जाता है, जब सरदारजी अपनी जान गंवाकर उसे दंगाईयों से बचाते हैं। कहानी का अंत बड़ा ही मार्मिक है।
‘‘सरदारजी, यह तुमने क्या किया ?’’ मेरी ज़बान से न जाने यह वाक्य कैसे निकला! मैं सकते में था…..मेरी बरसों की दुनिया, ख़यालात, भावनाएं, साम्प्रदायिकता की दुनिया खंडहर हो गई थी, ‘‘सरदारजी, यह तुमने क्या किया?
‘‘मुझे क़र्ज़ा उतारना था बेटा!’’
‘‘क़र्ज़ा?’’
‘‘हां! रावलपिंडी में तुम्हारे जैसे ही एक मुसलमान ने अपनी जान देकर मेरी और मेरे घर वालों की जान व इज़्ज़त बचाई थी!’’
‘‘क्या नाम था उसका, सरदारजी ?’’
‘‘ग़ुलाम रसूल!’’
वह ग़ुलाम रसूल, जो पाकिस्तान में सरदारों का हमेशा मज़ाक़ बनाता था और उन पर मज़े ले-लेकर लोगों को लतीफ़े सुनाता था। अपने समग्र प्रभाव में यह बेमिसाल कहानी है। इसमें इंसानियत और भाईचारे का पैग़ाम है।
साम्प्रदायिक दंगों और हिंदू-मुस्लिम के बीच सौहार्द्र पर ‘अजन्ता’ भी एक शानदार कहानी है। साम्प्रदायिक दंगों की निर्ममता एवं वहशत के बीच यह इंसानियत और भाईचारे का पैगाम देने वाली कहानी है। कहानी में एक ऐसा विमर्श है, जो मानव मन से घृणा और साम्प्रदायिक भाव को भगा देता है।
एक वक़्त ऐसा भी था, जब ख़्वाजा अहमद अब्बास का नाम फ़िल्मों में कामयाबी की ज़मानत होता था। उन्हें फ़िल्मी दुनिया में मुंह मांगी रकम मिलने लगी थी। बावजूद इसके उन्होंने अदब और पत्रकारिता से अपना नाता नहीं तोड़ा। कहानी संग्रह ‘नई धरती नए इंसान’ की भूमिका में वे लिखते हैं, ‘‘मैं इन तमाम हिन्दुस्तानियों से प्रेम करता हूं। सबसे सहानुभूति रखता हूं। सबको समझने का प्रयास करता हूं। इसलिए कि वह मेरे हमवतन, मेरे साथी, मेरे समकालीन हैं। मैं अपनी कहानियों में उनके चेहरे एवं चरित्र दर्शाना चाहता हूं। न केवल औरों को बल्कि ख़ुद उनको। मनुष्य को समाज का दर्पण दिखाना भी एक क्रांतिकारी काम हो सकता है, क्योंकि आत्मप्रवंचना नहीं बल्कि आत्मदर्शन स्वयं की वास्तविकता जानना, अपने व्यक्तित्व को समझना भी सामाजिक और मनोवैज्ञानिक बदलावों को बड़ी गति में ला सकता है।’’
मशहूर तरक़्क़ी-पसंद फ्रांसीसी विद्वान जॉन पॉल सार्त्र का कहना था कि अदब में ज़िंदगी को आईना दिखाना भी एक इंक़लाबी काम है। उनकी ये बात सही भी है। रचनात्मक साहित्य के मार्फ़त यह इंक़लाबी काम दुनिया के अनेक साहित्यकारों ने किया है और आज भी ऐसे अनेक साहित्यकार मिल जाएंगे, जो अपने साहित्य से समाज को जगाने का काम कर रहे हैं। ख़्वाजा अहमद अब्बास भी उन्हीं में से एक थे।
(ज़ाहिद ख़ान लेखक एवं साहित्यकार हैं।)