मोदी सरकार: यू-टर्न की मजबूरी और मुद्दा छीनने की कवायद

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देश में सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच शह- मात की लड़ाई अब एक बिल्कुल नए चरण में प्रवेश कर गई है। इस नए चरण की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि मोदी सरकार फूंक-फूंक कर एक-एक कदम रख रही है। यह मोदी राज में पहली बार हो रहा है कि सरकार अपने फैसले वापस ले रही है, अपने स्टैंड बदल रही है।बेशक यह बदले वक्त का तकाजा है।

विपक्ष और सहयोगियों का दबाव है। लेकिन मोदी शाह के मिजाज से उलट जिस अकल्पनीय लचीलेपन का सरकार प्रदर्शन कर रही है, इसमें सबसे बढ़कर शायद अपने जनाधार की रक्षा और विस्तार की चिंता है। कदम ब कदम वह विपक्ष से कई संवेदनशील मुद्दे छीन लेने और पिछले दिनों हुए नुकसान की भरपाई करने की कोशिश करती दिख रही है। इस संदर्भ में हाल के कुछ फैसले गौरतलब हैं।

लैटरल एंट्री के मसले पर सरकार को जैसे ही यह लगा की आरक्षण की हकमारी से जुड़कर यह मामला उसके लिए राजनीतिक रूप से गले की फांस बनने जा रहा है, उसने तुरंत पलटी मारी और पिछड़ों दलितों के हितों एवम आरक्षण के प्रति प्रधानमंत्री की संवेदनशीलता का हवाला देते हुए यूपीएससी से विज्ञापन रद्द करवा दिया। यह पूछा जा सकता है कि इसके पहले जब अनेक नियुक्तियां इसी तरह हुई थी तब मोदी जी की संवेदनशीलता कहां गई थी?

इससे बड़ा सवाल यह है कि क्या यह महज आरक्षण का मामला है या और भी बुनियादी उसूल हैं जो यहां दांव पर लगे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि विशेषज्ञ के नाम पर दरअसल निजी क्षेत्र और कॉर्पोरेट घरानों के हितसाधक टेक्नोक्रेट्स को सरकार के नीति निर्णय के सर्वोच्च पदों पर बैक डोर से बैठाने की यह पॉलिसी है। क्या कड़ी मेहनत और योग्यता के बल पर सिविल सेवा में शामिल लोगों के बीच से सरकार चलाने के लिए विशेषज्ञ नहीं विकसित किए जा सकते, जिनमे आरक्षित वर्ग के लोग भी शामिल हों?

लैटरल एंट्री का वृहत्तर नीतिगत परिप्रेक्ष्य में विरोध जरूरी है, वरना पूरी संभावना है कि आरक्षण का प्रावधान करते हुए लैटरल एंट्री फिर से लागू की जाएगी। जरूरत होने पर NFS का प्रावधान तो है ही।

इसी तरह ब्रॉडकास्टिंग बिल के माध्यम से सोशल मीडिया पर अंकुश लगाने की मुहिम को भी फिलहाल ठंडे बस्ते में डालना पड़ा है। इस बिल के माध्यम से सारे डिजिटल प्लेटफार्म- X, Facebook, Instagram, youtube, Netflix, Prime Video आदि-पर आने वाले कंटेंट पर सरकारी निगरानी और नियंत्रण की व्यवस्था होनी थी।

इसके दायरे में देश के अंदर ही नहीं विदेश से संचालित यूट्यूबर्स भी आने वाले थे। बिल के प्रावधान में कहा गया था, “डिजिटल प्लेटफार्म पर न्यूज प्रसारित करने वाले पब्लिशर्स को डिजिटल न्यूज ब्रॉडकास्टर्स के नाम से जाना जाएगा। इन्हें रेगुलेट करने के लिए “ब्रॉडकास्टिंग अथॉरिटी ऑफ इंडिया ” का गठन किया जाएगा। डिजिटल कंटेंट को रेग्यूलेट करने के लिए निगरानी समिति बनाई जाएगी जो फिल्मों के सेंसर बोर्ड की तरह काम करेगी।”

दरअसल लोकसभा चुनाव के दौरान सोशल मीडिया पर अपने खिलाफ हुए जबर्दस्त प्रचार से सरकार बेहद विचलित हो उठी थी। उसे ही रोकने के लिए यह पूरी कवायद थी। लेकिन विरोधी दलों, सोशल मीडिया से जुड़ी तमाम कंपनियों और सर्वोपरि सोशल मीडिया से जुड़े विराट जनमत के विरोध के मद्देनजर फिलहाल सरकार को कदम पीछे खींचना पड़ा है। लेकिन भविष्य में किसी नए रूप में इसकी फिर वापसी हो, इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।

वक्फ बोर्ड बिल को बेहद तैयारी के साथ पेश किया गया। बताया जाता है कि चुनाव के पहले से ही तैयार बिल को सहयोगियों को खूब समझा बुझाकर पेश किया गया। तर्क दिया गया कि इसे बेहतर पारदर्शिता और इस्लामिक दान की संपत्ति के साफ सुथरे प्रशासनिक प्रबंधन के लिए लाया जा रहा है। बहरहाल विरोधी दलों एवम अल्पसंख्यक संगठनों/संस्थाओं की ओर से इसका भारी विरोध होना शुरू हो गया।

दरअसल यह माना जा रहा है कि बिल के प्रावधान बेहद खतरनाक हैं, मसलन गैर-मुस्लिम को वक्फ बोर्ड का सदस्य बनाया जा सकता है और जिलाधिकारियों को यह तय करने का अधिकार दे दिया गया है कि कौन संपत्ति वक्फ है और कौन नहीं है। लोगों की यह जायज आशंका है कि इन प्रावधानों का इस्तेमाल करके वक्फ की संपत्ति को सरकार तमाम जगहों पर अपने चहेते लोगों-कारपोरेट घरानों या बिल्डर्स, डेवलपर्स आदि को दे सकती है।

शुरुआती सहमति के बाद लगता है सहयोगियों को जब इससे होने वाले राजनीतिक नुकसान का आभास हुआ तो उनका रुख बदल गया। पहले चंद्रबाबू नायडू ने, जिनके आंध्र प्रदेश में 12-13% मुस्लिम आबादी है और जिसे नाराज करने का खतरा वे मोल नहीं ले सकते, ने पलटी मारी, फिर ठीक उन्हीं कारणों से चिराग पासवान और अब नीतीश कुमार ने भी वर्तमान बिल को बिना मुसलमानों की सहमति के पारित किए जाने का विरोध कर दिया है।

मोदी शाह ने पैर पीछे खींचते हुए बिल को सेलेक्ट कमेटी को भेज देने में ही भलाई समझी। बहरहाल बिल को राष्ट्रीय विमर्श का मुद्दा बनाकर संघ भाजपा ने ध्रुवीकरण की एक और चाल चल दिया है और मुस्लिम संपत्ति को लेकर अपने इरादों का इजहार कर दिया है। उनका विभाजनकारी संदेश पूरे देश में loud and clear जा चुका है।

ठीक इसी तरह न्यू पेंशन स्कीम NPS से पैर खींचते हुए सरकार ने UPS लाकर कर्मचारियों के बीच विभ्रम और विभाजन पैदा करने की कोशिश की है, हालांकि अनेक केंद्रीय व स्थानीय मजदूर संगठन इसका विरोध कर रहे हैं और इसे अपर्याप्त बता रहे हैं। वे OPS वापस लागू करने की अपनी मांग पर डटे हुए हैं।

सर्वोपरि जाति जनगणना के सवाल पर भी ऐसी खबरें आ रही हैं कि सरकार अपने पुराने स्टैंड पर यू टर्न लेने की तैयारी में है। जनगणना में जैसे SC/ST का जाति का कॉलम होता है, वैसे ही ओबीसी का कॉलम जोड़ने की तैयारी है। इसीलिए राहुल गांधी को गोल पोस्ट शिफ्ट करते और 50%की आरक्षण सीलिंग, जनसंख्या के अनुपात में हिस्सेदारी, सामाजिक आर्थिक सर्वे आदि पर जोर देते हुए देखा जा सकता है।

बहरहाल विपक्ष को जाति जनगणना के एकसूत्रीय फोकस से आगे बढ़ना होगा। वर्ना मोदी शाह कभी भी इसका ऐलान कर विपक्ष के हाथ से पहलकदमी छीन सकते हैं। जाति जनगणना के साथ ही विपक्ष को देश के आर्थिक पुनर्जीवन और युद्ध स्तर पर रोजगार सृजन के कार्यक्रम का रोडमैप देश के सामने पेश करना चाहिए।

विपक्ष को देश में सारे खाली पड़े सरकारी पदों को भरने, निजीकरण और आउटसोर्सिंग पर रोक लगाने, शिक्षा स्वास्थ्य क्षेत्र में भारी सार्वजनिक निवेश द्वारा बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन, MSME के पुनर्जीवन, भूमि सुधार, चौतरफा कृषि विकास, मनरेगा जैसी ही शहरी तथा शिक्षित रोजगार गारंटी योजना, इसके लिए कॉर्पोरेट घरानों तथा सुपर रिच तबकों पर संपत्ति व उत्तराधिकार कर जैसी योजनाओं का महत्वाकांक्षी पैकेज लेकर सामने आना चाहिए।

यही सभी तबकों के आकांक्षी युवाओं और आमजन को मोदी सरकार के रोजगार विहीन खोखले विकास मॉडल के खिलाफ गोलबंद कर सकता है और उन्हें राजनीतिक तौर पर पीछे धकेल सकता है।

(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं)

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