Saturday, April 27, 2024

मोदी की आंधी या भारतीय राजनीति का सारा कचरा एक जगह जमा हो रहा है? 

आज बिहार विधानसभा में एक बार फिर नौवीं बार नीतीश कुमार को बहुमत हासिल हो चुका है। लेकिन इस बार नीतीश कुमार को भी अहसास हो गया होगा कि यह उनके लिए अंतिम पलटी का मौका था। कल रात से आज सुबह 11 बजे तक समूचे बिहार में जिस प्रकार से जेडीयू और भाजपा विधायकों की खोज-खबर का सिलसिला चला, वह अभूतपूर्व था। सत्तापक्ष के विधायकों के मोबाइल की ट्रेसिंग कर धर-पकड़ की गई, वर्ना नीतीश कुमार इस बार सदन में विश्वास-मत हासिल करने से चूक जाने वाले थे। यह आघात नीतीश कुमार से कई गुना अधिक केंद्र में सत्ताशीन पीएम नरेंद्र मोदी के 2024 के मंसूबों पर तुषारापात साबित होने जा रहा था, जिसे हर हाल में दुरुस्त करना था। 

बिहार में लाज बच गई, लेकिन बिहार की जनता की निगाह में नीतीश कुमार अपना विश्वास खो चुके हैं। आम जनता की निगाह में नीतीश कुमार की अलटी-पलटी आज तक उन्हें राजनीति का चाणक्य साबित करती आ रही थी, लेकिन उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि इस बीच वे लगातार अपनी राजनीतिक जमीन को भाजपा और आरजेडी के बीच में कमजोर करते जा रहे थे। दो बड़े राजनीतिक दलों के बीच में अपनी आधी विधायकों की ताकत के कारण उनका राजनीतिक रसूख लगातार कमजोर होता जा रहा था। इंडिया गठबंधन में कांग्रेस नेतृत्व भी उनकी संदेहास्पद विश्वसनीयता को देखते हुए गठबंधन के संयोजक पद को देने से लगातार कन्नी काट रहा था। 

यही कारण था कि नीतीश कुमार ने एक बार फिर भाजपा में राह निकालने का प्रयास किया, जिसके लिए वे कह चुके थे कि ‘मर जाऊँगा, लेकिन उनके साथ नहीं जाऊंगा।’ नीतीश को मालूम था कि भाजपा को बिहार में अपना अंकगणित दुरुस्त करना है, और वे भी चाहते थे कि आम चुनाव के साथ-साथ विधानसभा के भी चुनाव भाजपा के साथ संभव है। 16 सांसद भी टिकट पा जायेंगे और विधानसभा चुनाव में यदि जेडीयू 60+ विधायक जीत गये तो वे एक बार फिर से राज्य की राजनीति को अपने मुताबिक चला सकने की स्थिति में आ जायेंगे। 

तात्कालिक जीत, लेकिन नीतीश-मोदी बिहार हार चुके हैं 

लेकिन पहले से ही कमजोर हो चुके नीतीश कुमार को भाजपा खादपानी देकर भला मजबूत क्यों करना चाहेगी? कौन नहीं जानता कि 2020 के विधानसभा चुनाव में जेडीयू उम्मीदवारों के खिलाफ राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी के टिकट पर भाजपा के ही कार्यकर्ता मैदान में उतरे थे? नीतीश कुमार का गेम तो तभी खत्म हो जाना था, अच्छा हुआ वे इस सबके बावजूद करीब चार दर्जन विधायक जिताने में कामयाब रहे, जिसके कारण उनका राजनैतिक कैरियर बना रहा। लेकिन इस बार तो उनके खिलाफ खुद जेडीयू के विधायकों में भारी रोष देखने को मिला, क्योंकि एक साल पहले ही विधानसभा भंग कर चुनाव कराने की मुख्यमंत्री की यह कवायद इन विधायकों की कीमत पर होनी थी। यहां तक कि कई भाजपा विधायक भी नीतीश कुमार की इस चाल से बेहद खफा थे। यही कारण है कि बोधगया में उन्हें बांधकर रखने के बाद, मौका लगते ही कई विधायक लापता हो गये थे।

बहरहाल यह सारा ड्रामा इस बार बिहार और देश की जनता ने साफ़-साफ़ देखा। इस पूरे घटनाक्रम के दौरान तेजस्वी यादव और इंडिया गठबंधन की ओर से दृढ़ संकल्प और 17 महीनों के दौरान बिहार में बहुप्रतीक्षित 4 लाख सरकारी नौकरियों की आमद जैसे कई वर्षों के अकाल के बाद, बारिश की बूंदों के समान बिहार के नौजवानों की पथरा चुकी आंखों को तृप्त कर गई। इतना ही नहीं, यह महागठबंधन की ही ताकत थी जिसके बल पर नीतीश कुमार जातिगत जनगणना जैसा साहसिक निर्णय लागू करा सके।

बिहार के करोड़ों परिवारों और सामाजिक न्याय की आस लगाकर बैठी आम जनता के लिए नीतीश कुमार का इस बार का पलटासन बेहद नगवार गुजरा है। उसके भीतर यह बात घर कर गई है कि बिहार सरकार रोजगार दे सकती है, लेकिन नीतीश यदि भाजपा के साथ सरकार चलाते हैं, तो यह कभी संभव नहीं होने जा रहा है। इसलिए कहा जा सकता है कि इंडिया गठबंधन को झटका देकर भी 2024 में बिहार लोकसभा की सीटों में विपक्ष को 2019 की तरह नुकसान नहीं होने जा रहा है, और 2025 में दो दशक बाद नीतीश मुक्त बिहार सरकार का मार्ग प्रशस्त हो गया है।       

2024 में दिल्ली की सत्ता के लिए जितनी घमासान मची है, उसकी दूसरी मिसाल पिछले 75 वर्षों में शायद ही कभी देखने को मिली हो। अजीब इत्तफाक है कि जैसे ही राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ पूर्वोत्तर के पहाड़ी रास्ते से होते हुए गंगा के मैदानी क्षेत्रों में पहुंची, राज्यों में उथल-पुथल शुरू हो गई। वो चाहे पश्चिम बंगाल में इंडिया गठबंधन के एक अन्य प्रमुख घटक दल तृणमूल कांग्रेस के खेमे में रही हो, या बिहार में जेडीयू अथवा झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा-कांग्रेस सरकार हो। सबके साथ ट्रीटमेंट अलग-अलग रहा, जिसे देश की जनता भी अब धीरे-धीरे समझने लगी है। 

मोदी सरकार इस बार 400 पार का दावा कर रही है, और गोदी मीडिया के धुआंधार प्रचार के साथ इंडिया गठबंधन का ढीला-ढाला स्वरुप भी कहीं न कहीं लगातार तीसरी बार मोदी सरकार की वापसी को बल प्रदान करने में मदद कर रहा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय लोकदल के राष्ट्रीय अध्यक्ष, जयंत चौधरी स्वर्गीय चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न से सम्मानित किये जाने पर क्लीन बोल्ड हो जाते हैं, या कहिये उनके लिए राह तैयार की जाती है, तो बिहार में कर्पूरी ठाकुर को यही सम्मान मिलने से 17 महीने के भीतर एक बार फिर से भाजपा को नीतीश कुमार को अपने पाले में लाने का आधार मिल जाता है। 

महाराष्ट्र में तो जो हो रहा है, वह राज्य के लोगों के लिए अकल्पनीय है। पहले शिवसेना से शिंदे, फिर एनसीपी से अजित पवार गुट को तोड़कर भाजपा 2024 की राह को आसान बनाने की जुगत में थी, लेकिन इसके बाद भी जब महाराष्ट्र के चुनावी सर्वेक्षण एनडीए को हल्का आंकते हैं, तो अब कांग्रेस में एक के बाद एक कमजोर कड़ियों को ईडी, सीबीआई जांच एजेंसियों के सहारे बुहार कर शामिल करने का सिलसिला जारी है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एवं पूर्व गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे और उनका परिवार एकमात्र अपवाद है, जिसने इस बात को सार्वजनिक किया है कि उन्हें भाजपा में शामिल होने के लिए दबाव बनाया जा रहा है, लेकिन वे कांग्रेस छोड़कर नहीं जायेंगे। हाल के दिनों में मिलिंद देवड़ा, विधायक सिद्दीकी इत्यादि कांग्रेस से विदा हो चुके हैं, और आज खबर है कि पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण भी एक-दो अन्य विधायकों के साथ अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर भाजपा की शरण में जा रहे हैं। 

2019 तक अपनी जमीन तलाशती कांग्रेस 

2014 में कांग्रेस बुरी तरह निराश और हताश थी। आम चुनाव में जाने से पहले ही वह अपने नैरेटिव को खो चुकी थी, और उसके द्वारा खुद ही अपने और साझीदार दलों के सांसदों के खिलाफ एफआईआर, जेल सहित वह कोल-गेट, 2-जी, कॉमनवेल्थ घोटाले जैसे तमाम आरोपों में खुद को घिरा पा रही थी। लगभग 100 की संख्या में उसके नेता पाला बदलकर भाजपा की शरण में जा चुके थे। 2019 में भी यह राष्ट्रीय दल हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा। कांग्रेस मानकर चल रही थी कि जैसे हर बार जनता विपक्ष को एक बार मौका देकर फिर उन्हें ही चुनती है, क्योंकि शासन चलाने की कला कांग्रेस को ही आती है, इस बार भी अपने आप यह मौका उन्हें मिल जाने वाला है। लेकिन यह उसकी भारी भूल थी। उल्टा, पुलवामा की घटना के बाद देश के आक्रोश को नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय वायुसेना के द्वारा एक सर्जिकल स्ट्राइक को अंजाम दिलाकर रातोंरात राष्ट्रवाद का ज्वार पैदा किया, उसकी आंधी में समूचा विपक्ष ताश के पत्तों की मानिंद हवा हो गया था। 

पूरे देश में भाजपा को 2014 के 31% मत-प्रतिशत के बजाय 37% मत हासिल हुए और वह 303 सीटों के साथ और भी बड़े बहुमत के साथ सत्ता में आ चुकी थी। यह पहली बार था जब केंद्र में कांग्रेस को लगातार दूसरी बार राजकाज से निर्वासन मिला था। कांग्रेस को जैसे लकवा मार गया, राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया और कांग्रेस पार्टी में दो-फाड़ की स्थिति उत्पन्न हो गई। कांग्रेस के पाले-पोसे पुराने नेताओं, जिन्होंने अभी तक सत्ता में वापसी की आस लगा रखी थी, ने पार्टी के भीतर ही जी-23 नामक एक गुट 24 अकबर रोड पर सवाल खड़े करने शुरू कर दिए थे। इसके शीर्षस्थ नेता गुलाम नबी आजाद आज कश्मीर में अपनी अलग पार्टी बनाकर विपक्ष की राह में रोड़े और भाजपा के कृपापात्र बने हुए हैं।

असल में 2014 के बाद की आरएसएस-भाजपा और मोदी-शाह की जोड़ी वह नहीं थी, जैसा कांग्रेस या यूपीए को देखने की आदत थी। 2010 के बाद सोशल मीडिया और उसके साथ ही पोस्ट-ट्रुथ युग की शुरुआत दुनिया में हो चुकी थी। राम मंदिर की लहर पर सवार भाजपा-आरएसएस ने मंडल के असर को काफी हद तक भोथरा कर डाला था, और उसकी किटी में सवर्ण हिंदू ही नहीं यूपी, मध्यप्रदेश सहित तमाम हिंदी प्रदेशों से ओबीसी समुदाय से कार्यकर्ता-नेता आ चुके थे।

1991 में नरसिम्हाराव के नेतृत्व में कांग्रेस जिस नई अर्थनीति की पैरोकारी करते हुए 2004 में भी अपनी चमक बरकारर रखी हुई थी, अपने दूसरे कार्यकाल में वह सही मायनों में भारतीय बड़ी पूंजी और बिग कॉर्पोरेट की सेवा कर पाने में अक्षम साबित हो रही थी। यूपीए अध्यक्षा सोनिया गांधी के नेतृत्व में शिक्षा का अधिकार, मनरेगा में 100 दिन रोजगार की गारंटी और सूचना का अधिकार जैसे कानून पारित किये जा रहे थे, वहीं दूसरी तरफ आदिवासी क्षेत्रों में पेसा कानून बनाना कॉर्पोरेट के लिए कांग्रेस बोझ बनती जा रही थी। यही वजह है कि देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में प्रमोद महाजन और बाद में गुजरात में नरेंद्र मोदी उसके ब्ल्यू आइड बॉय बन चुके थे। 

ऐसा नहीं है कि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस और विपक्ष ने एनडीए के पहले कार्यकाल में आवाज नहीं उठाई, लेकिन उसकी आवाज न जाने कहाँ हवा में काफूर हो जाती थी। मोदी के लिए कांग्रेस मुक्त भारत का नारा, और विभिन्न राज्यों में विपक्षी दलों की सीमाओं का अंदाजा लगाना कोई मुश्किल काम नहीं था। अपनी दूसरी पारी में और भी उन्मुक्त होकर एनडीए ने खुला खेल फरुक्खाबादी खेला, जिसमें कश्मीर में धारा 370 की समाप्ति, तीन तलाक, सीएए और तीन नए कृषि कानून की पेशकश पर विपक्ष के बजाय देश की जनता अपने-अपने मुद्दों पर आंदोलित हुई। कांग्रेस सहित समूचा विपक्ष अभी तक अपनी राजनीतिक जमीन तलाश रहा था। उसके पास जमीन पर लड़ने की सलाहियत भी खत्म हो चुकी थी। अपनी हताशा, निराशा और नेशनल हेराल्ड केस में ईडी, सीबीआई का बढ़ता शिकंजा ही संभवतः राहुल गांधी के लिए अँधेरे में एक रोशनी की किरण दिखाने वाला साबित हुआ। 

तस्वीर का दूसरा पहलू जिसे मीडिया नहीं दिखा रहा है 

पिछले वर्ष कन्याकुमारी से कश्मीर तक की भारत जोड़ो यात्रा का अनुभव राहुल गाँधी सहित कांग्रेस के लिए एक नया जीवन लेकर आया। कई लोग इसे इंदिरा गांधी की बिहार में बेलछी हत्याकांड में ली गई पहल के साथ जोड़कर देखते हैं, लेकिन तब कांग्रेस का संगठन राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत था और उसे तब भी शासन करने वाली पार्टी के तौर पर देखा जाता था। आज के दिन कांग्रेस को खड़ा होने के लिए मजबूत वैचारिक आधार की जरूरत है, क्योंकि उसके सामने मंडल-कमंडल और बिग कॉर्पोरेट को अपने पक्ष में समेटे भाजपा और उसका मजबूत राजनीतिक आधार है, जिसके पीछे उग्र हिंदुत्व की ताकत है, जिसे पिछले 4 दशकों से कोई चुनौती नहीं दी गई है। इतना ही नहीं, कांग्रेस की गोद में राजनीति का ककहरा सीखकर पले-बढ़े नेताओं की एक पूरी फ़ौज है जो आज असम सहित पूर्वोत्तर के तमाम राज्यों सहित उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र में भाजपा के साथ खड़ी है। 

लेकिन यही इसका सुखद पहलू भी है। राहुल गांधी ने इस बात को काफी देर से समझा है, लेकिन बिल्कुल ठीक समझा है। आज एक के बाद एक कांग्रेस से पुराने नेता पाला बदल रहे हैं, लेकिन न ही मल्लिकार्जुन खड़गे और न ही राहुल गांधी को अब इसकी परवाह रह गई है। ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ की अपनी दूसरी पारी में कांग्रेस को रोज हजारों की संख्या में नए-नए लोग और कार्यकर्ता हासिल हो रहे हैं। पिछले 4-5 दशक में सत्ता की लालसा में जमा हो गये नेताओं को पॉवर-ब्रोकर कहना गलत नहीं होगा, जिनके सहारे आरएसएस से लड़ने की कल्पना तक करना असंभव है। बहुत संभव है कि यूपी तक पहुँचते-पहुँचते कांग्रेस को उत्तर-प्रदेश, मध्य प्रदेश हिमाचल प्रदेश और महाराष्ट्र से और भी नेताओं के छिटकने की खबर मिले, जिनके पास खुद का कुछ हजार वोट बैंक हो। लेकिन वास्तव में देखें तो इन्होने लाखों आम भारतीय के लिए खुद को कांग्रेस से जोड़ने का रास्ता अवरुद्ध कर रखा था। 

कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व में काफी कुछ पहले ही साफ़ हो चुका है, क्योंकि 10 वर्ष के वनवास और ईडी-सीबीआई की जांच का सामना करने का साहस तो उन्हें ही सो सकता है, जो राजनीति में कुछ बदलने के लिए आये हों। आज जरूरत सच्चे धर्म-निरपेक्ष और समतामूलक समाज की चाह रखने वाले एकाधिकार-पूंजी के बरक्श छोटे और मझौले उद्योगों एवं राष्ट्रीय पूंजी समर्थक समूह को गोलबंद करने की है। यही वह शक्ति होगी जो सही मायने में जमीन पर सामाजिक न्याय को लागू करने का माद्दा रख सकती है।

बड़े कॉर्पोरेट घरानों को इस भयानक आर्थिक तबाही में भी भारी मुनाफा हासिल हो रहा है, और उनके लिए भाजपा के सिवाय कोई दूसरा विकल्प नहीं है। कांग्रेस अगर अपनी आर्थिक नीतियों को सुविचारित ढंग से पेश कर सके, तो उसके पास आज भी एक बड़ा सामाजिक आधार मौजूद हो सकता है। संभवतः यह बात कांग्रेस के नेतृत्व को पता है, लेकिन इस राह पर चलने की हिम्मत अभी भी उसमें नहीं है। देखना होगा, चिदंबरम के नेतृत्व में तैयार होने वाला कांग्रेस घोषणापत्र क्या सच में भाजपा (इसमें यूपीए I और II की अर्थनीति को भी शामिल समझा जाये) नीति से पूर्ण संबंध-विच्छेद करती हुई 80% भारत की जनता को ध्यान में रखकर बनाया जा रहा है? 

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)    

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