अरुंधति राय पर मुकदमाः 14 सालों बाद इसकी जरूरत क्यों पड़ी ?

Estimated read time 1 min read

21 अक्टूबर, 2010, कमानी ऑडिटोरियम में ‘आजादीः द ओनली वे’ शीर्षक विषय पर कार्यक्रम हुआ था। इसी कार्यक्रम में अरुधंति रॉय ने भी अपना व्याख्यान दिया। इसमें और भी कई वक्ता थे। अरुंधति रॉय और डा. शेख शौकत हुसैन पर उनके व्याख्यान के कारण एफआईआर दर्ज किया गया था। मसला कश्मीर पर दिये गये व्याख्यान का था, तो ज्यादातर मामले इसी से जुड़े हुए थे, साथ ही देश की ‘एकता’ को दी गई चुनौती को भी जोड़ा गया।

पिछले साल अक्टूबर के महीने में अखबारों में खबरें आईं कि एक पुराने मामले में अरुंधति रॉय पर यूएपीए के तहत मुकदमा चल सकता है। इन खबरों के छपने के चंद दिनों बाद ही दिल्ली गर्वनर की वह सहमति भी खबरों में आ गई जिसके तहत उन पर सीआरपीसी की धारा 196 के तहत मुकदमा चलाने की अनुमति दे दी गई थी। इसमें आईपीसी की 153ए, 153बी और 505 की धाराएं थीं। अब एक बार फिर, उसी की निरंतरता में आज के अखबारों के पन्नों पर खबर है कि उन पर यूएपीए के तहत मुकदमा चलाने की अनुमति दिल्ली के गर्वनर ने दे दिया है।

उस कार्यक्रम को हुए लगभग 14 साल गुजर गये हैं। इतने लंबे समय बाद उन पर मुकदमा चलाये जाने को कोर्ट स्वीकार करेगा, यह अभी देखना बाकी है। जिस प्रकृति का एफआईआर था और अब जिस तरह से मुकदमा चलाने के लिए कोर्ट में जाने की तैयारी हो रही है, उसके बीच का वर्षों का फासला निश्चित ही सिर्फ तकनीकी मामला ही नहीं बनता है, यह कोर्ट में किसी के खिलाफ मुकदमा चलाने की विधिसम्मत प्रावधान का मसला भी है। इसके अतिरिक्त यह न्यायाधीश के कानून सम्मत विवेक और निर्णय का भी हिस्सा है। इसमें कानून, उसके प्रावधान और उसके इतिहास के संदर्भ और न्याय की दार्शनिक अवधारणा सवालों के घेरे में होंगे और इस पर विशेषज्ञों की राय हमारे समय में ‘न्याय’ को जरूर परिभाषित करेंगे।

अरुंधति रॉय पर मुकदमे की तैयारी, उसकी अनुमति एक सामान्य घटना नहीं है। यदि यह सिर्फ कानूनी मसला होता तब इसमें इतने साल नहीं लगते। यह घटना घटे 14 साल हो गये हैं और यह दिल्ली में घटित हुआ था। उस समय के अखबारों के पन्नों को पलटकर देखा जा सकता है, उस कार्यक्रम के बाद भी कुछ विषयों पर बहस चलती रही थी। कई सारे लेख लिखे गये और उनमें अरुंधति रॉय के भी लेख थे। इतिहास के पन्नों के संदर्भ उन लेखों में भरे हुए थे। यदि यह मसला सिर्फ कानून सम्मत धाराओं का उल्लंघन था तब इस उल्लघंन के संदर्भ में मुकदमा चलाने में इतना समय नहीं लग सकता था।

जिस समय यह कार्यक्रम हुआ था, उस समय केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी। इसके बाद मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार आई और इसने भी दस साल गुजार दिये और अब 11वें साल में प्रवेश कर चुकी है। दिल्ली राज्य में कांग्रेस की सरकार और उसके बाद आप पार्टी की सरकार रही। जबकि यहां के गवर्नर की काफी ताकत है और पुलिस व्यवस्था केंद्र सरकार के तहत ही आता है। ऐसे में, यह सवाल जरूर ही बनता है कि इतने सालों बाद अरुंधति रॉय पर मुकदमा चलाने का ख्याल क्यों आया?

यह देरी दिखा रहा है कि यह विधिसम्मत मसला कम और एक राजनीतिक निर्णय अधिक है। लेकिन, यह भी साफ है कि निर्णय मुकदमा का हिस्सा नहीं होता। मुकदमा तो विधि के आधार पर चलता है। ऐसे में यह दावा आसान हो जाता है कि कानून अपना काम कर रहा है। आने वाले समय में यह जरूर देखना है कि अरुंधति रॉय के मामले में कानून अपना काम किस तरह से कर रहा है!

पिछले दस सालों में कई मुकदमों के ऐसे निर्णय आये जिसमें आरोपी पूरी तरह से दोषमुक्त साबित हुआ। कई केस में एक साथ दर्जनों लोग आरोपी थे और कई सालों से जेल में बंद थे। इस तरह के मसले पूरे देश में तेजी से बढ़े हैं। जेलों में दलित, आदिवासी, गरीब और अल्पसंख्यक समुदायों से आने वाले मुकदमों के इंतजार में, लंबित मामलों में हजारों की संख्या में बिना सजा ही जेल की चारदीवारी के भीतर बंद हैं। अभी हाल में, दस सालों से बंद जीएन साईबाबा, महेश तिर्की, हेम मिश्रा, पांडु नरोटे और प्रशांत राही को बांबे हाई कोर्ट ने सभी आरोपों से बरी कर दिया।

उन पर यूएपीए के तहत ही मुकदमा चल रहा था। इस पूरे दौर में ये सभी लोग न सिर्फ जेल में रहने की यातना से गुजरते रहे उन्होंने वहीं पर कोविड महामारी का सामना भी किया। एक आरोपी की वहीं जेल में मौत भी हो गई। भीमा कोरेगांव केस में स्टेन स्वामी की मौत न्याय पर एक ऐसी टिप्पणी है जो कभी मिट नहीं सकता। आरोप, मुकदमा और जेल के बीच एक ऐसा अनिवार्य रिश्ता बनता हुआ दिख रहा है जिसमें ‘सजा’ बहुत बाद में आता है।

न्यायाधीश द्वारा कोर्ट की सारी प्रक्रिया पूरा करने के बाद ‘निर्णय’ देने तक का जो वर्षों का समय लग रहा है वही अब सजा में बदल गया है। यह एक ऐसी सच्चाई है जिसे आम भाषा में ‘जेल में सड़ा देना’ कहते हैं। आरोप और जेल और फिर मुकदमा शुरू होने का इंतजार एक ऐसी व्यवस्था की तरह सामने आई है जो अब एक आम खबर की तरह हो गई है। जमानत पर पहरेदारी इस तरह से बढ़ गई है कि आरोप के साथ जेल में रहना एक आम बात हो गई है। यह अपने आप में दमन का एक तरीका बन गया है। अरुंधति रॉय के संदर्भ में जिस तरह की तैयारी दिख रही है, उससे इन सबकी आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता।

कानून एक राजनीतिक निर्णय का हिस्सा होता है। संविधान उसी राजनीतिक निर्णय की एक दार्शनिक अभिव्यक्ति है और कानून रोजमर्रा के जीवन में उस निर्णय से विच्युति को अपनी संरचना में बांधे रखने की एक व्यवस्था है। राजनीतिक निर्णय एक संस्था के माध्यम से खुद को अभिव्यक्त करता है। यह संस्था सिर्फ प्रतिनिधि संस्था ही होती है जबकि निर्णय लेने वाले कई और विविध तरीकों से एकबद्ध होते हैं। यही वे लोग होते हैं जो आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृति जीवन को अपने राजनीति निर्णयों से बांधे हुए ले चलते हैं।

लोकतंत्र इन निर्णयों में जनता को इतनी जगह देता है कि वहां उसके हिस्से की थोड़ी सी आवाज सुनी जा सके। यहीं पर उसे अपने थोड़े से राजनीतिक निर्णयों को उसके संवैधानिक पृष्ठिभूमि में देखने और समझने का वह अवकाश मिलता है जिसमें से एक नागरिक समाज बनता है। इसी नागरिक समाज की आलोचना से लोकतंत्र के ढांचे का वह अंतर्विरोध सामने आता है जिससे लोकतंत्र को बनाये रखने की समझदारी बनती है। यही वह बुद्धिजीवी समाज है जो लोकतंत्र के वर्चस्ववादी समूहों और जनता के बीच का संवाद कायम करता है और अपने-अपने हितों के अनुरूप पक्ष भी लेता है।

जिस लोकतंत्र के ढांचे में वर्चस्ववादी समूह अपनी संस्था, संगठन और पार्टी के माध्यम से लोकतंत्र के चुनाव की प्रक्रिया को उलट दे, वह अपनी ही जनता को चुनने लगे, अन्य को हाशिये की तरफ ठेलने लगे तब वह अनिवार्यतः नागरिक, बुद्धिजीवी समूहों का चुनाव भी खुद करने लगता है। भाजपा के नेतृत्व में इस तरह की प्रक्रिया बहुत तेजी से चल निकली है। वह न सिर्फ अपना जनता चुन रही है, वह सत्ता की पूरी संरचना को ही अपने हितों के अनुसार चुन और ढाल रही है। इस गढ़े जा रहे ढांचे में भले ही सबकुछ कानून सम्मत और संवैधानिक ढांचे में दिख रहा हो और लोकतंत्र के नियमों में चल रहा हो, लेकिन सच्चाई अब सामने आ चुकी है।

हम जिस दशक में रह रहे हैं उसमें भारत को ‘लोकतंत्र की मां’ घोषित किया गया। इसे आजादी का अमृतकाल घोषित किया गया। चुनाव को लोकतंत्र का उत्सव घोषित किया गया। प्रधानमंत्री ने खुद को ईश्वरीय महिमा से भरा हुआ पाया। भारत को विकास के घोड़े पर सवार बताया गया जो कुछ और सालों में आसमान छू लेगा। उसी भारत में एक लेखिका को उसके भाषण के लिए 14 साल बाद मुकदमा चलाने के लिए कोर्ट में लाया जायेगा। यह लोकतंत्र की उन दावों के विपरीत सच्चाईयों को सामने लाती है जिसे वैकल्पिक तौर पर भारत की और दुनिया भर के संस्थान अपनी रिपोर्ट में बार-बार सामने ला रहे हैं।

14 साल बाद अरुंधति रॉय पर यूएपीए के तहत मुकदमा चलाने की तैयारी लोकतंत्र के जर्जर हो रहे ढांचे पर बेहद भारी साबित होगा। यह एक ऐसा मुकदमा साबित होगा जिसमें सिर्फ कानून, संविधान, राजनीति, विचारधारा, …ही नहीं पूरी न्याय की अवधारणा अरुंधति रॉय के साथ कोर्ट में खड़ी मिलेगी। लाजिम है कि हम भी देखेंगे, …।

(अंजनी कुमार स्वतंत्र पत्रकार हैं)

You May Also Like

More From Author

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments