कस्तूरबा नगर में चला डीडीए का बुलडोजर, मलबे में बदल गया तीन पीढ़ियों का आशियाना

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नई दिल्ली। पूर्वी दिल्ली के कस्तूरबा नगर कॉलोनी में डीडीए के बुल्डोजर ने दो दर्जन मकानों को ढहा दिया है। इन मकानों में कई परिवार वर्षों से रह रहे थे। अब वे सड़क के किनारे टेंट लगाकर अपने टूटे घरों को निहार रहे हैं। अभी प्रशासन ने तीन दर्जन मकानों को गिराने के लिए निशान लगाया है। सुप्रीम कोर्ट ने कॉलोनी वालों को एक सप्ताह का समय दिया है कि वह अपने घरों से समान को दूसरे जगह शिफ्ट कर लें। कॉलोनी को तोड़कर वहां से 60 फिट चौड़ी सड़क बनाई जाएगी। वहां रहने वालों को न कोई मुआवजा दिया जा रहा है और न ही उनके पुनर्वास की कोई योजना है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या वे सब गैर-कानूनी तरीके से रह रहे थे।

कस्तूरबा नगर कॉलोनी कोई एक दो साल में आबाद नहीं हुई थी। वह कोई झोपड़-पट्टी भी नहीं है। टूटने वाले हर मकान कम से कम तीन मंजिला थे, जिसमें कई परिवार रहते थे।

रंजीत सिंह बताते हैं कि हमारे कुनबे के 16 परिवारों का यहां मकान था। हम तीन पीढ़ियों से यहां रह रहे थे। हमारे दादा विभाजन के समय मुलतान से आए थे। दो-तीन साल परिवार इधर-उधर भटकता रहा फिर 1952 में पं. जवाहर लाल नेहरू और कांग्रेस नेताओं ने यहां बसने की जगह दी। तबसे मेरा परिवार यहीं रह रहा था। परिवार बढ़ता गया लेकिन सब लोग यहीं रहे।

घर टूटने के डर से उदास कमलेश का परिवार

रंजीत बताते हैं कि 1972 में दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) ने कार्रवाई की। कुछ परिवारों को त्रिलोकपुरी ब्लॉक-32 में जमीन दी गई। तीन पहले भी यहां कार्रवाई हुई थी, झुग्गियों को तोड़ा गया था लेकिन सबको द्वारका सेक्टर 14 में फ्लैट दिया गया।

प्रीत कौर कहती हैं कि हम लोग कोई अवैध तरीके से नहीं रह रहे थे। हमारे पास हाउस टैक्स, बिजली का बिल, आधार कार्ड और मतदाता पहचान पत्र है। हम हर चुनाव में मतदान करते रहे हैं। डीडीए ऐसे कैसे कर सकता है? मई के महीने में जब पारा 45 डिग्री सेल्सियस है, तब घरों को बुलडोजर लगाकर तोड़ दिया जा रहा है। आखिर हम लोग कहां जाएं?

अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वह कहती हैं कि बच्चों का स्कूल जाना बंद हो गया। जो लोग कुछ काम-धंधा करते थे वह बंद है। लेकिन पेट तो नहीं बंद रहेगा?

पुलिस द्वारा जबरन घर से निकालने की प्रक्रिया में बच्चे को आई चोट

डीडीए के बुल्डोजर द्वारा मकानों को तोड़ने के बाद अब करीब दो दर्जन परिवार सड़क के किनारे टेंट लगाकर अपने टूटे घरों को निहार रहे हैं। अभी प्रशासन ने तीन दर्जन मकानों को गिराने के लिए निशान लगाया है। दरअसल, डीडीए ने कस्तूरबा नगर में मकान तोड़ने के लिए 22 मई, 2023 को दिन में 10 बजे का समय तय किया था। कॉलोनीवासियों ने इसके खिलाफ पहले हाई कोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट में अपील किया था। 22 मई को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होनी थी। डीडीए को लगा कि कहीं दोपहर तक सुप्रीम कोर्ट मकान न तोड़ने का आदेश न दे दे। इसलिए डीडीए के अधिकारी सुबह 6 बजे ही बुलडोजर और भारी संख्या में पुलिस के साथ पहुंचे। पुलिस ने जबरदस्ती लोगों को घरों से निकालना शुरू किया। इस प्रक्रिया में कई लोगों को चोटें भी आई। डीडीए की आशंका सच साबित हुई सुप्रीम कोर्ट ने कॉलोनी वालों को एक सप्ताह का समय दिया है कि वह अपने घरों से समान को दूसरे जगह शिफ्ट कर लें।

मलबे के पास टेंट लगाकर रहते कॉलोनी के निवासी

आजादी के बाद आबाद यह कॉलोनी अब शासन प्रशासन की नजर में गैर-कानूनी हो गई है। क्योंकि स्थानीय भाजपा विधायक ओम प्रकाश शर्मा को शक है कि इस कॉलोनी के लोग उन्हें वोट नहीं देते हैं। ओम प्रकाश शर्मा ने वहीं को निवासियों को साफ मना कर दिया है कि वह उन लोगों के लिए कुछ नहीं कर सकते।

विभाजन के समय मुल्तान से आए कई सिख परिवार यहां आबाद थे। परिवार के बड़े-बुजुर्गों ने विभाजन के समय अपना पैतृक घर-बार छोड़ा तो उनकी संतानों को अब एक बार फिर अपने घर से उजाड़ा जा रहा है। बुजुर्ग गुरदयाल सिंह कहते हैं कि हम लोगों के परिवार वालों ने सेना में रहकर देश सेवा की है, सरकार और कानून देश सेवा का यह फल दे रही है।

विभाजन के समय मुलतान से आए गुरदयाल सिंह

कस्तूरबा नगर कॉलोनी में रहने वाले ज्यादातर छोटा-मोटा रोजगार करके जीवन की नाव चला रहे हैं, कोई ऑटो चलाता है तो कोई ई-रिक्शा। इतनी आमदनी नहीं है कि कहीं दूसरे जगह वे किराये का मकान ले सकें।

इसी क़ॉलोनी में कई पीढ़ियां पैदा हुईं और जवान हुईं। लेकिन रातों-रात डीडीए ने उनके सपने और भविष्य पर बुलडोजर चला दिया, अब वह कहां जायेंगे पता नहीं। हर तरफ असमंजस है एक तरफ कुआं तो दूसरी तरफ खांईं हैं। आखिर सड़क के किनारे कब तक रहेंगे, कुछ पता नहीं है।

प्रिया बताती है कि इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी के बनने के बाद ही इस कॉलोनी पर तलवार लटकने लगी थी। क्योंकि सरकार कॉलोनियों को तोड़कर यहां से सड़क निकालना चाह रही हैं।सड़क के किनारे दुकाने बनेंगी और उन्हें पैसे वालों को अलॉट किया जायेगा।

घर टूटने के बाद लोगों का काम धंधा बंद है। अब न रहने का ठिकाना है और न खाने का जुगाड़। चारों तरफ अंधेरा है। सरकार, न्यायपालिका, विधायक, सांसद, राजनीतिक पार्टियां और समाजसेवी संगठन कहीं से मदद की उम्मीद नहीं दिख रही है। सत्ता की मार से बच्चों का बचपन और भविष्य सड़क पर भटकने को मजबूर है।

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प्रदीप सिंह https://www.janchowk.com

दो दशक से पत्रकारिता में सक्रिय और जनचौक के राजनीतिक संपादक हैं।

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