साम्राज्यवाद को लगातार चुभने वाला कांटा थे जॉन पिल्जर

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नई दिल्ली। मुमकिन है कि यह कथन कुछ लोगों को अतिशयोक्ति लगे कि जॉन पिल्जर हमारे युग के सबसे महान पत्रकार थे। बहरहाल, इसे अगर इस रूप में कहें तो शायद कोई असहमत नहीं होगा कि वे हमारे युग के सबसे महान पत्रकारों में एक थे। बल्कि यह बात मानने में भी ज्यादातर लोगों को दिक्कत नहीं होगी कि सर्वकालीन सबसे महान पत्रकारों में एक थे।

बेशक महानता का कोई ठोस पैमाना नहीं होता। यह एक व्यक्ति सापेक्ष धारणा है- यानी हर व्यक्ति अपनी समझ और जानकारी के आधार पर किसी व्यक्ति को महान मानता है।

मगर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पत्रकार या लेखक या किसी संस्कृतिकर्मी के बारे में राय अंततः इसी तथ्य से बनती है कि वह अपने समय के सवालों के बरक्स कहां खड़ा था। इस लिहाज से यह संभव है कि ऐसी किसी शख्सियत के बारे में राय बंटी हुई हो- यहां तक कि लोगों की राय परस्पर विरोधी भी हो सकती है।

जॉन पिल्जर भी संदर्भ से परे नहीं थे। उनकी अहमियत उन लोगों की नजर में थी, जो न्याय की धारणा को एक खास राजनीतिक और अंतरराष्ट्रीय संदर्भ में समझते हैं- ऐसे लोग जो 20वीं और 21वीं सदी में साम्राज्यवाद के मौजूद एवं बदलते रूप से परिचित हैं। जो इस अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के शोषक और नरसंहारी चरित्र के प्रति संवेदनशील रहे हैं।

जॉन पिल्जर का खास योगदान यह था कि उन्होंने साम्राज्यवाद के इस चरित्र को बेनकाब करने और उसके प्रति दुनिया भर में जागरूकता लाने में बेमिसाल भूमिका निभाई। बतौर अपने प्रभावशाली लेखन और फिर डॉक्यूमेंटरीज के माध्यम से उन्होंने ऐसी घटनाओं और उनके सूत्रधारों से दुनिया का परिचय कराया, जिनके कहीं इतिहास में दब जाने की आशंका थी।

यह नहीं भूलना चाहिए कि साम्राज्यवाद या शोषण के हर तंत्र की एक प्रमुख ताकत सूचना एवं कथानक निर्माण के माध्यमों पर उसका नियंत्रण होता है। इस ताकत के जरिए वह सारी घटनाओं की अपने अनुरूप व्याख्या पेश और प्रचारित करने में सफल हो जाता है। यह हकीकत आज भी ज्यादा नहीं बदली है।

बहरहाल, इस सूरत में अगर थोड़ा-बहुत अंतर आया है, तो उसका श्रेय जॉन पिल्जर जैसे व्यक्तियों को ही जाता है। जॉन पिल्जर और उनके जैसे पत्रकारों की यह भूमिका ऐतिहासिक मानी जाएगी। और इसीलिए पिल्जर का दुनिया से जाना एक अपूरणीय क्षति है। 9 अक्टूबर 1939 को जन्में पिल्जर ने 30 दिसंबर 2023 को दुनिया को अलविदा कहा (John Pilger obituary | John Pilger | The Guardian)।

ऑस्ट्रेलिया में जन्में पिल्जर बाद में ब्रिटेन में बस गए थे। 84 वर्षीय पिल्जर अपने अंतिम दिनों में pulmonary fibrosis से पीड़ित थे। उन्होंने आखिरी सांस लंदन में ली।

जॉन पिल्जर के संपूर्ण कार्य का सार साम्राज्यवाद एवं शोषण के विभिन्न स्तरों को बेनकाब करना माना जाएगा। वैसे यह कहानी 1960 के दशक से ही शुरू होती है, लेकिन दुनिया का ध्यान उन्होंने 1970 के दशक में खींचा, जब कंबोडिया में पोलपोट के दौर में नरसंहार की परतों को उन्होंने उघाड़ा।

उनके बारीक कार्य से दुनिया यह जान सकी कि पोलपोट को सफल बनाने में अमेरिका ने कितनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। चूंकि पोलपोट तब वियतनाम और परोक्ष रूप से सोवियत संघ के खिलाफ था, इसलिए अमेरिका ने उसकी राह आसान बनाने की कोशिश की थी।

उसके बाद वियतनाम में अमेरिकी हमलों के दौरान हुए विनाश की कहानी पिल्जर ने नए सिरे से दुनिया को बताई। तिमोर और म्यांमार में मानव अधिकारों के हनन की कहानी बताने के बाद पिल्जर ने एक महत्त्वपूर्ण डॉक्यूमेंटरी अपार्थाइड डीड नॉट डाय नाम से बनाई। इसके जरिए उन्होंने बताया कि किस तरह दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी शासन खत्म होने के बाद वहां श्वेत और ब्लैक समुदाय के धनी लोगों ने आर्थिक आधार पर भेदभाव का एक नया सिस्टम खड़ा कर दिया।

इराक में पश्चिमी प्रतिबंधों के कारण बड़े पैमाने पर बच्चों की मौत और भूमंडलीकरण के दुनिया भर में आम लोगों पर हुए खराब असर का भी उन्होंने ऑडियो-वीडियो माध्यम के जरिए दस्तावेजीकरण किया। पिल्जर की एक प्रमुख डॉक्यूमेंटरी फिलस्तीन समस्या पर बनी Palestine Is Still the Issue (2002) है।

इसके अलावा 9/11 के बाद अमेरिका के कथित आतंक के खिलाफ युद्ध की विभीषिका पर बनी Breaking the Silence: Truth and Lies in the War on Terror (2003), लैटिन अमेरिकी देशों में अमेरिकी हस्तक्षेप पर बनी The War on Democracy (2007), तथा अंत में चीन के खिलाफ अमेरिकी लामबंदी पर बनी The Coming War on China (2016) उनकी प्रमुख डॉक्यूमेंटरीज में शामिल हैं।

इस बीच 2010 में उन्होंने अपनी-अपनी सरकारों की डफली बजाने वाले सत्ता सेवक पत्रकारों को बेनकाब करते हुए एक डॉक्यूमेंटरी बनाई, जिसका नाम उन्होंने The War You Don’t See रखा।

पत्रकारों और संस्कृतिकर्मियों की चुप्पी से पिल्जर अपने जीवन के आखिरी दिनों तक विचलित रहे। अपनी जिंदगी का आखिरी लेख भी उन्होंने इसी विषय पर लिखा, जो उनकी मृत्यु के बाद पहली जनवरी को एक ऑस्ट्रेलियाई वेबसाइट छापा (THERE IS A WAR COMING, SHROUDED IN PROPAGANDA – Declassified Australia)।

इस लेख की शुरुआत उन्होंने 1935 में न्यूयॉर्क में अमेरिकी लेखकों के हुए एक सम्मेलन का जिक्र करते हुए की है। उन्होंने बताया है कि इस सम्मेलन में जुटे लगभग साढ़े तीन हजार कवियों, उपन्यासकारों, नाटककारों, आलोचकों, कहानीकारों और पत्रकारों ने “तेजी से ढह रहे पूंजीवाद” और क्षितिज पर मंडराते एक अन्य युद्ध के खतरे पर विचार करने की अपील दुनिया भर के बुद्धिजीवियों से की थी।

आगे उन्होंने लिखा है- ‘2023 में ढहते पूंजीवाद और आज के नेताओं की घातक भड़काऊ कार्रवाइयों के बारे में लेखकों का कोई सम्मेलन कहीं नहीं हो रहा है।’

पिल्जर ने लिखा है- ‘आज लोकतंत्र का दिखावा भर रह गया है। सर्वशक्तिशाली कॉरपोरेट अभिजात्य वर्ग राज्य में समाहित हो गया है।… पूरे पश्चिम में पीआर (पब्लिक रिलेशन्स) से लोगों की राजनीतिक संकल्पना तय हो रही है। लोगों की सोच को बोरिस जॉनसन, डॉनल्ड ट्रंप या वोलोदीमीर जेलेन्स्की जैसे भ्रष्ट, अत्यंत निम्न दर्जे के राजनेता भटकाए रख रहे हैं।’

पिल्जर ने बुद्धिजीवी वर्ग को व्यवस्था का हिस्सा बनाने की परिघटना का उल्लेख इस लेख में किया है। बताया है कि कैसे शासक वर्ग ने लालच और धमकियों का सहारा लेकर बौद्धिक वर्ग की ऐसी स्थिति बना दी है, जिसमें सिर्फ उसकी राय ही आम जन के बीच जा पाती है। इसके साथ ही उन्होंने यूरोप में नए सिरे से हो रहे फासीवाद के उदय और दुनिया पर गहराते जा रहे युद्ध के खतरों का विस्तार से उल्लेख किया है।

जॉन पिल्जर ने इस लेख में बताया है कि श्रमिक और अन्य शोषित वर्गों के संगठित संघर्ष को पटरी से उतारने के लिए साम्राज्यवादी तंत्र ने बौद्धिक वितंडावाद का सहारा लिया। किस तरह उत्तर आधुनिकतावाद की जड़ें डाली गईं और उसके तहत विभिन्न अस्मिताओं को उभारते हुए संगठित एवं एकजुट संघर्ष की संभावनाओं को कुंद किया गया। यह प्रचारित किया गया कि अगली जो क्रांतियां होंगी, वे सामूहिक नहीं, बल्कि उनका उद्भव व्यक्तिगत स्तर पर होगा। यह परियोजना काफी हद तक सफल रही।

नतीजा हुआ कि श्रमिक वर्ग के साझा संघर्ष से दुनिया को बदलने या एक नई दुनिया बनाने का सपना धूमिल हो गया। उसका परिणाम शोषण तंत्र के मजबूत होने और अब वैश्विक स्तर पर नए युद्ध के मंडराते खतरे के रूप में सामने आया है।    

जॉन पिल्जर ने जिन खतरों से आगाह किया है, इस नए वर्ष के आरंभ में वे और सघन होते नजर आ रहे हैं। लेकिन यह दुर्भाग्य की बात है कि अब हमें उन खतरों के गतिशास्त्र (dynamics) और उनके विभिन्न पहलुओं को समझाने वाली कोई उन जैसी शख्सियत हमारे बीच नहीं होगी।

जब दुनिया एक निर्णायक टकराव के दौर में प्रवेश कर रही है, साम्राज्यवाद और शोषकों की दुरभिसंधियों को बेनकाब करने वाला उन जैसा व्यक्तित्व हमारे बीच नहीं होगा। उन जैसा कोई ऐसा व्यक्ति हमारे बीच नहीं होगा, जो उपयुक्त तथ्य और तर्क उपलब्ध करवा कर अपना पक्ष चुनने में हमारी मदद करे।

जॉन पिल्जर यह सवाल पूछते हुए दुनिया से चले गए कि आखिर आज की परिस्थिति पर बौद्धिक वर्ग चुप क्यों है। बेशक, कहा जा सकता है कि इस चुप्पी को तोड़ना ही उनके प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।   

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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