Tuesday, April 23, 2024

चुनावों में पूंजी के खेल और निजीकरण ने माफिया को जन्म दिया

प्रयागराज, उत्तर प्रदेश। प्रयागराज के थाना धूमनगंज और शाहगंज के एसीपी नरसिंह नारायण सिंह का मंगलवार को तबादला कर दिया गया। उन पर भू-माफियाओं से अपने क़रीबी लोगों के नाम बेहद कम पैसे में रजिस्ट्री कराए जाने के आरोप लगते रहे हैं। इसी तरह अतीक की बहन आयशा नूरी का आरोप है कि अतीक अहमद के दिये 5 करोड़ रुपये नंद गोपाल नंदी से वापस मांगने के बाद से चीजें तेजी से अतीक अहमद परिवार के ख़िलाफ हो गयीं।

धूमनगंज के थानाध्यक्ष राजेश कुमार मौर्या को जिले में नंद गोपाल नंदी का आदमी कहा जाता है। उन्हीं के नेतृत्व में अतीक-अशरफ को धूमनगंज थाने से कॉल्विन अस्पताल ले जाया गया था। यह सब एक बानगी भर है, राजनीति, ब्यूरोक्रेसी और अपराध के गठजोड़ का।

पूंजीवादी व्यवस्था में चुनावों की प्रकिया में ख़र्च होने वाली बेहिसाब पूंजी ही दरअसल अपराध और माफ़िया की ज़रूरत पैदा करती है। सामंतवादी काल में डाकू हुआ करते थे। 70-80 के दशक में स्मगलर होते थे। एलपीजी काल में माफिया होते हैं। उदारीकरण के बाद तेजी से हुए निजीकरण और ठेकेदारी प्रथा के साथ ही माफ़ियाओं का जन्म हुआ। ये माफिया खनन, रियल एस्टेट आदि में अपना दबदबा कायम कर लिये।

आज आलम यह है कि ज़मीनों के दाम आसमान छू रहे हैं। कहीं कोई ज़मीन बिकेगी तो बड़ा कॉर्पोरेट, बिल्डर, नेता या नौकरशाह ही ख़रीदेगा। एक मध्यवर्गीय नौकरीपेशा आदमी तो इसके बारे में सोच भी नहीं सकता। खनन और रियल एस्टेट के बाद प्राइवेट ट्रांसपोर्टेशन, प्राइवेट अस्पताल, प्राइवेट स्कूल आदि में भी इन लोगों का वर्चस्व बहुत तेजी से बढ़ा है।  

पूंजी के दबाव से राजनीति, लोकतंत्र और लोकतंत्र को चलायमान रखने वाली निर्वाचन प्रक्रिया भी अछूती नहीं है। लोकसभा और विधानसभा के चुनाव में आज एक-एक उम्मीदवार सैंकड़ों करोड़ रूपये ख़र्च कर देता है। आखिर उनके पास इतने रुपये आते कहां से हैं? छोटे-बड़े पूंजीपति पार्टी को फंडिंग करते हैं। अब तो इलेक्टोरल बांड भी आ गया है तो पार्टी फंडिंग की बात समझ आती है। लेकिन इंडिविजुअल फंडिंग। इंडिविजुअल फंडिंग माफिया करते हैं।

दूसरी प्रमुख बात यह की पूंजी और संसाधनों के केंद्रीयकरण होने से एक ओर जहां छोटे पूंजीपति कमज़ोर हुए वहीं छोटी-बड़ी क्षेत्रीय पार्टियों के अस्तित्व पर भी सवाल खड़ा हो गया। उत्तर प्रदेश के सहारा समूह का पतन सिर्फ़ सुब्रतो राय का पतन नहीं था। चुनाव से पहले विपक्षी दलों और उनको फंडिंग करने वाले छोटे कारोबारियों पर प्रवर्तन, आयकर और सीबीआई के छापे दरअसल पूंजी के प्रवाह को रोककर निर्वाचन की प्रक्रिया में दूसरे दलों की दावेदारी को कमज़ोर करते हैं। 

हर जिले का एक माफिया होता है

हर जिले में एक माफिया ज़रूर होता है। कई बार एक जिले में कई माफ़िया होते हैं। कई माफिया होने का नुकसान यह होता है कि कभी कभार उनमें आपस में गैंगवार शुरू हो जाता है। जैसे प्रयागराज में एक समय जवाहर यादव, करवरिया बंधु, अतीक अहमद और राजू पाल थे। खुद विधायक होने और सिर पर सत्ता का हाथ होने के नाते बालू खनन में जवाहर यादव के एकाधिकार के चलते करवरिया बंधुओं ने सिविल लाइन्स के पॉश इलाके में दिनदहाड़े एके-47 से उनकी हत्या करवा दिया था।

उसके बाद बालू खनन में करवरिया बंधुओं का दबदबा फिर से कायम हो गया। फिलहाल करवरिया बंधु सपा विधायक और माफिया जवाहर यादव की हत्या के केस में आजीवन कारावास की सज़ा काट रहे हैं। उदयभान करवरिया दो बार भाजपा विधायक रहा है। उदय करवरिया की पत्नी नीलम करवरिया 2016 में भाजपा विधायक चुनी गईं। 2022 के चुनाव में भी वो भाजपा उम्मीदवार के तौर पर हार गईं।

प्रयागराज जिले के गौहनिया में करवरिया बंधुओं का जयपुरिया स्कूल है। साल 2022 में इसी स्कूल में मोहन भागवत और दत्तात्रेय हसबोले की अगुवाई में आरएसएस की अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल की चार दिवसीय बैठक हुई थी। इस कार्यक्रम में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी पहुंचे थे। तो कहने का मतलब यह कि हर पार्टी का भी अपना माफिया होता है। जिससे उनके हित जुड़े होते हैं।

राजनेता माफिया को खनन, शराब, रियल एस्टेट आदि का ठेका दिलाने में मदद करते हैं। इसके बदले माफिया उन्हें कमाई में हिस्सा तो देता ही है। इसके अलावा वो तमाम दूसरे तरीकों जैसे कि रंगदारी, ज़बरन क़ब्ज़ा, स्मगलिंग, हवाला आदि से भी पैसे पैदा करता है और चुनाव में नेता को जीतने में आर्थिक से लेकर हर तरह की मदद करता है।

माफियाओं के प्रत्यक्ष राजनीति में आने के सबब

माफिया जब तक राजनीति का प्रत्यक्ष हिस्सा नहीं थे वहां तक सब ठीक था। लेकिन इसके बाद माफियाओं में ‘माननीय’ बनने और लालबत्ती लेकर चलने की लहक पैदा हुयी। माफियाओं को राजनीति में प्रवेश से पहले तो फायदा हुआ। फायदा यह हुआ कि बाहुबली अपनी सीट तो निकाल ही लेते थे आस-पास की सीटों को जीतने में भी उनका प्रभाव काम आता था।

दूसरे जिस सीट पर बाहुबली माफिया चुनाव लड़ रहे होते उस सीट पर प्रचार-प्रसार से लेकर धन जुटाने तक की जिम्मेदारी से पार्टियां मुक्त हो जाती। जैसे साल 2000 में बाहुबली विजय मिश्रा ने सपा का दामन थामा तो सपा ने विजय मिश्रा के अलावा तीन और सीटें उनके जिम्मे सौंपी। 2002 चुनाव में विजय मिश्रा भदोही सीट खुद जीती और आस पास की सीटें भी सपा को जीतने में मदद की।

माफिया और चुनाव जीतने-जिताने का खेल

हरिशंकर तिवारी, अमरमणि त्रिपाठी, रघुराज प्रताप सिंह, अतीक अहमद और मुख्तार अंसारी लगातार कई बार अपनी सीट से चुनाव जीते हैं। माफिया जब चुनाव नहीं लड़ पाते तो उनके सगे सम्बन्धियों को पार्टियां अपना उम्मीदवार बना लेती हैं। क्योंकि उन सीटों पर माफिया भले मैदान में न हों पर उनका इम्पैक्ट रहता है।

मधुमिता हत्याकांड में जेल की सजा काट रहे अमरमणि त्रिपाठी के बेटे अमनमणि त्रिपाठी भाजपा विधायक हैं। पूर्वांचल के बाहुबली नेता बृजेश सिंह के भतीजे सुशील सिंह चंदौली जिले के सैयदराजा सीट से भाजपा विधायक हैं। अयोध्या के गोसाईंगंज सीट से बाहबुली इन्द्र प्रताप तिवारी भाजपा विधायक रहे हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा 5 साल की सजा पाने के बाद साल 2022 चुनाव में भाजपा ने उनकी पत्नी आरती तिवारी को टिकट दिया हालांकि वो हार गयीं।

समस्या क्या है?

माफ़िया जब तक माफ़िया रहते हैं और माफ़िया की तरह काम करते हैं, तब तक सब ठीक रहता है। माफिया जब खुद व्यापारी या राजनेता बन जाते हैं तो दिक्कत वहां से शुरू हो जाती है। फिर वो राजनेताओं को ठेंगा दिखाने लगते हैं।

समाजवादी पार्टी के टिकट पर फूलपुर सीट से अतीक अहमद सांसद निर्वाचित हुआ। जब साल 2008 में अमेरिका के साथ परमाणु समझौते के मुद्दे पर लेफ्ट पार्टियों ने मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार से अपना समर्थन वापस लिया तो मदद के लिए 39 सांसदों के साथ समाजवादी पार्टी आगे आयी।

लेकिन 22 जुलाई को संसद में विश्वास मत के लिए हुए चुनाव में अतीक अहमद ने सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव को आंख दिखाते हुए यूपीए सरकार के विरोध में मतदान किया। रघुराज प्रताप सिंह और मुख़्तार अंसारी ने तो उत्तर प्रदेश में अपनी राजनीतिक पार्टी ही खड़ी कर ली।

अपराधी पैदा करने की प्रक्रिया

अपराधी पैदा करने की एक प्रक्रिया होती है। इसे दाउद इब्राहिम, विकास दूबे, श्रीप्रकाश शुक्ला और अतीक अहमद के जरिये भली-भांति समझा जा सकता है। मुंबई पुलिस ने करीम लाला और मान्या सुर्वें गैंग के सफाये के लिए दाउद इब्राहिम को बढ़ावा और संरक्षण दिया। इसी तरह इलाहाबाद के चांद बाबा गैंग के खात्मे के लिए अतीक अहमद का इस्तेमाल कर प्रयागराज पुलिस ने उसे बढ़ावा और संरक्षण दिया।

चांद बाबा की रोशनबाग में दिनदहाड़े हत्या के बाद उसके गैंग के शूटरों और गुर्गों को प्रयागराज पुलिस और अतीक ने मिलकर खत्म किया। इलाहाबाद के गुर्गों को अतीक ने मारा और इलाहाबाद छोड़ मुंबई भाग चुके शूटरों को प्रयागराज पुलिस ने एनकाउंटर में मारा। इसे अपने बचाव में पुलिस कांटे से कांटा निकालना कहती है। लेकिन सच्चाई कुछ और है।

पुलिस और अपराधी के सम्बन्ध को समझने के लिए गुजरात अहमदाबाद के आईपीसीएस अधिकारी अभय चूड़ास्मा और सोहराबुद्दीन शेख, तुलसी प्रजापति मॉडल को देखते हैं। गुजरात के आपीएस अधिकारी अभय चूड़ास्मा एक सुरक्षा रैकेट चलाते थे। जिसमें वो सोहराबुद्दीन और तुलसी प्रजापति का इस्तेमाल राजस्थान के मार्बल कारोबारियों से रंगदारी वसूलने के लिए कर रहे थे।

बाद में सोहराबुद्दीन शेख का नाम भाजपा नेता हरेन पांड्या की हत्या में भी आया। और हरेन पांड्या की हत्या के ठीक एक साल बाद सोहराबुद्दीन शेख, बीबी कौसर बी और तुलसी प्रजापति को एक फेक एनकाउंन्टर में मार डाला गया। मजे की बात यह कि एनकाउंटर करने वालों में खुद अभय चुड़ास्मा भी शामिल थे। इन दोनों का फेक एनकाउंटर कराने के मामले में गुजरात के तत्कालीन गृहमंत्री अमित शाह और राजस्थान के गृहमंत्री गुलाबचंद कटारिया को आरोपित किया गया था।

इसी तरह कानपुर का माफिया विकास दुबे, जिस पर एक बसपा विधायक का संरक्षण था, ने राजनीतिक अदावत में एक भाजपा नेता की हत्या कर दी। बाद में जब एक अन्य मामले में वो जेल गया तो कानपुर के भाजपा विधायक ने उसकी रिहाई के लिए थाने के सामने धरना दिया।

कहने का अर्थ यह कि राजनीति में चुनाव के लिए पैसे जुटाने से लेकर पार्टी के भीतर अपनी प्रतिद्वंदी को ठिकाने लगाने तक के लिए माफियाओं का इस्तेमाल किया जाता है। माफिया रंगदारी से पैसे वसूलकर चुनाव में नेता की मदद करता है। इसके अलावा माफिया नेताओं के अवैध धन को हवाला और निवेश आदि के माध्यम से लीगल पूंजी में बदलता है।  

अपराध का समाजशास्त्र

कार्ल मार्क्स ने व्यंग्य और वाग्विदग्धता से भरपूर अपनी विशेष शैली में लिखा है– “जैसे एक दार्शनिक विचार पैदा करता है, कवि कविता पैदा करता है, पादरी उपदेश गढ़ता है और प्रोफ़ेसर मोटी-मोटी किताबें पैदा करता है, वैसे ही अपराधी अपराध पैदा करता है। अगर हम समाज से अपराध के उत्पादन के संबंध को गौर से देखें तो कई तरह के पूर्वाग्रहों से मुक्त हो सकते हैं। अपराधी केवल अपराध ही पैदा नहीं करता, वह अपराध संबंधी क़ानून, उन क़ानूनों के विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर, उनके भाषण और मोटी-महंगी क़ानून की किताबें भी पैदा करता है। उन किताबों की बिक्री से राष्ट्रीय आय बढ़ती है और विशेषज्ञ विद्वान की आमदनी के साथ उनका व्यक्तिगत सुख भी बढ़ता है।”

मार्क्स कहते हैं कि “अपराधी वह पूरा तंत्र पैदा करता है जिसमें पुलिस विभाग और अदालतें हैं। सिपाही, जज, वकील, जूरी और फांसी देने वाले जल्लाद सब आते हैं। इन सबके माध्यमों से श्रम का सामाजिक विभाजन होता है। मानव-चेतना की विभिन्न क्षमताओं का विकास होता है, नई आवश्यकताएं पैदा होती हैं और उनकी संतुष्टि के नए उपाय खोजे जाते हैं। केवल यातना देने की ज़रूरत से अनेक प्रकार के यंत्रों का आविष्कार हुआ है और यातना के यंत्र पैदा करने की व्यवस्था में बहुतेरे संभ्रांत लोग लगे हुए हैं।” 

मार्क्स आगे कहते हैं कि “अपराधी कभी जनसमुदाय के नैतिक और सौंदर्यात्मक अनुभूतियों को जगाते हुए समाज की अपने ढंग से सेवा भी करता है। इसके कारण और प्रेरणा से केवल क़ानून की मोटी किताबें, तरह तरह के अपराध संबंधी क़ानून और नियम ही नहीं बल्कि कला और साहित्य की रचना भी होती है। इस प्रसंग में मूल और सिलर ही नहीं सोफोक्लिज और शेक्सपीयर तक याद किए जा सकते हैं। अपराधी बुर्जुआ वर्ग के दैनिक जीवन की नीरसता और सुरक्षा को तोड़ता है। इस प्रक्रिया में वह बुर्जुआ वर्ग को जड़ता से बचाता है और उसमें ऐसी तनाव भरी बेचैनी और गति पैदा करता है जिसके बिना बाज़ार की गलाकाटू स्पर्धा धीमी हो जाएगी। इस तरह वह उत्पादक शक्तियों को उत्प्रेरित करता है।”

कार्ल मार्क्स ने उत्पादन की शक्तियों और साधनों के विकास में अपराध की भूमिका स्पष्ट करते हुए कहा कि “अगर साम्राज्य गणतंत्रों का विनाश नहीं करते तो राष्ट्रों का विकास नहीं होता और उपनिवेशवादी दूसरे देशों की लूट का अभियान नहीं चलाते तो विश्व बाज़ार नहीं बनता। इस तरह अपराध केवल व्यक्ति ही नहीं करते कभी कभी राष्ट्र भी करते हैं। मार्क्स ने विश्लेषण के अंत में यह सवाल रखा है कि –“क्या आदम के समय से ही पाप का वृक्ष ही ज्ञान का वृक्ष भी नहीं रहा है।”

एक बीमार समाज ही अपराध में पा सकता है मनोरंजन

आज के पूंजीवादी समाज में एक ओर वर्ग संघर्ष तेज होने और दूसरी ओर अपराधियों के अधिक संगठित होने के साथ क़ानून और व्यवस्था का पूरा तंत्र बहुत फैल गया है। पुलिस तंत्र की गतिविधियां किसी भी अपराधी समूह से अधिक आतंककारी और ज़ासूसी उपन्यास या वेबसीरीज की कथा-संरचना से अधिक रहस्यमयी हो गयी हैं।

जब समाज में शासनतंत्र के भीतर रहस्यमयता का जाल इतना फैला हो, क्रूरता और निर्ममता इतनी बढ़ी हो, वहां जासूसी दुनिया की कथाएं जीवन के वास्तविक अनुभवों से अधिक यथार्थ लगे तो क्या आश्चर्य! पूंजीवादी व्यवस्था, उसके शासन तंत्र और पुलिस तंत्र की निर्ममता और रहस्यमयता जासूसी उपन्यासों फिल्मों और वेब सीरीज में व्यक्त होती है। इसीलिए पाठक और दर्शक उसकी ओर आकर्षित होते हैं।

पूंजीवादी व्यवस्था में अपराध और अपराध संबंधी मनोरंजन सामग्री (उपन्यासों, फिल्मों, वेबसीरीज) की भरमार के विश्लेषण पर मैंडल का निष्कर्ष है कि केवल बीमार समाज ही एक ऐसी दुनिया की कल्पना कर सकता है जिसमें चालबाजी से सब कुछ संभव है, जहां किसी का अपने कार्य पर ही नहीं, अपने विश्वास पर भी कोई नियंत्रण नहीं है। हर आदमी किसी ‘रहस्यमयी शक्ति’ के हाथ की कठपुतली है। यही जासूसी उपन्यासों की दुनिया है। क्या पूंजीवादी व्यवस्था में परायापन के शिकार मनुष्य की यही दशा नहीं है?

क्राइम की लोकप्रियता जिस सामाजिक बीमारी का लक्षण है उस पर चिंता जाहिर करते हुए मैंडल ने लिखा है कि हम यह देखकर केवल आश्चर्य प्रकट कर सकते हैं, आह भर सकते हैं या सिर धुन सकते हैं कि कैसे एक आदमी हर साल दस, बीस या तीस हत्याओं की कहानियां मजे लेकर शांत भाव से पढ़ और देख सकता है। इस तरह वह जीवन भर में पांच सौ, या एक हजार काल्पनिक हत्याओं में मजा लेता है। वह समाज व्यवस्था जितनी भयानक है जिसमें जीने वाले लोग साहित्य-सुख और मानसिक शांति के लिए हत्या, लूट और बलात्कार का वर्णन-चित्रण खोज-खोज कर पढ़ते देखते हैं।

(सुशील मानव स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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Ashok sahni
Ashok sahni
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1 year ago

Yogi himself a criminal…

राकेश
राकेश
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1 year ago

लेखक और ये न्यूज़ दोनो को मै बचपन से जानता हूं, दोनो ही दो कौड़ी के नहीं है।

लेखक को तो उसके घरवाले और सहपाठी दोनो ही नापसंद करते है। क्यूंकि उसकी सोच कुछ मार्कसवाड़ी टाइप की है, की उसके साथ के लोग इतना कैसे कमाते ते

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