जनादेश के अपहरण के खिलाफ सड़क ही एकमात्र रास्ता

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जिस बात की आशंका थी वही हुआ। एग्जिट पोल के बहाने गोदी मीडिया ने मोदी की सरकार बनवा दी। वह भी सामान्य नहीं बल्कि प्रचंड बहुमत से। वोटों का आंकड़ा ऐसा है कि जैसे देश में मोदी के पक्ष में आंधी चल रही थी। जबकि जमीनी सच्चाई इसके बिल्कुल उलट थी। चट्टी-चौराहों और पान-चाय की दुकानों तक में बीजेपी के कार्यकर्ताओं की बोलती बंद थी। सार्वजनिक बहस में कोई शामिल होने का साहस नहीं कर रहा था। लोग बीजेपी के खिलाफ या विपक्ष के पक्ष में या फिर अपने रोजी-रोटी और रोजगार के सवालों को लेकर इतने वोकल और हमलावर थे कि सत्ता को डिफेंड करने की कोई हिम्मत ही नहीं जुटा पा रहा था।

और बहस का यह पूरा मोर्चा जनता ने संभाल रखा था। जमीन पर सत्ता के खिलाफ यह अपने तरह का एक लौह प्रतिरोध था जो 24X7 काम कर रहा था। वह बिहार हो या कि हिमाचल, असम हो या कि कर्नाटक हर जगह यह इसी तरह से दिख रहा था। ऐसे में गोदी मीडिया द्वारा दिए गए तो तिहाई बहुमत की असलियत समझी जा सकती है। जमीनी हकीकत और एग्जिट पोल के आंकड़ों के बीच कितना गैप है यह जमीन पर जाकर रिपोर्टिंग करने वाला हर पत्रकार समझ सकता है। लेकिन चूंकि सरकार बनानी है और वह किसी भी कीमत पर बनानी है तो उसके लिए पूरा माहौल और नरेटिव तैयार करना था। और उस लिहाज से यह प्राथमिक शर्त बन जाती है।

मैं उन लोगों में शामिल हूं जो मानते हैं कि मोदी-शाह की जोड़ी सत्ता को सहज और सामान्य तरीके से अगली सरकार को सौंपने वाली नहीं है। उसके पीछे कारण है। यह कोई सामान्य लोग नहीं हैं और अपने 20-25 सालों के शासन में इन्होंने जो गुनाह किये हैं वह अक्षम्य हैं। और उसके साथ ही सत्ता में रहते जो बदले की कार्रवाइयां की हैं वो सारी चीजें इनका पीछा कर रही हैं। इसलिए दूसरे प्रधानमंत्रियों की तरह रिटायर होने के बाद मोदी सामान्य जीवन जी सकेंगे यह बहुत मुश्किल है। यह बात मोदी को भी पता है और राजनीति में रुचि रखने वाले दूसरे जानकारों को भी। इसलिए यह जितना जनता और लोकतंत्र में विश्वास करने वालों के लिए जीवन मरण की लड़ाई है उससे कम मोदी और शाह के लिए कतई नहीं है।

यह कोई सामान्य इमरजेंसी जैसा मामला भी नहीं है। जिसमें इंदिरा गांधी ने संविधान के दायरे में रह कर सब कुछ किया था। और स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव में जब उनके खिलाफ नतीजे आए तो उन्होंने हार स्वीकार कर ली और सत्ता से बाहर हो गयीं। और फिर उसी तरह से तीन साल बाद हुए चुनाव में फिर से सत्ता में आ गयीं। लेकिन मोदी-शाह ऐसे नहीं हैं। वो बगैर इमरजेंसी के ही इमरजेंसी से बड़ी तानाशाही लागू किए हुए हैं। ये न तो संविधान में विश्वास करते हैं और न ही किसी नियम और कानून में। इनके लिए न तो कोई नैतिक मानदंड है और न ही सिद्धांत का कोई मसला।

और जरूरत पड़ी तो सत्ता के लिए अपराध की कोई भी सीढ़ी पार करने के लिए ये तैयार रहते हैं। और ऊपर से इनके पास धर्मांधता में अंधी हुई एक पूरी सांप्रदायिक जमात है जो न तो भला देख पाती है और न ही बुरा देखने की उसके भीतर सलाहियत है। उसने सोचने-समझने की क्षमता ही खो दिया है। एक विवेकहीन भीड़ जो हर कीमत पर इनके पीछे खड़ी है। इसके साथ ही आरएसएस जैसे एक संगठन की ताकत इनके पास है जो अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए इनके साथ किसी भी कीमत पर खड़ा है। इसलिए अगले तीन दिन बेहद अहम हैं। 

दूर की ही सही इस बात की एक संभावना है कि नतीजे विपक्ष के पक्ष में आएं और मोदी-शाह सामान्य तरीके से सत्ता सौंप दें। लेकिन यह अपवाद स्वरूप ही होगा। ज्यादा संभावना इस बात की है कि चुनाव आयोग और प्रशासन के बल पर ऐन-केन प्रकारेण ये बहुमत और संभव हुआ तो प्रचंड बहुमत के आंकड़े हासिल कर लें और फिर से सत्ता में बैठ जाएं। लेकिन यह जनता के जनादेश के खिलाफ होगा। क्योंकि यह चुनाव जनता बनाम मोदी रहा है। और विपक्ष की भी अगुआई जनता ने ही की है।

जमीन पर उतरे हर शख्स को इस बात का आभास होगा कि जनता किस कदर इस सरकार से त्रस्त है। इस बात को शुरू में कोई नहीं समझ रहा था। याद करिए राम मंदिर के उद्घाटन के दौर को। यह सिर्फ मोदी और शाह को नहीं लग रहा था कि उद्घाटन के बाद पूरे देश में राम लहर आ जाएगी और मोदी उस पर सवार होकर सत्ता की वैतरणी पार कर लेंगे। इस बात की आशंका विपक्ष और सत्ता के खिलाफ काम करने वाले लोगों के भीतर भी थी।

लेकिन उद्घाटन के बावजूद कहीं उसका कोई असर नहीं दिखा। लोग उसके प्रभाव में रहे ही नहीं। मोदी गारंटी पहले दो फेज में ही तिरोहित हो गयी। और नतीजतन मोदी को फिर से अपने उसी पुराने हिंदू-मुस्लिम एजेंडे पर आना पड़ा। जिसमें वह मंगलसूत्र से लेकर घुसपैठिया और न जाने क्या-क्या कहने लगे जो किसी एक प्रधानमंत्री पद पर बैठे शख्स के लिए वर्जित था। लेकिन उन्होंने न तो उसकी मर्यादा का कोई ख्याल रखा और न ही उसकी कोई चिंता की।

और सत्ता हासिल करने के मद में वह आखिरी दौर में न जाने क्या-क्या बोलने और बकने लगे थे यह उन्हें भी समझ में नहीं आ रहा था। इस कड़ी में वह रोजाना नया-नया मुद्दा फेंकते लेकिन अवाम में उसका कोई खरीदार नहीं मिलता। क्योंकि जनता ने अपने रोजी-रोटी और रोजगार के मुद्दों की एक ऐसी लौह दीवार खड़ी कर रखी थी जिससे इनके नफरत और घृणा के मुद्दे टकराकर वापस चले जाते थे।

लेकिन जो बात असली है अब उस पर बात कर लिया जाए। इस बात की एक बड़ी आशंका है कि मैनिपुलेशन के जरिये वह एक बार फिर सत्ता में आ जाएं। लेकिन चूंकि यह जनता द्वारा दिया गया जनादेश नहीं होगा इसलिए उसकी न तो कोई अहमियत होगी और न ही साख। ऐसे में इसके बहुत दिन तक चलने की भी उम्मीद नहीं है। यहीं से विपक्ष और सिविल सोसाइटी की भूमिका शुरू हो जाती है। जनता के मैंडेट को अपहृत करने से बचाने के लिए उसे हर संभव प्रयास करना होगा।

इसमें सबसे पहले इन तीन दिनों के भीतर इस बात को सुनिश्चित करना होगा कि कैसे स्वतंत्र और निष्पक्ष तरीके से मतों की गणना की गारंटी की जाए। और इस कड़ी में पार्टियों को अपने कैडरों को मतगणना केंद्रों पर इकट्ठा करना होगा। जिससे किसी भी तरह के मैनिपुलेशन को रोकने के लिए नौकरशाहों पर दबाव बनाया जा सके। और यह दबाव इस तरह का हो कि कोई उस दिशा में सोचने की हिम्मत ही न करे। बावजूद इसके फिर भी नतीजा बीजेपी के पक्ष में आता है तो यह चुनाव आयोग और ईवीएम के जरिये ही संभव होगा। जिसकी कम से कम अभी तक विपक्ष के पास कोई काट नहीं है।

ऐसे समय में आयोग और कोर्ट को भले ही औपचारिक तरीके से शामिल किया जाए और उनसे जरूरी गुहार लगायी जाए लेकिन आखिरी रास्ता सड़क का ही होगा। तत्काल विपक्ष और सिविल सोसाइटी को जनादेश के इस अपहरण के खिलाफ शांतिपूर्ण आंदोलन का आह्वान करना होगा जिससे जनादेश को फिर से वापस हासिल किया जा सके।

यह अपने किस्म की दूसरी आजादी की लड़ाई होगी। जिसमें दुश्मन कोई अंग्रेज नहीं बल्कि अपने ही बीच के लोग हैं। और लोकतंत्र तथा आजादी को हड़पने वाले ऐसे लोगों को निर्णायक शिकस्त देनी होगी। अच्छी बात यह है कि विपक्ष पूरी तरह से एकजुट है। और यह एकजुटता सड़क पर भी दिखानी होगी। जरूरत पड़ने पर यह लड़ाई लंबी भी चल सकती है। लिहाजा उसके लिए भी लोगों को मानसिक तौर पर तैयार रहना होगा।  

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)

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