एक दिन पहले अचानक छत्तीसगढ़ से खबर आयी कि बस्तर स्थित कांकेर के जंगलों में सुरक्षा बल के जवानों के साथ मुठभेड़ में 29 माओवादियों को मार दिया गया है। और खबर में तीन जवानों के घायल होने की बात भी शामिल थी। यह घटना 19 अप्रैल को पहले चरण के होने वाले चुनाव से तीन दिन पहले हुई है।
अमूमन तो सचमुच में अगर कोई मुठभेड़ होती है तो उसमें दोनों पक्षों को हानि होती है। लेकिन यहां ऐसा कुछ नहीं दिखा। 29 लोग एक पक्ष के मारे जाते हैं और सुरक्षा बलों के तीन जवानों को केवल चोट लगती है। यह पूरा घटनाक्रम ही कई सवाल खड़े करता है। एक वीडियो सामने आया है जिसमें सुरक्षा बलों के जवानों को जंगलों में गश्त करते दिखाया गया है। और बैकग्राउंड से गोलियां चलने की आवाजें आ रही हैं।
कुछ पेड़ों पर गोलियों के निशान होने की बात कही जा रही है। लेकिन वीडियो में किसी भी माओवादी को निशाना बनाते या फिर उसके साथ मुठभेड़ करते नहीं दिखाया जाता है। खबर तो यहां तक आ रही है कि पहले 15 माओवादियों को जवानों ने मार दिया था और जब बाकी 14 ने आत्मसमर्पण किया तो पुलिस ने बाद में उन्हें भी मार दिया। अगर ऐसा है और यह मुठभेड़ नहीं, शुद्ध रूप से एक नरसंहार है और उसके सिवा दूसरा कुछ नहीं कहा जा सकता है।
अगर कोई आपका दुश्मन भी है तो उसके खिलाफ इस तरह से कार्रवाई की इजाजत न तो संविधान देता है और न ही कोई सभ्य समाज। कानून की भाषा में शुद्ध रूप से इसे न्यायेतर हत्या की संज्ञा दी जाती है। चुनाव से ठीक पहले इसका होना कई तरह के संदेह पैदा करता है। और इस घटना से दो दिन पहले गृहमंत्री अमित शाह का बस्तर दौरा और उसमें तीन साल के भीतर नक्सलियों को खत्म करने की उनकी घोषणा भी बहुत कुछ कहती है।
यह अपने किस्म का पुलवामा हो तो किसी को अचरज नहीं होना चाहिए। हालांकि अभी निष्कर्ष के तौर पर इस पर कुछ कहना उचित नहीं होगा। लेकिन पहले चरण के चुनाव की तारीख इस तरह से तय की गयी है जिसमें कुछ छोटे पुलवामों को अंजाम देने के साथ ही कुछ फील गुड जैसा मतदाताओं को एहसास कराया जाए।
मसलन यह तारीख रामनवमी के ठीक एक दिन बात आती है। यह कौन नहीं जानता कि पीएम मोदी और पूरी संघ-बीजेपी चुनाव में राम मंदिर बनवाने का ढोल पीट रहे हैं। और उन्होंने समय से पहले उसके उद्घाटन को भी इसी लिए संपन्न कराया था कि उससे वोटों की फसल काटी जा सके। लेकिन वो तो जनता है जिसने उसको खारिज कर दिया। और लाख कोशिशों के बाद भी काठ की हाड़ी ने भट्टी पर जाने से इंकार कर दिया। लेकिन पीएम मोदी के पास राम मंदिर और अनुच्छेद 370 के अलावा गिनाने के लिए कुछ है भी नहीं।
लिहाजा उनकी आखिरी कोशिश यही थी कि रामनवमी के मौके का इस्तेमाल पहले चरण के चुनाव के लिए कर लिया जाए। अनायास नहीं देश भर में बीजेपी और संघ के कार्यकर्ता रामनवमी के त्योहार को पूरे धूम-धाम से मनवाने में लगे रहे। जगह-जगह धार्मिक आयोजन उनके चुनावी-राजनीतिक कार्यक्रम का हिस्सा बन गया।
इसके अलावा इसी समय यूपीएसएसी का नतीजा भी आना कोई इत्तफाक नहीं है और वह भी पहली पोलिंग से ठीक दो दिन पहले। एक ऐसे समय में जबकि बेरोजगारी एक बड़ा मुद्दा बन गयी है और दूसरे मुद्दों पर हावी होती दिख रही है। उसमें सरकार के लिए मतदाताओं में रोजगार के मोर्चे पर कुछ करने का एहसास कराना एक बड़ी रणनीति का हिस्सा थी।
हालांकि इससे बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ने जा रहा है। क्योंकि लोगों को पता है कि इसमें सीटें बहुत कम होती हैं और यह परीक्षा हर साल आयोजित होती है। क्योंकि यह सत्ता और सरकार चलाने की बुनियादी ज़रूरतों का हिस्सा है। लिहाजा चाह कर भी सरकार इससे नहीं बच सकती है।
इसी के साथ पाकिस्तान में सर्वजीत के हत्यारे की कथित हत्या (ऐसा इसलिए कि अभी उसकी मौत की पुष्टि नहीं हो पायी है) का मामला भी इसी कड़ी में आता है। पाकिस्तान के अधिकारियों ने भी उसमें भारत का हाथ होने से इंकार नहीं किया है। और इस समय हुई यह घटना अगर चुनाव को प्रभावित करने के मकसद से की गयी हो तो किसी को अचरज नहीं होना चाहिए।
इसके साथ ही कल ही कश्मीर में एक प्रवासी मजदूर की आतंकियों द्वारा की गयी हत्या पर भी कई तरह के सवाल खड़े हो रहे हैं। यह कितना स्वाभाविक है और कितना प्रायोजित कह पाना मुश्किल है। लेकिन इसका समय ज़रूर कई तरह के संदेह पैदा करता है।
इन तमाम कोशिशों के बाद भी बीजेपी मतदाताओं को प्रभावित करने में नाकाम साबित हो रही है। और आलम यह है कि विपक्ष की बात दूर जनता ने ही खुद उसके खिलाफ मोर्चा संभाल लिया है। कोई और नहीं बल्कि खुद उसके कोर के लोग ही उसके खिलाफ खड़े हो गए हैं। पंजाब से लेकर हरियाणा और राजस्थान तक जाटों ने जिस तरह से बीजेपी के खिलाफ गोलबंदी की है उसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलेगी। हरियाणा और पंजाब में तो उन्होंने बीजेपी के नेताओं का गांवों में घुसना दूभर कर दिया है।
अगर भूल से कोई नेता घुस जा रहा है तो बगैर अपमानित हुए उसका वहां से लौटना मुश्किल है। हरियाणा में अगर कोई जाट समुदाय का नेता या फिर नागरिक बीजेपी की वकालत करता दिख जाए तो समाज के लोग उसे गद्दार घोषित कर दे रहे हैं और उनके साथ उसी तरह का व्यवहार कर रहे हैं जैसा एक गद्दार के साथ होता है। इस तरह से सीधे-सीधे उसे बीजेपी का दलाल होने की संज्ञा दे रहे हैं।
इससे भी बड़ी आफत बीजेपी के लिए राजपूतों ने पैदा कर दी है। गुजरात से केंद्रीय मंत्री पुरषोत्तम रुपाला के बयान के बाद राजपूतों के विरोध की जो चिंगारी उठी थी वह राजस्थान और यूपी पहुंच कर अब दावानल में तब्दील हो गयी है। राजकोट में राजस्थान, हरियाणा और यूपी के क्षत्रिय समाज की हुई पंचायत जिसमें लाखों लोगों का जमावड़ा हुआ था, ने इसे संगठित रूप दे दिया है। यूपी में अब राजपूतों की जगह-जगह पंचायत हो रही है।
ठाकुरों के राजनीतिक केंद्र कहे जाने वाले मेरठ के चौबीसी में होने वाली पंचायत ने देश के ठाकुरों को बीजेपी के खिलाफ वोट करने का आह्वान कर दिया है। उसके बाद धौलाना से लेकर गाजियाबाद तमाम दूसरी जगहों पर पंचायतों का सिलसिला जारी है। बीजेपी से हटने के पीछे राजपूत समुदाय के लोग कोई एक कारण नहीं बल्कि हजार कारण गिना रहे हैं। उनका कहना है कि उनके पुरखों का इस रेजीम में अपमान किया जा रहा है। रुपाला ने जो बयान दिया था वह एक बड़ा मामला है। जिसमें क्षत्रियों के पुरखों द्वारा अंग्रेजों और मुगलों से समझौता कर अपनी बहन-बेटियां उन्हें देने का उन्होंने आरोप लगाया था।
उसी तरह से राजपूतों के शौर्य के प्रतीकों को दूसरी जातियों के हवाले करने की बीजेपी की कोशिशों को भी ठाकुर समाज के लोगों ने बहुत बुरा माना है। मिहिर भोज को गुर्जरों को देने और इसी तरह के कई दूसरे मामले ठाकुर समाज के लोग गिना रहे हैं। और इससे भी बढ़कर वो सत्ता में ठाकुरों के प्रतिनिधित्व को लगातार कम करने और जो लोग पहले हैं उन्हें प्रभावहीन करने का आरोप लगा रहे हैं।
जब गिनाने की बारी आती है तो वो शुरुआत ऊपर से करते हैं। राजनाथ सिंह जो ठाकुरों के बड़े चेहरे हैं। उनके बारे में उनका कहना है कि पहले उन्हें गृहमंत्री बनाया गया और फिर रक्षा मंत्री बनाकर किनारे कर दिया गया। वीके सिंह कैबिनेट मंत्री थे उनको इस बार टिकट ही नहीं दिया गया।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में संगीत सोम और सुरेश राणा जैसे ठाकुर नेताओं की भूमिका बेहद सीमित कर दी गयी है। और इनमें से किसी को टिकट भी नहीं दिया गया। ठीक चुनाव से पहले जौनपुर के बाहुबली ठाकुर नेता धनंजय सिंह को जेल की सींखचों के पीछे डाल दिया गया।
उनका सबसे बड़ा आरोप सूबे के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को लेकर है। जिसमें उनका कहना है कि अगली बार बीजेपी की सरकार बनी तो मोदी सबसे पहला काम योगी को मुख्यमंत्री के पद से हटाने का करेंगे। उनका कहना है कि शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह और वसुंधरा राजे के बाद अब बारी योगी आदित्यनाथ की है।
लिहाजा मोदी को सत्ता में ले आकर वो अपने पैर में कुल्हाड़ी नहीं मारना चाहते हैं। इस सिलसिले में उन्होंने नारा तक दे रखा है- योगी तुझसे बैर नहीं, मोदी तेरी खैर नहीं। इसके साथ ही ढेर सारे लोग अग्निवीर को भी ठाकुर समाज की नाराजगी का एक बड़ा मुद्दा मानते हैं। उनका कहना है कि राजपूत समुदाय के एक बड़े हिस्से को सेना में नौकरी मिल जाती थी जिससे उनका परिवार पल जाता था। लेकिन सरकार ने उस रास्ते को बंद कर सीधे उनके समाज के पेट पर लात मारने का काम किया है।
और इस बात को लोगों को समझना चाहिए कि ठाकुर समुदाय का अगर कोई शख्स बीजेपी के खिलाफ जाता है तो वह समाज के दूसरे तबकों के एक बड़े हिस्से को भी प्रभावित करता है। लिहाजा उसे भी बीजेपी के खिलाफ खड़ा कर देगा। ऐसी स्थिति में कहा जा सकता है कि ठाकुरों की नाराज़गी इस बार बीजेपी पर भारी पड़ने जा रही है।
(महेंद्र मिश्र जनचौक के संस्थापक संपादक हैं।)