मसूरी गोलीकांड की 29वीं बरसी: प्रशासन की साजिश का परिणाम था गोलीकांड

देहरादून। उत्तराखंड के मसूरी गोलीकांड की आज 29वीं बरसी है। 29 साल पहले दो सितंबर 1994 को पुलिस की गोली से छह आंदोलनकारियों की मौत हो गई थी। राज्य सरकार की आरक्षण नीति के खिलाफ तथा पृथक राज्य की मांग कर रहे आंदोलनकारियों पर पीएसी और पुलिस ने गोलियां बरसा दी थीं। गोलीकांड में एक पुलिस उपाधीक्षक की भी मौत हो गई थी।

इस गोली कांड को लेकर उत्तराखंड संघर्ष समिति की ओर से याचिकाकर्ता- सुधीर थपलियाल, जोतसिंह एवं देवराज कपूर द्वारा इलाहाबाद हाइकोर्ट में 7 अक्टूबर 1994 को न्यायाधीश न्यायमूर्ति रवि एस. धवन एवं न्यायमूर्ति ए.बी.श्रीवास्तव की बेंच में याचिका दायर की गयी। याचिका में खटीमा और मसूरी गोलीकांडों का भी उल्लेख करते हुये उत्तराखंडियों पर हो रहे सरकारी अत्याचार को रोकने तथा पुलिस-प्रशासन की बर्बरता और लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन की जांच की मांग की गयी।

बाद में अदालत में सांसद मानबेन्द्र शाह द्वारा भी एक याचिका (1994 की रिट पिटिशन संख्या 29843-निस्तारण दिनांक-31 मई 1995) हाइकोर्ट में दायर की गयी जिसे अदालत ने एक साथ मिला दिया।

कोर्ट में 4 अन्य याचिकाएं भी उत्तराखंड में मानवाधिकारों के हनन और पुलिस दमन के खिलाफ दायर हुयीं। सीबीआई और राष्ट्रीय महिला आयोग की जांच रिपोर्ट के आधार पर इलाहाबाद हाइकोर्ट ने उत्तराखंड आन्दोलन की हिंसा के घटनाक्रम का कुछ इस तरह निष्कर्ष निकाला। इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला 9 फरवरी 1996 को आया था जिसमें अदालत ने गोलीकांड को सरकारी आतंकवाद बताया था। निम्नलिखित विवरण हाइकोर्ट के दिनांक 19 फरवरी 1996 के फैसले से पैराग्राफ संख्या समेत लिये गये हैं।

पैरा संख्या 237

याचिकाकर्ताओं के अनुसार उत्तराखंड संघर्ष समिति के आह्वान पर उत्तराखंड के अन्य हिस्सों की तरह ही मसूरी के लोग भी राज्य सरकार की आरक्षण नीति के खिलाफ तथा पृथक राज्य की मांग को लेकर आन्दोलित थे। प्रतिदिन के कार्यक्रम संचालन के लिये आन्दोलनकारियों ने झूलाघर पर रोपवे रेस्टोरेंट में अस्थाई कार्यालय बनाया हुआ था।

पैरा संख्या 238

31 अगस्त 1994 को शहर के कुछ प्रमुख लोगों के साथ संघर्ष समिति की उप समिति की बैठक रखी गयी थी जिसमें पौड़ी में बैठे आन्दोलनकारियों के समर्थन में ‘बंद’ के कार्यक्रम को सफल बनाने पर विचार विमर्श होना था। जिलाधिकारी को भेजी गयी एडीएम (एफ), एसडीएम और थाना प्रभारी की एक संयुक्त रिपोर्ट में कहा गया था कि मसूरी के नागरिकों की शांतिप्रिय प्रवृति को देखते हुये बंद के दौरान अतिरिक्त पुलिस बल भेजने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन प्रशासन के दुराग्रहपूर्ण रवैये के कारण उस रिपोर्ट की उपेक्षा कर मसूरी के थाना प्रभारी को 1 सितम्बर 1994 को बदल दिया गया और वहां पीएसी और पुलिस की भारी मात्रा में तैनाती कर दी गयी।

पैरा संख्या 239

नये थाना प्रभारी द्वारा 2 सितम्बर 1994 की सुबह धरने पर बैठे 5 आन्दोलनकारियों की गिरफ्तारी और दानपात्र सहित कुछ अन्य सामान को जब्त किये जाने से आन्दोलनकारी और अधिक आक्रोशित हो गये। इस दौरान पुलिस ने 43 आन्दोलनकारियों को गिरफ्तार कर लिया। इसके विरोध में नगर के गणमान्य नागरिकों ने सुबह 9 बजे झूलाघर की ओर एक जुलूस निकाला जिसमें महिलाएं और बच्चे भी थे। लोग जब झूलाघर से आन्दोलनकारियों को खदेड़ने के विरोध में प्रदर्शन कर रहे थे और खटीमा गोलीकांड में हताहतों को श्रद्धांजलि दे रहे थे तो उसी समय ऊपर पहाड़ी पर सादी वर्दी में बैठे पीएसी के लोगों ने पथराव कर दिया।

इस पथराव से बचने के लिये कुछ महिलाएं एवं बच्चे झूलाघर के अन्दर उस हाॅल में घुस गये जहां एक दिन पहले तक समिति का कार्यालय हुआ करता था और जो एक रेस्टोरेंट था। उस समय झूलाघर पर पुलिस क्षेत्राधिकारी (डीएसपी) उमाकान्त त्रिपाठी पीएसी के कुछ जवानों के साथ मौजूद थे। जहां डीएसपी त्रिपाठी झूलाघर के हाॅल को पुनः आन्दोलनकारियों को सौंपने को तैयार थे, वहीं नया थानेदार उस हाॅल को न छोड़ने और आन्दोलन का दमन करने पर आमादा था। इसी दौरान अचानक पीएसी और पुलिस के जवानों ने बिल्डिंग को घेर कर एसडीएम की अनुमति के बिना अकारण ही जनता पर फायरिंग शुरू कर दी।

पैरा संख्या 240

पुलिस ने मात्र 5 फुट की दूरी से हंसा धनाईं और बेलमती चौहान पर गोलियां बरसा दीं, जिससे उनकी घटनास्थल पर ही मौत हो गयी। इन दोनों के सिर पर गोली मारे जाने से उनका भेजा फट गया था। इसी दौरान रायसिंह बंगारी, धनपत सिंह और मदन मोहन ममगाईं को भी गोलियां लगीं और उनकी मौत हो गयी। जगमोहन सिंह रावत नाम के एक गढ़वाली कांस्टेबल ने बलबीर सिंह नेगी नाम के युवक के सीने में रायफल का बेनट घोंप दिया, जिससे उसकी भी मौत हो गयी। राजेन्द्र सिंह नाम के एक एडवोकेट के सीने में गोली मारी गयी जिससे वह गंभीर रूप से घायल हो गया।

फायरिंग के दौरान पुलिस लाठीचार्ज भी करती रही। पुलिस क्षेत्राधिकारी उमाकांत त्रिपाठी ने जब अपने हिंसा पर उतारू लोगों को चिल्ला कर रोकने की कोशिश की तो उन पर भी थ्रीनाॅट थ्री रायफल से गोली चला दी गयी जिससे वह भी घायल हो गये। दम तोड़ने से पहले इस युवा अधिकारी ने किसी से कहा था कि उन्हें उनके ही लोगों ने मार डाला।

पुलिस ने बिना किसी वारंट और बिना किसी वैध कारण के 47 लोगों को गिरफ्तार कर लिया, जिनमें नगर पालिका के पूर्व अध्यक्ष एवं एक रिटायर्ड डीआईजी भी शामिल थे। इन गिरफ्तार लोगों को मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश करने के बजाए बस में ठूंस कर बरेली जेल भेज दिया गया। रास्ते में उनके साथ मारपीट की गयी और भोजन तथा पानी भी नहीं दिया गया। वे दूसरे दिन 5 बजे शाम भूखे प्यासे बरेली जेल पहुंचे।

दूसरी ओर धारा 147, 148, 149, 353, 332, 339, 436, 307, 395 आईपीसी, 3/4 पीपीडी एक्ट एवं 7 क्रिमिनल एमेंडमेंट एक्ट के तहत मसूरी के थाना अधिकारी द्वारा दर्ज एफआईआर, जिसे 14 लोगों के खिलाफ दाखिल चार्जशीट में शामिल किया गया है, में आरोप लगाया गया कि आन्दोलनकारियों ने नगरपालिका के झूलाघर के हाॅल पर जबरन कब्जा करने के साथ ही मसूरी के एसडीएम कार्यालय पर भी 30 अगस्त 1994 को तालाबंदी कर दी थी और प्रशासन ने तालाबंदी खोलने तथा हाॅल से अनधिकृत कब्जा हटाने का प्रयास किया था।

चार्जशीट में कहा गया है कि खटीमा में 1 सितम्बर 1994 को पुलिस फायरिंग में कुछ लोगों के मरने की खबर मसूरी पहुंची तो उसकी प्रतिक्रिया 2 सितम्बर 1994 को हुयी। उस दिन आन्दोलनकारियों की भीड़ झूलाघर में एकत्र हुयी और खटीमा की घटना एवं इससे पूर्व अपने कुछ साथियों की गिरफ्तारी से गुस्साई भीड़ ने पथराव शुरू कर दिया, जिससे कुछ अधिकारियों समेत कई पुलिसकर्मी घायल हो गये।

चार्जशीट के अनुसार लाठीचार्ज और आंसू गैस का प्रयोग करने पर भी जब भीड़ पर नियंत्रण नहीं पाया जा सका और भीड़ ने पुलिस के हथियार लूटने का प्रयास किया तो एसडीएम के आदेश पर पुलिस को फायरिंग करनी पड़ी जिससे 6 लोगों की मौत हो गयी और कई घायल हो गये। पुलिस क्षेत्राधिकारी जो कि इस घटना में घायल हो गये थे, भी जब इलाज के लिये अन्य घायलों के साथ सेंट मेरी अस्पताल गये तो भीड़ में से कुछ लोगों ने उन्हें अस्पताल से बाहर निकाला और बीच सड़क पर लाठी, ईंट, पत्थरों, से मार डाला।

(जयसिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं और उत्तराखंड में रहते हैं।)

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